ग्रामयुग डायरी: तीन पीढ़ी बाद?


खल्दुन का कहना है कि कोई मानव जनित व्यवस्था या सभ्यता चार चरणों में या चार पीढ़ियों में अपना जीवन पूरा करती है। पहली पीढ़ी व्यवस्था को बनाती है, दूसरी संभालती है, तीसरी ढोती है और चौथी उसे बिखेर देती है। बिखेरने की यह प्रक्रिया सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकती है।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

काशी में लगभग डेढ़ महीने रहने के बाद जब मैं 7 मई को गांव पहुंचा तो वहां का माहौल बदला हुआ था। इस बार गांव में मेरी अगवानी के लिए मेरा चार साल का भतीजा उज्ज्वल नहीं था। वह कुछ दिन पहले गांव छोड़ नजदीकी शहर जौनपुर चला गया है। वहां एक स्कूल में उसका एडमिशन करा दिया गया है। उसके साथ उसकी बहन, मां और दादा-दादी भी चले गए हैं। उसके पिता अर्थात मेरे छोटे भाई की स्थिति अधर में है। वह गांव के ही समीप एक इंटर कालेज में प्राध्यापक है। इसलिए वह पूरी तरह से शहर में शिफ्ट नहीं कर सकता। आज स्थिति यह है कि वह पांच-छः दिन गांव में और एक-दो दिन शहर में बच्चों के साथ रहने का अभ्यास कर रहा है।

यह स्थिति अचानक नहीं पैदा हुई है। एक दिन इसे होना ही था। गांव की जिस व्यवस्था में मेरी और मेरे पिताजी की पीढ़ी ने अपना बचपन गुजारा है, वह मेरे दादा जी की बनाई है। दादा जी को अगर मैं पहली पीढ़ी का कहूं तो पिताजी-चाचाजी को दूसरी, मुझे और मेरे भाइयों को तीसरी जबकि मेरे बेटों और भतीजों को चौथी पीढ़ी का माना जाएगा। दूसरी पीढ़ी तक सभी लोग गांव के स्कूल में पढ़े। तीसरी पीढ़ी में कुछ लोग शहर और कुछ गांव में पढ़े किंतु चौथी पीढ़ी में मेरे परिवार का एक भी सदस्य ऐसा नहीं है जो गांव में पढ़ा हो। आज गांवों में शिक्षा का जो माहौल है, उसमें इस बात की संभावना लगभग शून्य है कि हमारे परिवार का कोई बच्चा आगे चलकर गांव के किसी स्कूल में पढ़ेगा।

चौथी पीढ़ी की इस स्थिति को देखकर मुझे अरबी विद्वान इब्न खल्दुन की बात याद आती है। खल्दून ने अपनी बात राजवंशों और विशेष रूप से इस्लामी राजवंशों के संदर्भ में कही थी किंतु वे बातें अपने आप में सार्वभौमिक हैं। छोटे-मोटे अपवादों के साथ वह किसी भी कालखंड में किसी भी विरासत पर लागू होती हैं। उल्लेखनीय है कि इब्न खल्दुन अपने समय के प्रसिद्ध इतिहासकार, अर्थशास्त्री, कूटनीतिज्ञ और समाजशास्त्री थे। चौदहवीं शदी के उत्तरार्ध में उन्होंने एशिया, अफ्रीका और यूरोप के कई राजवंशों के लिए काम किया। अपने व्यापक अनुभव को समेटते हुए उन्होंने कई किताबें लिखीं जिनमें सबसे मशहूर है- अल् मुकद्दिमा। इस किताब को समाजशास्त्र का बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। इसी किताब में उन्होंने अन्य बातों के साथ यह भी समझाया है कि विविध राजवंश और सभ्यताएं कैसे जन्म लेती हैं और कैसे वे समय के साथ नष्ट हो जाती हैं।

