ग्रामयुग डायरी: केशरिया बाना नहीं पहनूंगा…


गांव में रहते हुए स्वयं को होम कर दूं या बाहर जाकर और ताकत जुटाऊं, इस बारे में अंतिम निर्णय लेने के पहले मैंने इतिहास की एक और घटना पर मनन किया। यह घटना द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की है जब फ्रांस की सरकार ने हिटलर की सेनाओं के सामने घुटने टेक दिए थे।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

4 जून 2022 को जब मैं इस डायरी को अंतिम रूप दे रहा था, उस समय मेरे छोटे भाई राजकमल का गुड़गांव के पारस हास्पिटल में ब्रेन ट्यूमर का आपरेशन चल रहा था। उस समय मन थोड़ा विचलित था। लग रहा था जैसे भगवान मेरी कठिन परीक्षा ले रहे हैं। यह परीक्षा पिछले कई महीनों से चल रही है। नवंबर 2021 में जब मैं तिरहुतीपुर से दिल्ली आया तो योजना थी कि कुछ हफ्ते यहां रहकर वापस गांव चला जाऊंगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। कुछ न कुछ ऐसी अड़चनें आती रहीं जिन्होंने मुझे दिल्ली से निकलने नहीं दिया।

मेरे दो मुख्य साथी- कमल नयन और हर्ष वर्धन पहले ही अपने-अपने काम को लेकर तिरहुतीपुर से बाहर जा चुके थे। मिशन का काम वहीं गांव के कुछ कार्यकर्ताओं के भरोसे था। इसके चलते काम प्रभावित हो रहा था। जिस काम को हमने इतनी मेहनत से खड़ा किया था, वह धीरे-धीरे बिखर रहा था। मेरा मन कई बार कहता कि सब कुछ छोड़ वापस तिरहुतीपुर चला जाऊं और परिणाम की चिंता किए बिना वहां के काम में स्वयं को झोंक दूं। लेकिन फिर मेरा ध्यान अचानक मेवाड़ के इतिहास पर जाता और मैं खुद को रोक लेता। महाराणा प्रताप ने वहां जो किया था, मेरे लिए वह बहुत प्रासंगिक हो गया था और आज भी है।

मेवाड़ के सिरमौर चित्तौड़गढ़ को अपने इतिहास में साका की तीन घटनाओं को देखना पड़ा। साका उस परंपरा को कहते हैं जब वीरांगनाएं अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया करती थीं और राजपूत वीर केशरिया बाना पहन कर शत्रु से अंतिम सांस तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होते थे। पहला साका 1303 में दूसरा 1534 में और तीसरा साका 1568 में हुआ। दूसरा साका महाराणा प्रताप के जन्म से 6 वर्ष पहले हुआ था जबकि तीसरे साके के समय उनकी उम्र 28 वर्ष की थी और वे कुंभलगढ़ के किले में थे। 1572 में जब वे मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे तो संभवतः उन्होंने महसूस किया कि यदि एक और साका हुआ तो मेवाड़ हमेशा के लिए मिट जाएगा। उस समय शायद उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया होगा कि मेवाड़ अब केशरिया बाना नहीं पहनेगा।

उनके पहले राजपूत केवल दो विधा जानते थे- विजयी होना या उस प्रयास में वीरगति को प्राप्त करना। राणा प्रताप ने उन्हें तीसरी विधा सिखाई- लड़ते हुए पीछे हटना। हल्दी घाटी में राजपूत न तो विजयी हुए और न ही पराजित हुए। वे लड़ते हुए पीछे हट गए और अरावली की पहाड़ियों में भीलों की मदद से मोर्चा बना लिया। और फिर एक-दो दिन नहीं बल्कि दशकों तक संघर्ष चला। इतिहास गवाह है कि राणा प्रताप के नेतृत्व में राजपूतों ने अपने को किसी एक लड़ाई की जीत-हार में सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने स्वयं को वृहत्तर युद्ध के लिए तैयार किया। इसी नीति को बाद में उन्हीं के कुल के छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी अपनाया।

महाराणा प्रताप और शिवाजी महाराज हमें सिखा गए हैं कि जब स्थितियां अगम्य हों तो पीछे हट जाओ और फिर ताकत जुटाकर नए सिरे से प्रयास करो। उनका जीवन हमे पुकार-पुकार कर कहता है कि जीवन भर संघर्ष करो किंतु उसे अपने साथ खत्म मत होने दो, संघर्ष की विरासत को हमेशा अगली पीढ़ी को सौंप के जाओ। यह सीख जितनी तब प्रासंगिक थी, उतनी ही आज भी है। सच कहें तो मिशन तिरहुतीपुर और ग्रामयुग अभियान की बुनियाद इसी नीति पर टिकी है। हमें मालूम है कि हमारा लक्ष्य बड़ा है। हमें किसी व्यक्ति या संगठन से नहीं बल्कि इस व्यवस्था से जूझना है। हमारी जीत-हार किसी एक-दो सफलता-असफलता से तय नहीं होने वाली है। हमारा संघर्ष तो कई पीढ़ियों तक चलेगा। इसलिए जरूरी है कि हम एक ऐसे तंत्र का निर्माण करते चलें जो हमारे अनुभव और हमारी उपलब्धियों को अगली पीढ़ियों को सौंपने में सक्षम हो।

