ग्रामयुग डायरी : मदद का मनोविज्ञान

रामरेखा की सफलता से प्रेरित होकर अब वे निरंजना (फल्गू) नदी को सदानीरा बनाने के काम में लगे हुए हैं। बता दें कि निरंजना (फल्गू) वही नदी है जिसके किनारे भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी।

एक बड़े मशहूर मनोविज्ञानी हुए हैं, Robert B Cialdini जिनकी किताब का नाम है- इन्फ्लुएन्सः साइन्स एंड प्रैक्टिस। इन्फ्लुएन्स अर्थात प्रभावित करने या मदद लेने के विज्ञान पर उनकी कई किताबें हैं। इस विधा के वे बड़े विशेषज्ञ माने जाते हैं। 2012 में अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने बराक ओबामा के सलाहकार की भूमिका निभाई थी। सिआल्दीनी के अनुसार आप एक व्यक्ति की बात मानेंगे या नहीं, इसका निर्धारण मुख्यतः सात बातों से होता हैः य़े हैं- आदान-प्रदान, निरंतरता, सामाजिक रुझान, पसंद, रूतबा, दुर्लभता तथा एकात्मता। अंग्रेजी में इसे कहेंगे- Reciprocity, Consistency, Social Proof, Liking, Authority, Scarcity and Unity.

सिआल्दीनी के सात सूत्रों में पहला सूत्र है- आदान-प्रदान। इसके अनुसार यदि आपको किसी से कुछ लेना हो तो पहले आप ही को उसे कुछ देना चाहिए। अगर एक व्यक्ति किसी से कुछ लेता है तो उसके मन में कुछ वापस देने का सहज भाव पैदा होता है। दुनिया की सभी सभ्यताओं में इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया गया है। स्वस्थ समाज की यह बुनियादी जरूरत है। देने का मतलब यह नहीं कि आप कुछ बड़ी और कीमती चीज ही दें। अगर आप किसी को एक साधारण किंतु सुरुचिपूर्ण चीज दे रहे हैं तो उसका भी बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वह आपकी मदद करेगा।

ग्रामयुग अभियान में मदद मांगने के पहले मैं किसकी और किस तरह मदद करूं, इस विषय पर सोचते हुए सबसे पहले मेरा ध्यान निरंजना (फल्गू) रीवर रीचार्ज मिशन की ओर गया। इसके संयोजक श्री संजय सज्जन मेरे पुराने मित्र हैं और मिशन तिरहुतीपुर के मेरे सहयोगी कमल नयन के पिताजी। नदियों से उनका पुराना नाता रहा है। औरंगाबाद (बिहार) की एक सूखी नदी- रामरेखा को उन्होंने जनता के सहयोग से (बिना सरकारी मदद लिए) सदानीरा बना दिया है। समाज के काम के लिए झोली फैलाकर भीख मांगने में भी वे संकोच नहीं करते। रामरेखा नदी के लिए उन्होंने इसी तरह लोगों से मांगकर दो करोड़ रुपए जुटाए थे।

रामरेखा की सफलता से प्रेरित होकर अब वे निरंजना (फल्गू) नदी को सदानीरा बनाने के काम में लगे हुए हैं। बता दें कि निरंजना (फल्गू) वही नदी है जिसके किनारे भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। बौद्धों के साथ हिंदुओं के लिए भी इस नदी का विशेष महत्व है क्योंकि पितरों की मुक्ति के लिए गया में इसी नदी के जल से तर्पण का विधान है। दुर्भाग्य से अब यह नदी पूरी तरह सूख चुकी है। संजय जी का कहना है कि इस नदी के तट पर स्थित गांवों में अनुकूल वातावरण तैयार करके इसे फिर से सदानीरा बनाया जा सकता है।

संजय सज्जन जितना ध्यान अपने संकल्प को जमीन पर उतारने में लगाते हैं, उतना ध्यान वे अपनी बात को कागज पर उतारने में नहीं लगा पाते। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रचार की विधा में वे कमजोर हैं। मैंने तय किया कि इस पक्ष को मजबूत करने में मैं उनकी मदद करूंगा। इसी संदर्भ में मैंने निरंजना रीवर रीचार्ज मिशन का प्रारंभिक साहित्य तैयार करने और उसकी एक रणनीति बनाने में अपना कुछ समय लगाया। इस सिलसिले में मैंने बोधगया और औरंगाबाद की यात्रा भी की।

सहयोग के लिए मैंने जिस दूसरी संस्था को चुना, उसका नाम है- वंदेमातरम फाउंडेशन। इसके प्रमुख संचालकों में से एक हैं श्री माधव रेड्डी। उन्हें मैं पिछले 16 वर्षों से जानता हूं। तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद से 70 किमी दूर कलवा कुर्ती नामक स्थान पर इस संस्था का एक प्रोजेक्ट चलता है जिसका नाम है अक्षर वनम्। यहां बच्चों की शिक्षा पर बड़े मौलिक प्रयोग चल रहे हैं। यहां न तो कोई क्लास रूम है और न ही नियमित शिक्षक। बच्चे ही एक दूसरे को सिखाने-पढ़ाने का काम करते हैं। कुल मिलाकर यहां तीन बातों पर जोर दिया जाता है- लैंग्वेज, लॉजिक और लाइफ स्किल। बच्चों को सही मायने में शिक्षित करने में अक्षर वनम् के इस ट्रिप्पल एल माडल की विशेष उपयोगिता है। मिशन तिरहुतीपुर में हमने इसका इस्तेमाल भी किया है।