खल्दुन का कहना है कि कोई मानव जनित व्यवस्था या सभ्यता चार चरणों में या चार पीढ़ियों में अपना जीवन पूरा करती है। पहली पीढ़ी व्यवस्था को बनाती है, दूसरी संभालती है, तीसरी ढोती है और चौथी उसे बिखेर देती है। बिखेरने की यह प्रक्रिया सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकती है। सृजन का नया बीज या गुमनामी का एक अंतहीन सिलसिला, परिणाम कुछ भी हो सकता है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि चौथी पीढ़ी की क्षमता और समझदारी कितनी है। इसमें बाह्य परिस्थितियों की भी बड़ी भूमिका हो सकती है।

खल्दुन का यह सिद्धांत एक खास बात पर आधारित है जिसे वह ‘अल् असबिया’ कहता है। मोटे तौर पर अल् असबिया का अर्थ हुआ भाईचारा या सामाजिक एकजुटता। यह भाईचारा किसी खानदान, कबीले, संगठन या अभियान की ताकत का मूल आधार होता है। जब एक समूह में शामिल प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से जुड़ा महसूस करता है, सबका एक साझा उद्देश्य होता है और सबमें आशा-निराशा, वेदना-उमंग, वरेण्य-त्याज्य जैसी तमाम बातों की लगभग एक जैसी समझ होती है तब वह समूह सहज ही अपने ध्येय को प्राप्त कर लेता है। चाहे रक्त संबंधों पर आधारित एक खानदान और कबीले की बात हो या फिर किसी समूचे राष्ट्र की बात हो, अल् असबिया अर्थात भाइचारे की यह भावना सभी समूहों में शक्ति का मूल आधार होती है।

पहली पीढ़ी अर्थात निर्माता पीढ़ी के दौर में अल् असबिया अपने चरम पर होती है। इसमें शीर्षस्थ व्यक्ति अपने लोगों के बहुत नजदीक होता है और वह नए-नए प्रयोग करता है। इसके बाद जो दूसरी पीढ़ी आती है, वह मोर्चाबंदी में लगती है। वह पहली पीढ़ी की उपलब्धियों को आदर्श मानकर उसे संभालने का प्रयास करती है। इस समय नए प्रयोगों की गुंजाइश रहती है लेकिन संबंधों में गर्माहट कम होने लगती है। तीसरी पीढ़ी को खल्दुन ने रुढ़िवादी पीढ़ी कहा है। इस दौरान परंपराएं रुढ़ियां बन जाती हैं और समूह के लोगों में दूरी बढ़ने लगती है। यह पीढ़ी कुछ नया करने की बजाए किसी तरह पुरानी चीजों को ढोती है। इसके बाद अंत में चौथी पीढ़ी आती है जहां भाईचारा अपने न्यूनतम स्तर पर चला जाता है, समूह के बीच संवाद लगभग समाप्त हो जाता है और इसी माहौल में चौथी पीढ़ी उस पुरानी विरासत को धीरे-धीरे बिखेर देती है जिसे पहली पीढ़ी ने बनाया होता है।

खल्दुन की इस बात को मैं अपने परिवार के संदर्भ में साफ महसूस कर रहा हूं। पहली पीढ़ी में परिवार एकदम से कसा हुआ था। रात-दिन, उठते-बैठते सब एक साथ रहते थे। आपसी भाईचारा अपने चरम पर था। दूसरी पीढ़ी के दौर में समय ने करवट बदली और लोग आजीविका के लिए दूर-दूर शहरों में चले गए। इस पर भी उन्होंने दादा जी की विरासत को संभाल कर रखा। दूर-दूर होने के बावजूद उनमें आपसी संवाद बना रहा और हर छोटे-बड़े मौके पर लोग मिलते रहे। तीसरी पीढ़ी यानि मेरी पीढ़ी आते-आते आपसी संवाद और कम हो चला है। हमारी पीढ़ी के लोग कई वर्षों बाद किसी विशेष अवसर पर मिलते हैं। सबको सबके चेहरे याद हैं किंतु संबंध औपचारिक से हो गए हैं।

