
पिछली डायरी में मैंने एक परिसर अर्थात कैम्पस के निर्माण की बात की थी। बता दूं कि ग्रामयुग अभियान के लिए तिरहुतीपुर गांव में प्रस्तावित कैम्पस एक प्रयोगशाला की तरह होगा। यहां हम अपने विचारों को तराश कर इतना सक्षम बनाएंगे कि वह सहज ही पूरे देश में फैल जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति केन्द्रित विकास और व्यवस्था परिवर्तन जैसी अवधारणाओं का सगुण रूप गढ़ने में इस कैम्पस की विशेष भूमिका होगी।
राज्य उत्तर प्रदेश, जिला आजमगढ़, ब्लाक मार्टिनगंज और ग्राम तिरहुतीपुर में बनने वाला यह कैम्पस जिस भूखंड पर प्रस्तावित है, वह आकार में 168 मीटर लंबा और 43 मीटर चौड़ा है। 168 मीटर वाले हिस्से को छूते हुए एक सड़क गुजरती है। अभी इस जमीन पर एक छोटी सी मंडई बनी है। शेष हिस्सा खाली पड़ा है जहां गांव के बच्चे खेला करते हैं। अतीत में हमारे सभी कार्यक्रम इसी जमीन पर हुए थे। इस स्थान का डिजिटल ऐड्रेस है- 25.866743, 82.843573. इस पते के सहारे गूगल आपको हमारे कैम्पस की जमीन का सैटेलाइट व्यू दिखा सकता है।
हमारी इच्छा है कि इस वर्ष अक्टूबर से यहां निर्माण कार्य शुरू हो। प्रस्तावित कैम्पस में क्लासरूम्स, आवास, आर्गेनिक कृषि का मॉडल फार्म, उद्यमिता केन्द्र, वर्क स्टेशन, लाइब्रेरी, खेल का मैदान, जलाशय, स्वास्थ्य केन्द्र, विपणन केन्द्र, मीडिया सेंटर, सभाकक्ष, प्रयोगशाला और वर्कशाप जैसी कई सुविधाएं उपलब्ध होंगी। जरूरत के हिसाब से कैम्पस के लिए अतिरिक्त जमीन का भी प्रबंध किया जाएगा।
देश-विदेश में एक से एक विशाल और वैभवशाली कैम्पस बने हैं, लेकिन उनमें से कोई हमारे जैसा नहीं होगा। ऐसे तमाम बिंदु हैं जहां हम औरों से अलग होंगे, किंतु यहां संक्षेप में ऐसे 9 बिंदुओं का उल्लेख कर रहा हूं।
(1) जिओडेसिक डोमः
आज दुनिया में 99.9 प्रतिशत भवन चौकोर आकार के होते हैं। प्रायः हर जगह कमरे चौकोर ही मिलेंगे। लेकिन हमारे प्रस्तावित कैंपस में ऐसा नहीं होगा। यहां सभी निर्माण गोलाकार गुंबद के आकार के होंगे। उन्हें जिओडेसिक (geodesic) शैली में निर्मित किया जाएगा। वास्तुविद् इस शैली को डिजाइन की दृष्टि से सबसे मजबूत मानते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसका अविष्कार जर्मनी में हुआ था लेकिन 1954 में बी. फुलर नामक एक अमरीकी ने इस डिजाइन पर नए सिरे से काम किया और इसे अपने नाम से पेटेन्ट करा लिया। बहुत वर्षों तक इसकी डिजाइन गुप्त रखी गई लेकिन अब यह सबके लिए उपलब्ध है।
वर्ष 2020 में दिल्ली में एक प्रदर्शनी के लिए मुझे एक अस्थायी ढांचा बनाना था। उसके लिए शोध करते-करते मुझे इस डिजाइन के बारे में पता चला था। बाद में जब मैंने इस पर और सोचा तो मुझे लगा कि गांवों में इस डिजाइन के प्रयोग की व्यापक संभावना है। दुर्भाग्य से इस शैली के जानकार इंजीनियर और ठेकेदार बहुत दुर्लभ हैं। इसलिए पिछले दो वर्षों में मैंने स्वयं इस विधा को समझने-सीखने के लिए खूब अध्ययन किया है। मुझे विश्वास है कि इसका गंवई मॉडल हम शीघ्र ही तिरहुतीपुर में बना लेंगे।
(2) विशेष सामग्रीः
हम जिस ग्रामयुग की कल्पना करते हैं वह अतीत के गांवों की कार्बन कापी नहीं होगा। हमारा एक पांव यदि अतीत में है तो दूसरे से हम भविष्य को नापने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा कैंपस इसका जीता जागता उदाहरण होगा। यहां डिजाइन के साथ-साथ निर्माण सामग्री भी विशेष होगी।
अपना कैंपस बनाने में हम ईंट, लोहा और सीमेन्ट के पारंपरिक उपयोग से बचेंगे। इसकी जगह एयरक्रीट, स्टाइरोफोम, मिट्टी, गोबर, पुआल, चूना, जिप्सम, बांस, रेजिन और फाइबर ग्लास जैसी विविध गुण-धर्म वाली वस्तुओं को मिलाकर कई प्रकार की सस्ती किंतु मजबूत कम्पोजिट सामग्री का उपयोग किया जाएगा। इस तरह की सामग्री हमें रेडिमेड अवस्था में बाजार से नहीं मिलेगी, इसलिए उनका निर्माण भी हमें ही करना होगा।
(3) इंसुलेशन टेक्नोलाजीः
