ग्रामयुग डायरी : ग्रामयुग अर्थात क्या ?


शहर का सीधा मतलब है उपभोग की अधिकता। वहीं गांव का मतलब है उपभोग की न्यूनता। यह न्यूनता जब संस्कृति और संयम से आए तो अच्छा और वही जब अभाव में आए तो खराब।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

जून का महीना मेरे लिए जनसंपर्क का महीना साबित हुआ। तिरहुतीपुर में ग्रामयुग कैम्पस के निर्माण हेतु संसाधन जुटाने की प्रक्रिया में भांति-भांति के अनुभव हुए। मनोविज्ञान की किताबों में मैंने जिस मानव मन को जानने की कोशिश की थी, उसे व्यवहारिक धरातल पर समझने का मौका मिला। इस सबके बीच लोगों ने मुझसे भांति-भांति के सवाल भी पूछे। इसमें से एक प्रमुख सवाल ग्रामयुग शब्द के अर्थ को लेकर था।

मोटे तौर पर मैं ग्रामयुग शब्द को रामराज्य, प्रकृति केन्द्रित विकास, व्यवस्था परिवर्तन और अक्षय विकास जैसे शब्दों का समानार्थी मानता हूं। लेकिन ग्रामयुग शब्द अपने आप में यह सब सहज रूप से संप्रेषित नहीं करता। इसलिए कई बार भ्रम की स्थिति भी पैदा होती है। कुछ लोगों ने मेरे सामने इस शब्द का वह अर्थ निकाला जिसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। इस समस्या का निदान मैं चर्चा और विमर्श में ढूंढता हूं। मुझे जब कभी मौका मिलता है, मैं इस शब्द पर चर्चा करना नहीं भूलता। आज की डायरी में मैं वही बातें रख रहा हूं जो प्रायः मैं लोगों से इस बारे में कहता रहता हूं।

मेरी दृष्टि में ग्रामयुग का आशय उस कालखंड से है जब अधिकांश आबादी गांवों में रहती हो। इस दृष्टि से देखें तो सभ्यता की शुरुआता से अब तक ग्रामयुग ही चल रहा है। वास्तव में ग्रामयुग एक सहज और स्वाभाविक स्थिति है। इतिहास में हर समय ग्रामयुग ही रहा है। भारत में कभी भी ऐसा युग अर्थात समय नहीं आया जब शहरी आबादी ग्रामीण आबादी से अधिक हो गई हो।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जो इतिहास में नहीं हुआ, वह भविष्य में भी नहीं होगा। 1990 के ‘आर्थिक उदारवाद’ के बाद भारत में शहरीकरम की प्रक्रिया बहुत तेज हो गई है। आज गांव के गांव उठकर बड़े शहरों में आ रहे हैं। जो गांव बड़े शहरों के नजदीक हैं, वे धीरे-धीरे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो जल्दी ही भारत की शहरी आबादी ग्रामीण आबादी से अधिक हो जाएगी। कुछ लोग इसे विकास मानकर खुश होंगे लेकिन क्या वाकई वह स्थिति खुश होने लायक होगी।

शहर का सीधा मतलब है उपभोग की अधिकता। वहीं गांव का मतलब है उपभोग की न्यूनता। यह न्यूनता जब संस्कृति और संयम से आए तो अच्छा और वही जब अभाव में आए तो खराब। ऐसे ही शहरों में बढ़ता उपभोग जब गांवों को अभावग्रस्त कर दे, पर्यावरण को नष्ट कर दे तो उस शहरीकरण को खराब कहेंगे जबकि यही उपभोग यदि चारो ओर वैभव को विस्तारित करने का माध्यम बन जाए और वह प्रकृति का संपोषण करे तो उसे निःसंदेह अच्छा मानना चाहिए। ऐसे शहरीकरण को हम ग्रामयुग को पोषक मानते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से आज का शहरीकरण ऐसा नहीं है।

ग्रामयुग अभियान का एजेंडा

ग्रामयुग अभियान शहर और गांवों के सह अस्तित्व की बात करता है। इसमें एक ऐसे युग की कल्पना है जहां गांव शहरों के पिछलग्गू नहीं बल्कि राष्ट्रीय चेतना के स्वतंत्र वाहक बनेंगे। उनके बीच शोषक-शोषित या छोटे-बड़े का नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक होने का रिश्ता बनेगा। हम बिल्कुल ऐसे गांवों की वापसी नहीं चाहते जो एक समय जातीय दुराग्रह, अभाव और पिछड़ेपन के प्रतीक बन गए थे। वास्तव में हम उस युग में प्रवेश करना चाहते हैं जहां गांव नवाचार और नई सोच के साथ शहरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत के सुंदर भविष्य की जमीन तैयार करेंगे।

