अप्रैल में मैंने गोविन्दजी से एक वादा किया था। मैंने उनसे कहा था कि नवंबर से भारतीय पक्ष पत्रिका फिर से निकलेगी। शुरू में मेरी इच्छा थी कि हर महीने 16 पृष्ठों का पीडीएफ तैयार करके सबको भेज दिया करूंगा। लेकिन धीरे-धीरे यह इच्छा बड़ी होती गई। अब मैं चाहता हूं कि डिजिटल अवतार में यह पत्रिका पहले के प्रिंट संस्करण की तरह ही प्रासंगिक और यशस्वी हो।
इस विषय पर सोचते हुए मुझे अनायास ही गोविन्दाचार्य जी का वह किस्सा याद आया जो उन्होंने बहुत पहले सुनाया था। उन्होंने अखाड़े का रूपक इस्तेमाल करते हुए बताया था कि एक मनुष्य के जीवन में चार चरण आते हैं- शागिर्द, पहलवान, उस्ताद और खलीफा। एक व्यक्ति जब अखाडे़ में पहलवानी करने जाता है तब उसे सीधे कुश्ती नहीं सिखाई जाती। पहले वह शागिर्द बनता है। इस भूमिका में वह पहलवानों की मालिश करता है, अखाड़ा खोदता है और इस सबको करने के बाद यदि समय मिला तो थोड़ी बहुत अकेले-अकेले कसरत भी करता है।
एक शागिर्द के रूप में जब वह कुछ समय तक अपना काम लगन से करता है तब उसे पहलवानों के साथ कुश्ती लड़ने का मौका मिलता है। शुरू में पुराने पहलवान उसे आसानी से पटक देते हैं। लेकिन धीरे-धीरे वह सीखता है और पुराने पहलवानों को टक्कर देना शुरू करता है। बीच-बीच में उसकी जीत भी होने लगती है। धीरे-धीरे जीतने का यह क्रम तेज होने लगता है। उसे बहुत सारे दांव आ जाते हैं। लेकिन इस सबके बीच उसकी उम्र बढ़ जाती है। वह जल्दी थकने लगता है। यह समय होता है उसके उस्ताद बनने का। अगर वह उस्ताद नहीं बना तो नए-नए पहलवान उसे आकर पटक देंगे और उसकी प्रतिष्ठा मिट जाएगी।
एक पहलवान उस्ताद तभी बनता है जब उसे ढेर सारे दांव आते हों। अपने इस दांव-पेंच के द्वारा वह नए-नए पहलवानों को पटक देता है। उसकी ताकत कम हो चुकी होती है किंतु अपने दांव पेंच के बल पर वह कई पहलवानों का अकेले जोर करा देता है। सारे पहलवान उसकी इज्जत करते हैं क्योंकि वह उन्हें बहुत कुछ सिखा सकता है। वह पहलवानों को सिखाता भी है, लेकिन साथ ही ध्यान रखता है कि अखाड़े में वह कम से कम समय रहे। अब वह कुश्ती नहीं लड़ता। अब वह केवल थोड़े समय के लिए ही अखाड़े में उतरता है।
एक समय आता है जब बढ़ती उम्र के कारण उस्ताद के दांव बेअसर होने लगते हैं। इस समय होशियार उस्ताद खलीफा बनने की तैयारी करता है। पहलवान और उस्ताद के रूप में उसने जो ख्याति अर्जित की होती है, उसी के सहारे वह नए शागिर्द और पहलवान जुटाता है और फिर एक नया अखाड़ा शुरू करता है। खलीफा के रूप में वह न तो कुश्ती लड़ता है और न ही जोर कराता है। वह अपना काम अखाड़े के बाहर रहते हुए करता है।
अपने बारे में जब सोचता हूं तो लगता है कि मुझे शागिर्द, पहलवान, उस्ताद और खलीफा सभी भूमिकाएं निभाने के लिए तैयार रहना होगा। ग्रामयुग अभियान के 9 आयाम हैं। पिछले दो साल से मैं मीडिया छोड़ सभी अन्य 8 आयामों में शागिर्द बन कर सीख रहा हूं। मीडिया में मैं अपना दर्जा उस्ताद का मानता हूं। लेकिन अप्रैल में मेरा प्रमोशन हो गया। गोविन्दजी ने मेरी पहल पर मुहर लगाते हुए मुझे भारतीय पक्ष के अखाड़े का खलीफा बना दिया। मैं खलीफा तो बन गया लेकिन समस्या यह थी कि मेरे अखाड़े में एक भी शागिर्द नहीं था। मेरे पास कोई पहलवान और उस्ताद भी नहीं थे। यह स्थिति अप्रैल से लेकर आजतक जस की तस बनी हुई है।