अतीत में भारत सहित दुनिया भर की सभ्यताओं में भवन को इस प्रकार बनाया जाता था कि वह गर्मी में ठंडा और ठंडी में गर्म रहे। हमारे गांवों में मिट्टी के घर यह काम बखूबी करते थे। दुर्भाग्य से ईंट, सीमेंट जैसी आधुनिक सामग्री आने के बाद पुरानी निर्माण शैली को त्याग दिया गया। अब भवन को ठंडा और गर्म करने के लिए बिजली से चलने वाले पंखे, कूलर, एसी और हीटर का प्रयोग किया जाता है।
हम अपने कैंपस में कुछ ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करने वाले हैं जिससे हमारी बिजली से चलने वाले एसी और हीटर पर निर्भरता बिल्कुल खत्म हो जाएगी या बहुत कम हो जाएगी। आजकल गांवों में चाहे गरीब हो अमीर, कोई इन्सुलेशन की बात ही नहीं करता लेकिन हमारा कैम्पस बनने के बाद दृश्य बदल जाएगा। हर कोई घर बनाते समय इन्सुलेशन की बात जरूर करेगा।
(4) सस्ता, सुंदर, सुविधाजनक और स्केलेबल मॉडलः
हम जिस निर्माण शैली की बात कर रहे हैं, वह आज प्रचलित निर्माण पद्धतियों की तुलना में सस्ती, सुंदर और सुविधाजनक होगी। अभी इसको बनाने वाले राजमिस्त्री और कारीगर नहीं हैं। लेकिन आने वाले समय में हम कुछ ग्रामीण युवाओं को विशेष प्रशिक्षण देकर तैयार करेंगे ताकि वे अन्य लोगों को भी ये सेवाएं दे सकें। हमारा मानना है कि जहां-जहां यह डिजाइन जाएगी, वहां-वहां हमारा ग्रामयुग का विचार भी जाएगा।
(5) विविध उपयोगः
अतीत में गांवों में मकान कुछ इस तरह बनाए जाते थे कि उसका कई तरीके से उपयोग हो सके। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि किस तरह हमारे गांव वाले घर के ओसार का बहुविध उपयोग होता था। आज की भाषा में कहें तो वह बेडरूम, ड्राइंग रूम, डाइनिंग रूम, बाल्कनी और जरूरत के समय स्टोर रूम का भी काम करता था। पुराने डिजाइन में इन सबके लिए अलग-अलग निर्माण नहीं होता था।
अपनी परंपरा से सीखते हुए हम भी अपने कैंपस में एक स्थान का कई तरह से उपयोग करेंगे। हमारा कैंपस कभी चौपाल होगा तो कभी स्थानीय हाट, कभी .यहां भजन-कीर्तन होगा तो कभी कृषि की प्रदर्शनी लगेगी। इसे आप समय-समय पर स्टेडियम, हास्पिटल, स्टूडियो, स्कूल, सिनेमा, बैंक्वेट हाल, गेस्ट हाउस और ऐसे ही कई विविध रूपों में देखेंगे। लेकिन इसका कोई भी एक रूप ऐसा नहीं होगा जो दूसरे रूपों की पहचान मिटा दे। यहां बाल-वृद्ध, महिला-पुरुष, अमीर-गरीब सबके लिए जगह होगी। सच कहें तो हमारा कैंपस एक ऐसी धुरी बनेगा जहां से स्थानीय समाज की हर-एक चीज संचालित होगी।
(6) न्यूनतम कार्बन फुटप्रिन्टः
आज दुनिया अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण पर्यावरण का संकट झेल रही है। दुर्भाग्य से इस समय अधिक समृद्धि का मतलब अधिक कार्बन उस्सर्जन हो गया है। दुनिया के 50 प्रतिशत सबसे गरीब लोग जितना कार्बन उत्सर्जन मिलकर करते हैं, उसका दोगुना उत्सर्जन 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोग करते हैं। ग्रामयुग का कैम्पस समृद्धि और पर्यावरण के बीच के इस अंतर्विरोध को बेहतर तकनीक और गंवई जीवनशैली के सहारे कम करने का प्रयास करेगा।
(7) माड्यूलर डिजाइनः
हमारा कैंपस छोटे-छोटे किंतु स्वतंत्र मॉड्यूल का समुच्चय होगा। इसकी डिजाइन कुछ इस तरह की जाएगी कि यहां कभी अधूरापन महसूस न हो। यदि हम मूल डिजाइन का 1 प्रतिशत भी बना ले गए तो किसी को कुछ भी अधूरा नहीं लगेगा। हमारे लिए ऐसा करना बहुत जरूरी है क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि हमारे पास पूरे कैंपस का निर्माण करने के लिए एक साथ पैसा नहीं आएगा। इसलिए हमने कम से कम में शुरुआत करने के तरीके ढूंढ रखे हैं।
(8) भारतीय परिवेशः
हमारा पूरा कैंपस भारतीय वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप होगा। प्रथम दृष्टि में यह प्रकृति की गोद मे बसे एक प्राचीन आश्रम, मठ, मंदिर या गुरुकुल जैसा दिखेगा। अंदर से भी इसकी डिजाइन भारतीय परंपरा से प्रभावित होगी। इसके लिए हम विशेष प्रकार के फर्नीचर भी बनाएंगे जो पूरे परिवेश को भारतीय या यूं कहें कि गंवई अनुभूति देंगे।
(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान)