अपने सपने को ठहरते हुए देखना आसान नहीं होता। गत चार दिसंबर को मैं कुछ समय के लिए तिरहुतीपुर की उस जमीन पर था जहां मैं ग्रामयुग का मुख्यालय बनाना चाहता हूं। उस स्थान को देखकर किसी को भी लगेगा कि पिछले दो वर्षों में हम जहां से चले थे, उससे आगे बढ़ने की बजाए और पीछे आ गए हैं। जहां कभी बच्चों की ढेर सारी गतिविधियां हुआ करती थीं, वहां बेतहासा झाड़-झंखाड़ उग आई है। जमीन के लगभग ढाई एकड़ उस हिस्से पर न तो खेती हो रही है और न ही कुछ और। जिस जगह को प्रेरणा का केन्द्र बनना था, वह अभी उदासी की चादर ओढ़े सो रही है।
इस उदासी की चादर को हटाने के लिए मुझे आर्थिक संसाधन चाहिए। लेकिन इसके लिए मेरे पास जो ज्ञात रास्ते हैं, उन सभी में मुझे खोट दिखाई देती है। मुझे साफ दीखता है कि ये सभी रास्ते अपूर्ण हैं। इन पर चलकर मैं एक पारंपरिक एनजीओ तो चला सकता हूं लेकिन उससे ग्रामयुग के सपने को साकार नहीं किया जा सकता। अपनी इस वैचारिक स्पष्टता से मुझे खुशी मिलती है लेकिन यह खुशी अधूरी है। मुझे जल्दी से जल्दी उस आदर्श रास्ते की तलाश करनी है जिस पर चलते हुए मैं निःसंकोच आर्थिक संसाधन जुटा सकूं।
मुझे अभी इतना मालूम है कि यह काम गांव में बैठकर नहीं होगा। इसके लिए मुझे छोटी-बड़ी सभी संभावनाओं को तलाशते और तराशते हुए यहां-वहां घूमना पड़ेगा। पिछले एक वर्ष से मैं यही कर रहा हूं। गत माह श्रीमती जी की अस्वस्थता के कारण कुछ दिन दिल्ली रहा। जब उनकी तबियत ठीक हो गई तब 25 नवंबर को मैंने फिर आगे की यात्रा शुरू कर दी। अगले तीन दिन में तीन शहरों- वाराणसी, प्रयागराज और लखनऊ होते हुए मैं 29 नवंबर को अपने गांव आ गया।
26 नवंबर को जब मैं वाराणसी में था तो वहां मेरी मुलाकाल चंद्रशेखर मिश्रा जी से हुई। पिछले दिनों मैंने ग्रामयुग अभियान के संचालन हेतु एक विशेषज्ञ मंडल बनाया था जिसमें चंद्रशेखर जी भी हैं। चंद्रशेखर जी की विशेषज्ञता कृषि क्षेत्र में है। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि वे एक बार तिरहुतीपुर में आकर हमारी जमीन देखें और हमें सुझाव दें कि आगे क्या और कैसे करना है। मेरे अनुरोध को स्वीकार करते हुए वे 4 दिसंबर को गांव आए। उन्होंने हमारी जमीन के साथ हमारे घर और गांव को भी अपनी पारखी नजर से देखा और समझा। मुझे पूरी उम्मीद है कि उनकी देखरेख में ग्रामयुग की जमीन पर शीघ्र ही कुछ नए प्रयोग शुरू होंगे।
प्रयोग की बात हुई है तो एक बार फिर से बता दूं कि ग्रामयुग अभियान में कुल 9 आयाम हैं जिसमें कृषि के साथ-साथ मीडिया, शिक्षा, ढांचागत निर्माण, संगठन, सामाजिक जुटान, व्यापार, गैर कृषि उत्पादन और सेवा जैसे विषय शामिल हैं। अभी तक मैं किसी भी आयाम में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया हूं लेकिन सभी आयामों में छोटे-छोटे प्रयोग लगातार हो रहे हैं। कुछ प्रयोग सगुण रूप में होते हैं लेकिन अधिकतर का स्वरूप निर्गुण ही रहता है। अर्थात् मैं उन्हें अपने अनुभव के सिम्युलेटर पर बैठकर करता रहता हूं।
ग्रामयुग अभियान के ये नौ आयाम मुझे नौ सैन्य टुकड़ियों की तरह दिखाई देते हैं। इन टुकड़ियों को मैं अनुभूत और काल्पनिक परिस्थितियों में रखकर उनकी ताकत और कमजोरी को लगातार आंकता रहता हूं। शुरुआता में मेरी व्यूह रचना में शिक्षा वाला आयाम सबसे आगे था। लेकिन दो साल के अनुभव ने मुझे सिखाया कि शिक्षा के आयाम को सबसे आगे रख कर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को जीतना मुश्किल है। इसलिए अब मैं मीडिया वाले आयाम को आगे रखकर एक नई व्यूह रचना पर काम कर रहा हूं। यहां मीडिया से मेरा तात्पर्य उन सभी पारंपरिक-अपारंपरिक उपकरणों से है जिनकी मदद से एक व्यवस्था अपने पक्ष में न केवल नैरेटिव गढ़ती है बल्कि उस पर अमल करने और करवाने के लिए तमाम मानव निर्मित संस्थाओं को अपना भागीदार भी बनाती है।