गांव वाले शहर जाएं, इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसे हम कतई अच्छा नहीं मानते कि गांवों की पूरी प्रौढ़ आबादी आजीविका के अभाव में शहर जाने को मजबूर हो जाए। अगर हम संतुलित विकास चाहते हैं तो इस थोक विस्थापन को रोकना होगा। गांव वालों को गांव में ही या 10-15 किमी के दायरे मेें काम मिल जाए, ग्रामयुग अभियान के लिए यह प्राथमिकता का विषय है।

हम चाहते हैं कि गांवों का आर्थिक विकास हो और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं ग्रामीणों को भी वैसे ही मिलें जैसे शहरी लोगों को मिलती है। लेकिन यह गंवई जीवन शैली की कीमत पर न हो। अपने आस-पास के प्रति सजग रहना, एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आना, भोलापन, श्रम करने की आदत, बड़ों का सम्मान, रिति-रिवाजों के प्रति श्रद्धा, संघर्ष की प्रवृत्ति, सहअस्तित्व की भावना, समाज के काम में बढ़चढ़कर हिस्सा लेना, संयमित उपभोग और प्रकृति का उसकी तमाम विविधताओं के साथ संरक्षण आदि ऐसी कई विशेषताएं हैं जिन्हें गंवई जीवनशैली और संस्कृति का प्रतीक माना जाता है।

ये विशेषताएं गांवों में बची रहें, यह जरूरी है किंतु साथ ही यह भी जरूरी है कि इनका विस्तार शहरों में भी हो। ग्रामयुग अभियान का यही मुख्य एजेंडा है। हमारे लिए हार्डवेयर से ज्यादा जरूरी साफ्टवेयर है। असली ग्रामयुग तब आएगा जब गांवों की अच्छी आदतें गांव वालों के साथ-साथ शहरी लोगों की जिंदगी का भी हिस्सा बन जाएंगी।

कैसे आएगा ग्रामयुग

ग्रामयुग के सपने को साकार करना सरकारों या गिनी-चुनी संस्थाओं के बस का काम नहीं है। आज देश और समाज जिस स्थिति में है, उसमें इसकी पहल प्रबुद्ध समाज की ओर से होगी। यह प्रबुद्ध वर्ग गांवों में भी है और शहरों में भी है। हमारी कोशिश है कि दोनों के बीच सबसे पहले सार्थक संवाद की स्थिति उत्पन्न हो।

हम चाहते हैं कि भारत का प्रत्येक शहरी व्यक्ति गांवों को अपने भविष्य से जोड़कर देखे। यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि सभी शहरी गांवों में जाकर चैरिटी का काम करें। वास्तव में गांवों को चैरिटी से अधिक साझेदारी की जरूरत है। एक समय जो भूमिका एन.आर.आई. अर्थात आप्रवासी भारतीयों ने भारत के संदर्भ में निभाई थी, वही भूमिका शहरों में रह रहे आप्रवासी ग्रामीण भी निभा सकते हैं। सच कहें तो स्वार्थ और परमार्थ दोनों पहलुओं को ध्यान में रखते हुए ग्रामयुग का काम आगे बढ़ेगा।

आज भी देश के अधिकांश शहरी किसी न किसी गांव से जुड़े हैं। शहरों में उनका आगमन एक-दो पीढ़ी पहले ही हुआ है। लेकिन दुर्भाग्य से उनका गांवों से भावनात्मक और क्रियात्मक लगाव कम होता जा रहा है। ग्रामयुग अभियान इस स्थिति को पलटना चाहता है। हम एक ऐसी स्थिति का निर्माण करना चाहते हैं जहां हर एक शहरी को गांव से अपने रिश्ते को मजबूत करने का मौका मिले। ग्राम युग अभियान की सफलता के लिए जरूरी है कि लोग अपने-अपने पुश्तैनी गांवों में सक्रियता बढ़ाएं। जिनका अपना कोई पुश्तैनी गांव नहीं है, वे भी किसी न किसी गांव से भावनात्मक रूप से जुड़ कर काम कर सकते हैं।

माननीय गोविंदाचार्य जी ने तिरहुतीपुर को भावनात्मक रूप से अपनाकर इस मुहिम में जान डाल दी है। उनका अपना कोई पुश्तैनी गांव नहीं है। लेकिन आज वे भी गांव वाले बन चुके हैं। उनका तिरहुतीपुर के साथ रिश्ता काफी हद तक सांकेतिक है। लेकिन उस संकेत में ही भावी सृजन के बीज छिपे हैं।

 (विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान।)