ग्रामयुग डायरी: पर्दा खींचने का समय

आराम से टहलते हुए किसी मुद्दे पर सोचना आसान होता है। किंतु जैसे-जैसे आप अपनी रफ्तार तेज करेंगे आपकी सोचने की क्षमता घटती जाएगी। यदि किसी कारण से आपको तेज दौड़ना पड़ा तो तय मानिए कि उस समय दिमाग की सोचने की ताकत एक तरह से खत्म सी हो जाती है। ऐसे मौके पर कुछ सोचना तो दूर की बात है, प्रायः व्यक्ति अपने आस-पास की वस्तुओं और गतिविधियों को देख भी नहीं पाता है।

कभी समय मिले तो एक प्रयोग कीजिए। अपने किसी मित्र के साथ आराम से टहलते हुए उससे अचानक पूछिए कि 23×78 कितना होता है। साथ में शर्त रखिए कि इसके लिए मोबाइल या कागज-कलम का प्रयोग नहीं करना है और जवाब एक मिनट में देना है। आपका प्रश्न सुनकर पहले तो आपका मित्र उत्तर देने से बचना चाहेगा। लेकिन यदि उसने जवाब देने की कोशिश की तो उसकी चाल धीमी होने लगेगी और फिर उसके कदम एकदम से रुक जाएंगे। हो सकता है कि वह कहीं जगह देखकर बैठ जाए क्योंकि जब दिमाग पर जोर पड़ता है तब शरीर की बाहरी गतिविधियां शिथिल हो जाती हैं।

यह प्रयोग आप अपने ऊपर भी कर सकते हैं। आप पाएंगे कि आराम से टहलते हुए किसी मुद्दे पर सोचना आसान होता है। किंतु जैसे-जैसे आप अपनी रफ्तार तेज करेंगे आपकी सोचने की क्षमता घटती जाएगी। यदि किसी कारण से आपको तेज दौड़ना पड़ा तो तय मानिए कि उस समय दिमाग की सोचने की ताकत एक तरह से खत्म सी हो जाती है। ऐसे मौके पर कुछ सोचना तो दूर की बात है, प्रायः व्यक्ति अपने आस-पास की वस्तुओं और गतिविधियों को देख भी नहीं पाता है।

ऊपर मैंने जिस प्रयोग की बात की है, उसका उल्लेख डेनियल काह्नमैन ने अपनी किताब थिंकिंग फास्ट एंड स्लो के अध्याय तीन में किया है। इसमें लेखक का निष्कर्ष है कि जब मनुष्य गहन चिंतन में होता है, उस समय वह किसी प्रकार का शारीरिक काम या विविध प्रकार के फुटकर काम करने में असुविधा महसूस करता है। इसीलिए बड़े-बड़े दार्शनिकों और चिंतकों की व्यवहारिक समझ बहुत कम हो जाती है। रोजमर्रा की जिंदगी में उन्हें संभालने वाला यदि कोई शुभचिंतक नहीं हुआ तो उनका व्यक्तिगत जीवन बड़ा कष्टमय हो जाता है।

इधर कई दिनों से मुझे लग रहा है कि मेरा चिंतन पक्ष मुझ पर हावी हो रहा है। जीवन की हर छोटी-बड़ी चीज को बारीकी से देखने और उसका विश्लेषण करने की आदत मुझे ‘एक्शन’ के स्तर पर शिथिल बना रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे लिखे हुए शब्द आवश्यकता से अधिक तात्विक होते जा रहे हैं और उनकी ग्रामयुग अभियान की रोजमर्रा की चुनौतियों से निपटने में कोई भूमिका नहीं है। ऐसे में मन में बार-बार प्रश्न उठता है कि मैं ग्रामयुग डायरी क्यों लिख रहा हूं?

वास्तव में ग्रामयुग डायरी में मेरा लेखन एक निबंधकार का लेखन हो गया है। इस लेखन से मेरी व्यक्तिगत छवि को कुछ लाभ हो रहा होगा किंतु इससे ग्रामयुग अभियान को कोई फायदा होता नहीं दिख रहा। उल्टे इससे नुक्सान हो रहा है। अगर ग्रामयुग अभियान में रिपोर्ट करने लायक पर्याप्त सामग्री होती तो कुछ और बात होती, लेकिन अभी यहां ऐसा कुछ विशेष नहीं है जिसे मैं हर पखवाड़े रिपोर्ट कर सकूं। इसलिए मजबूरी में मैं किसी छोटी सी घटना का दार्शनिक विश्लेषण करके खानापूर्ति कर देता हूं। यह स्थिति किसी भी तरह से ठीक नहीं कही जा सकती।

आज ग्रामयुग अभियान जिस स्थिति में है, उसमें इसे एक निबंधकार से अधिक एक स्टाफ आफीसर की जरूरत है जो पर्दे के पीछे रहते हुए इस अभियान की सतत् समीक्षा करता रहे और उसे दिशा प्रदान करे। इस समय मुझे अतीत की किसी छोटी सी घटना की दार्शनिक व्याख्या करने की बजाए भविष्य की किसी बड़ी संभावना को साकार करने के लिए आवश्यक रणनीति बनाने और उस रणनीति को जमीन पर उतारने का काम करना चाहिए।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए अब मैं अपनी भूमिका बदल रहा हूं। आज से मैं अपने भीतर के निबंधकार को अनिश्चित काल के लिए छुट्टी पर भेज रहा हूं। भविष्य में जब भी परिस्थितियां अनुकूल होंगी, तब मेरे भीतर का निबंधकार पुनः प्रकट होगा और ग्रामयुग डायरी फिर से शुरू होगी, लेकिन अभी तो यह समय अपने भीतर के स्टाफ आफीसर को जगाने का है जिसके फोकस में चिंतन नहीं बल्कि एक्शन होता है। मैं चाहता हूं कि यह स्टाफ आफीसर जल्दी से जल्दी उन स्थितियों का निर्माण करे जहां ग्रामयुग अभियान एक निर्गुण ब्रह्म की बजाए एक सगुण देव प्रतिमा के रूप में हमारे सामने हो। जब तक ऐसा नहीं हो जाता, तब तक ग्रामयुग के मंच पर पर्दा खींचकर रखना ही बेहतर होगा।

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)

First Published on: June 13, 2023 9:11 AM
Exit mobile version