दिसंबर 2021 बीतते-बीतते मुझे समझ में आ गया कि अभी गांव में रहकर मिशन के काम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। संसाधन और साथियों के अभाव में मैं स्वयं को खर्च कर सकता था किंतु मेरी इस शहादत से कुछ स्थायी परिणाम नहीं निकलने वाला था। ऐसे में मैंने तय किया कि कुछ समय के लिए पीछे हट जाऊं और तिरहुतीपुर से दूर रहते हुए मिशन के लिए संसाधन और साथियों की तलाश करूं। मेरे इस निर्णय से गांव का काम तात्कालिक रूप से प्रभावित होने वाला था, किंतु दीर्घकालीन दृष्टि से यह मिशन के हित में था।

गांव में रहते हुए स्वयं को होम कर दूं या बाहर जाकर और ताकत जुटाऊं, इस बारे में अंतिम निर्णय लेने के पहले मैंने इतिहास की एक और घटना पर मनन किया। यह घटना द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की है जब फ्रांस की सरकार ने हिटलर की सेनाओं के सामने घुटने टेक दिए थे। फ्रांसीसी सेना के कई अधिकारी इस शर्मनाक हार से विचलित थे। उन्हीं में से एक था – चार्ल्स डी गॉल (Charles de Gaulle). उसके सामने दो विकल्प थेः पहला- फ्रांस में ही रहकर विद्रोह की तैयारी करना और दूसरा- फ्रांस से बाहर जाकर ब्रिटेन से मदद लेते हुए संघर्ष को आगे बढ़ाना। चार्ल्स का मन पहले विकल्प को अपनाने के लिए लालायित था लेकिन उसकी बुद्धि ब्रिटेन जाने के लिए कह रही थी। थोड़ी उहापोह के बाद 17 जून 1940 को वह भाककर लंदन चला गया। बाहर रहते हुए चार्ल्स डी गॉल ने मित्र देशों की मदद से फ्रांस की आजादी के लिए अथक प्रयास किए और अंततः 9 सितंबर 1944 को विजयी सेनाओं के साथ फ्रांस में फिर से प्रवेश किया।

जब अपनी ताकत बहुत कम हो, लक्ष्य बहुत बड़ा हो और सीधे प्रयास से बात न बन रही हो तो नीति कहती है कि सहयोगियों की तलाश करो और फिर साझी ताकत के सहारे आगे बढ़ो। इतिहास में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। चाणक्य और चंद्रगुप्त की यही तो कहानी है। विदेशी इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा साम्राज्य- मंगोल साम्राज्य यही बात कहता है। आज जिस संयुक्त राज्य अमेरिका की दुनिया भर में तूती बोलती है, वह बिना बाहरी मदद के कभी जन्म ही नहीं ले पाता। अधिकतर लोग अमरीकी क्रांति का नायक सेनापति वाशिंगटन को मानते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें बेंजामिन फ्रैंकलिन का भी उतना ही योगदान है जिसने 1776 में फ्रांस जाकर अपने साथियों के लिए मदद जुटाई।

संक्षेप में कहूं तो मुझे कम से कम सितंबर 2022 तक दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में घूमते हुए वही करना है जो राणा प्रताप ने अरावली के जंगलों में किया, चाणक्य ने तक्षशिला में किया, चार्ल्स डी गॉल ने ब्रिटेन में किया और बेंजामिन फ्रैंकलिन ने फ्रांस में किया। अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए दूसरी ताकतों से मदद मांगना और उसे हासिल करना आसान नहीं होता। इसका मुझे कोई पूर्व अनुभव भी नहीं रहा है। लेकिन पिछले 5-6 महीने से इस काम की बारीकियों को सीखने और उसे आजमाने की कोशिश कर रहा हूं। इस दिशा में अब तक बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव रहे हैं। आगामी डायरियों में उन्हें आप सबके साथ साझा करने का प्रयास करूंगा।

अपनी बात पूरी करने के पहले आप सबको बता दूं कि मेरे भाई का कल हुआ आपरेशन सफल रहा। वह अभी लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर है लेकिन डाक्टरों का कहना है कि खतरे की कोई बात नहीं है। मुझे विश्वास है कि आप लोगों की दुआओं से वह जल्दी ही स्वस्थ होकर अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूरा करेगा।

(विमल कुमार सिंह लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता है।)