इस बार गांव की यात्रा में मैंने मीडिया के इस सर्वव्यापी स्वरूप का बहुत नजदीक से अध्ययन किया। अपने छोटे भाई मनीष की शादी जो 7 दिसंबर को तय थी, मेरे लिए कई मायनों में यादगार रहेगी। मैंने देखा कि मीडिया की मदद से कैसे बाजार की ताकतें सुदूर गांव में भी हर छोटे-बड़े पहलू को प्रभावित कर रही हैं। विवाह से जुड़ी जिन परंपराओं को समाज ने हजारों वर्ष में अपनी जरूरत के अनुसार गढ़ा था, उन्हें कुछ ही वर्षों में बाजार ने मीडिया की मदद से आमूलचूल बदल दिया है। मीडिया की मदद से बाजार ने जो नैरेटिव गढ़ा है उसमें विवाह जैसी तमाम सामाजिक परंपराएं अब समाज की बजाए बाजार के इशारों पर संचालित हो रही हैं।
मुझे लगता है कि इस समय मैं देवासुर संग्राम के आधुनिक स्वरूप को अपनी आंखों से देख रहा हूं। मेरी अपनी परिभाषा के अनुसार इस संग्राम में देवता का दर्जा उन्हें प्राप्त है जो मनुष्य की चार दैवी भावनाओं और उससे जुड़ी क्रियाओं (हर्ष – समाज से जुड़ना, विश्वास- दूसरे को स्वीकार करना, क्रोध- पराक्रम दिखाना, प्रत्याशा- अनजान को आगे बढ़कर खोजना) को मजबूत करने में तल्लीन हैं। इसी तरह असुर का विशेषण उसे दिया जा सकता है जो मनुष्य की चार आसुरी भावनाओं और संबंधित क्रियाओं (विषाद- समाज से कटना, घृणा- दूसरे को अस्वीकार करना, भय- दुबक कर छिपना, आश्चर्य-अनजान से छिटककर दूर होना) को और बढ़ाने का काम कर रहे हैं। (Ref-Plutchik wheel)
आज भावनाओं को आधार बनाकर जो देवासुर संग्राम चल रहा है, उसमें आसुरी ताकतें मीडिया रूपी रथ पर सवार हैं जबकि देव पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे तमाम लोग इससे वंचित दिखाई देते हैं। मीडिया के महत्व का उन्हें या तो अंदाजा नहीं है और अगर है तो वे इसका प्रभावी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे। इस हालात में देवपक्ष की जीत भला कैसे होगी। स्पष्ट है कि अगर देवपक्ष को यह वैचारिक युद्ध जीतना है तो उसे भी मीडिया के रथ पर पूरी तैयारी के साथ सवार होना होगा। राम-रावण युद्ध में अगर रावण रथ पर आएगा तो राम को भी रथ पर चढ़ना ही होगा, हमारे शास्त्र यही तो कहते हैं।
मैं जिस देवासुर संग्राम का उल्लेख कर रहा हूं, वह आज धरती के हर एक कोने में लड़ा जा रहा है। उसके अनगिनत मोर्चे हैं जिसमें से एक बहुत छोटा सा मोर्चा तिरहुतीपुर गांव में भी है। यह मेरा अपना मोर्चा है। अभी कुछ समय के लिए मैं यहां से पीछे हट गया हूं. लेकिन यहां लड़ते हुए मैंने कुछ अनमोल अनुभव हासिल किए हैं। उन अनुभवों को मैं देवपक्ष के अन्य सेनानियों को बताना चाहता हूं और साथ ही उनके अनुभव का भी लाभ उठाना चाहता हूं। पिछले कई महीनों से जो मैं यहां-वहां घूम रहा हूं, उसका एक पहलू यह भी है।
अगर मैं अपने मोर्चे पर लड़ने की बजाए यहां-वहां घूम रहा हूं तो उसका मुख्य कारण मेरी आर्थिक साधनहीनता है। प्रथम दृष्टया यह साधनहीनता मुझे कमजोर बनाती है, लेकिन सही से खेला जाए तो यही कमजोरी बहुत बड़ी ताकत बन जाती है। इतिहास गवाह है कि जब एक मनुष्य साधनहीन होने के बावजूद क्रियाशील और महत्वाकांक्षी होता है, उस समय उसकी रचनात्मकता अपने चरम पर होती है। इस रचनात्मकता को और धारदार बनाने के लिए कई बार सब कुछ भूलकर एक स्थान पर बैठना होता है तो कई बार इसके ठीक विपरीत यायावर बनकर घूमना पड़ता है।
अभी मैं इसी यायावरी के दौर में हूं। भाई की शादी के बाद एक दिन गांव में रुककर 9 दिसंबर को मैं दिल्ली के लिए रवाना हो गया। दिल्ली में बड़ी मुश्किल से चार दिन ही रह पाया कि अचानक कोल्हापुर के स्वामी अदृश्य काडसिद्धेश्वर जी के साथ 13 दिसंबर को लखनऊ जाने की योजना बन गई। वहां एक दिन रुककर 15 तारीख को मैंने फिर दिल्ली होते हुए कोल्हापुर की यात्रा शुरू की। पिछले दो महीनों में कोल्हापुर की यह मेरी तीसरी यात्रा थी। इन यात्राओं के पीछे की कहानी क्या है और मैं यहां क्यों आ रहा हूं, इस पर अगली डायरी में विस्तार से चर्चा करूंगा। तब तक के लिए नमस्कार।
(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)