मेरे परिवार में चौथी पीढ़ी का दौर अभी आने वाला है। लेकिन ऐसी कई बातें हैं जो संकेत करती हैं कि इब्न खल्दुन की भविष्यवाणी हमारे संदर्भ में भी सच होगी। आज चौथी पीढ़ी के लिए गांव एक तरह से अप्रासंगिक हो चुका है। इस पीढ़ी के लोग यदि कहीं भीड़ में अचानक मिलें तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वे एक-दूसरे को पहचान ही जाएंगे। इस माहौल में अल् असबिया अर्थात भाईचारे की भावना का क्या होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। वह दिन दूर नहीं जब आपस में संपर्क न्यूनतम हो जाने से संयुक्त परिवार की वर्तमान व्यवस्था भी चरमरा जाएगी और इस प्रकार वह डोर टूट जाएगी जिसके सहारे हम आज तक गांव में अपनी पहचान बचाए हुए हैं। ऐसे में चौथी पीढ़ी में से अधिकतर लोग अपने-अपने हिस्से की जमीनें बेचकर गांव से ‘मुक्त’ हो जाएंगे। जिनका भावनात्मक लगाव अधिक होगा, वे अपने हिस्से की जमीन बेचने में हिचकेंगे लेकिन गांव में कुछ कर पाना तो दूर, गांव में पैर रख पाना भी उनके लिए आसान नहीं होगा।

खल्दुन ने जो कहा है, वह एक संभावना है। आम तौर पर ऐसा ही होता है, लेकिन यह कोई ब्रह्म सत्य हो, ऐसी बात भी नहीं है। निर्माता पीढ़ी के बाद जो भी पीढ़ियां आती हैं, उन सभी को अपने-अपने तरीके से नई रचना करने का अवसर मिलता है। यदि हम अपनी विरासत में कालबाह्य और रुढ़ि बन चुकी चीजों को हटाकर उसे युगानुकूल और प्रासंगिक बनाने का काम करते हैं, तो हमारी स्थिति बदल जाती है। नियति ने हमें किसी भी पीढ़ी में रखा हो, यदि हम ईमानदारी से प्रयास करें तो स्वयं को पहली पीढ़ी की भूमिका में ला सकते हैं। अपनी विरासत को दीर्घजीवी बनाने का यही एक उपाय है।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि गांव की हमारी विरासत जिस बुनियाद पर टिकी है, उसका नाम है संयुक्त परिवार। यह बहुत ही कारगर व्यवस्था रही है किन्तु इसमें अब व्यापक बदलाव की जरूरत है। हजारों साल से बड़े परिवार टूटकर छोटे परिवार बनते आए हैं लेकिन आज जरूरत है कि अतीत में टूटकर छोटे हुए परिवार फिर से मिलें और मिलकर बड़े परिवार बनाएं। शास्त्रीय और लौकिक दृष्टि से जिस व्यवस्था को एकात्मक और केन्द्रित बनाया गया था, उसे बदले माहौल में विकेन्द्रित और संघीय स्वरूप देने की जरूरत है। हमें वे सभी प्रयोग करने होंगे जिसके परिणाम स्वरूप हमारी अगली पीढ़ी के लिए गांव की जमीन बचाकर रखना एक आकर्षक विकल्प हो जाए और वह उसे बेचकर गांव से भागने की न सोचे।

मैं जिस बदलाव की योजना बना रहा हूं, उसकी सफलता के लिए अल् असबिया अर्थात भाईचारे की भावना का मजबूत होना पहली शर्त है। अपनी यात्राओं में मैं इसी के लिए सूत्र ढूंढता रहता हूं। गत 10 मई को जब मैं अपने फुफेरे भाई के तिलक समारोह में शामिल होने के लिए निकला तो मेरे ध्यान में यही बात थी। वहां अपने सगे-संबंधियों से मिलते हुए 11 मई को मैं सड़क मार्ग से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। दो दिन दिल्ली में रहने के बाद आज मैं खजुराहो अपने मित्र नितेश द्विवेदी के विवाह समारोह में शामिल होने जा रहा हूं। मैं चाहता हूं कि अल असबिया की अवधारणा को रक्त संबंधों की सीमा से आगे ले जाकर उसे ग्रामयुग जैसे अभियान की धुरी बना दूं।

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)