भारतीय पक्ष के 16 पेज मैं अकेले भी निकाल सकता हूं। लेकिन यह ऐसा ही होगा जैसे खलीफा अपने अखाड़े में जाकर अकेले ही पहलवानी करे। शुरु में कुछ समय के लिए यह हो सकता है लेकिन हमेशा ऐसा ही चले तो यह ठीक नहीं। इस सबके बीच किया क्या जाए यह समझ में नहीं आ रहा था। जब मुझे कोई उपाय नहीं सूझा तो एक दिन मैंने सोचा कि क्यों न दूसरों के अखाड़े में जाकर कुछ समय के लिए पार्ट टाइम उस्तादी कर ली जाए। वहां नए-नए शागिर्द, पहलवान और उस्ताद सब मिलेंगे। उन्हें कुछ सिखाऊंगा और नया सीखूंगा भी। इसी के साथ भारतीय पक्ष के अखाड़े में अकेले जोर-आजमाइश भी करता रहूंगा। हो सकता है यह सब करते हुए एक ऐसी स्थिति आ जाए जब भारतीय पक्ष का अखाड़ा भी गुलजार हो जाए।
यह सब सोचकर मैंने मीडिया के क्षेत्र में अपनी प्रोफेशनल कन्सल्टैन्सी देने का फैसला किया। इस संदर्भ में मैंने अपना पहला प्रस्ताव अपने एक पुराने परिचित को दिया जिनके नेतृत्व में दिल्ली से डिजिटल मीडिया के सभी प्लेटफार्म्स पर काम होता है। मैंने उनसे कहा कि मैं जो भी करूंगा, वह तिरहुतीपुर से ही करूंगा और मेरी भूमिका मुख्यतः एक सलाहकार की रहेगी। उन्होंने मेरी सभी बात मान ली और मुझे 1 अगस्त से काम शुरू करने के लिए कह दिया।
कन्सल्टैन्सी का काम हाथ में लेने के पीछे एक और बात भी है। इधर दो-तीन महीने से हमने मिशन तिरहुतीपुर के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की मुहिम चला रखी थी। इसमें मेरे कई साथियों और शुभचिन्तकों ने आगे बढ़कर मदद की है। लेकिन अभी स्थिति ऐसी नहीं है कि हम मिशन के काम में हर महीने कुछ नियमित रूप से खर्च कर सकें। मुझे उम्मीद है कि कन्सल्टैन्सी का काम शुरू होने के बाद यह संभव हो जाएगा।
अभी मीडिया कन्सल्टैन्सी का काम बहुत ही सीमित रूप से करूंगा लेकिन जरूरत हुई तो इसे बढ़ा भी सकता हूं। वास्तव में पिछले कुछ वर्षों से मीडिया के क्षेत्र में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। एक समय में यहां पूंजी की बड़ी भूमिका होती थी, लेकिन अब वह तेजी से घट रही है। आज कम पूंजी में भी मीडिया में कई तरह के प्रयोग संभव हैं। जो लोग सामाजिक रूप से सक्रिय हैं या सक्रिय होना चाहते हैं, उनके लिए मीडिया नई संभावनाएं लेकर आया है। जो लोग बिजनेस करना चाहते हैं, उनके लिए भी मीडिया में शुभ लाभ की भरपूर संभावनाएं हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपने अनुभव से इन संभावनाओं को साकार करने में सुपात्र लोगों की मदद करूं।
मैंने देखा है कि प्रायः सामाजिक काम करने वाले मीडिया को लेकर बड़े उदासीन रहते हैं। उन्हें मीडिया के आधुनिक तरीकों में निवेश करना अपने साधनों का अपव्यय लगता है। लोग आयोजन के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर देते हैं लेकिन अपनी बात को पत्रिका, किताब, डाक्यूमेन्ट्री या डिजिटल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने में पर्याप्त रुचि नहीं दिखाते। मुझे जहां मौका मिलेगा, मैं ऐसे लोगों को बताऊंगा कि मीडिया के तमाम उपकरण उनके काम को आगे बढ़ाने में किस प्रकार उपयोगी साबित हो सकते हैं।
मुझे मालूम है कि कन्सल्टैन्सी का काम एक दुधारी तलवार के समान है। इससे मेरे पास आर्थिक संसाधन बढ़ेंगे लेकिन हो सकता है कि यह मेरा ध्यान मूल कार्य से भटका दे। इस खतरे को कम करने के लिए मैंने भारतीय पक्ष और कन्सल्टैन्सी के काम को मिशन तिरहुतीपुर के मीडिया वाले आयाम से जोड़ा है। इस संदर्भ में मैंने माइक्रो मीडिया का एक मॉडल भी तैयार किया है जिसे निकट भविष्य में ब्लाक के स्तर पर आजमाऊंगा। गोविन्दजी सत्ता और संसाधनों के जिस विकेन्द्रीकरण की बात करते हैं, उसे जमीन पर लागू करने में मुझे माइक्रो मीडिया की बड़ी भूमिका दीखती है। सच कहूं तो इसे मैं ग्रामयुग अभियान का हरावल दस्ता (सेना की अग्रिम पंक्ति) मानता हूं।
(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान।)