अक्षर वनम् की शिक्षा पद्धति को केन्द्र सरकार के साथ-साथ तेलंगाना, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकारें भी अलग-अलग तरीके से अपनाने का प्रयास कर रही हैं। सरकारों के साथ-साथ कई संस्थाएं भी अक्षर वनम् की विशेषज्ञता का लाभ उठा रहीं हैं। इसके संचालक किसी भी इच्छुक व्यक्ति या संस्था के साथ अपना ज्ञान और अनुभव बांटने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

अपनी इस शुभेच्छा के बावजूद अभी वे बहुत लोगों तक नहीं पहुंच पाए हैं क्योंकि प्रचार के काम में वे भी कमजोर है। हिन्दी भाषा में अपनी कठिनाई के कारण उत्तर भारत उनके लिए विशेष रूप से अगम्य बना हुआ है। इस बात को समझते हुए मैंने उनकी दो तरह से मदद की। पहले मैंने उनके कुछ जरूरी दस्तावेजों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया और फिर उनके काम पर हिन्दी में एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई।

दिसंबर 2021 से लेकर फरवरी 2022 तक मैंने जिन लोगों के साथ सक्रिय हो कर काम किया उनमें से एक प्रमुख नाम प्रो. प्रदीप कुमार मिश्रा का भी है। प्रो. मिश्रा जब झारखंड युनिवर्सिटी आफ टेक्नोलाजी के उपकुलपति बने तब मेरा उनसे विशेष परिचय हुआ था। आई.आई.टी रुड़की, आई.आई.टी. मुंबई और बी.एच.यू. से पढ़ चुके तथा आई.आई.टी. बी.एच.यू में पढ़ा रहे प्रो. मिश्रा की ढेर सारी अकादमिक उपलब्धियां हैं लेकिन उनकी जिस विशेषता ने मुझे प्रभावित किया, वह है ग्रामीण उद्यमिता को लेकर उनका जुनून और समर्पण भाव।

जनवरी 2022 में जब डा. मिश्रा उत्तर प्रदेश की अब्दुल कलाम टेक्निकल युनिवर्सिटी (एकेटीयू) के उपकुलपति नियुक्त हुए तो मुझे बहुत खुशी हुई। मैं कई दिनों तक लखनऊ में उनके साथ रहा और उन पहलुओं पर चर्चा की जिससे एकेटीयू को उत्तर प्रदेश में ग्रामीण उद्यमिता का वाहक बनाया जा सके। इस दिशा में कुछ बातों को समझने-समझाने के लिए मैंने दूर-दराज के कई इंजीनियरिंग कालेजों की कई बार यात्रा भी की। दुर्भाग्यवश मेरी इस सक्रियता का कोई खास परिणाम नहीं निकला। सरकारी तंत्र की जटिलताओं के कारण जब बात आगे नहीं बढ़ पाई तो मैं थोड़ा पीछे हट गया। कुछ समय के लिए मन में निराशा हुई लेकिन जल्दी ही मैंने स्वयं को अन्य कार्यों में व्यस्त कर लिया।

दिसंबर 2021 से लेकर फरवरी 2022 के बीच मैंने कई और व्यक्तियों को अपने तरीके से मदद करने की कोशिश की। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, व्यवसायी और सरकारी विभागों में कार्यरत उच्च पदस्थ अधिकारी भी थे। मुझे अपने काम के बदले तुरंत कोई प्रतिफल मिलेगा, ऐसी उम्मीद नहीं थी, लेकिन मुझे यह विश्वास जरूर था कि भविष्य में इस पहल का कुछ न कुछ सकारात्मक परिणाम अवश्य निकलेगा।

कई बार ऐसा देखा गया है कि हमने जिसकी मदद की थी, उस व्यक्ति ने बदले में हमारी कोई मदद नहीं की। कई बार परिस्थिति ही ऐसी बन जाती है कि वह चाहकर भी हमारी मदद नहीं कर पाता। इससे हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं। वास्तव में हमारी सक्रियता और हमारे काम से अनायास ही कुछ ऐसे सुखद संयोग बनते हैं जिनका बहुत लाभ होता है। अंग्रेजी में इसके लिए एक शब्द इस्तेमाल होता है – Serendipity.मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

दिसंबर से फरवरी के बीच मेरी कई नए लोगों से मुलाकात हुई, नए दोस्त बने और ऩए-नए विचारों पर मंथन हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि दिल्ली में फंस जाने और गांव न जा पाने का मन में मलाल नहीं रहा। एक बार जब देखने का नजरिया बदला तो मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिल्ली का यह कुछ महीनों का अस्थायी प्रवास ग्रामयुग अभियान के लिए बहुत उपयोगी साबित हो सकता है।

(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान।)

First Published on: June 19, 2022 12:09 PM
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