ग्रामयुग डायरी: कोल्हापुर में क्या काम?


पंचमहाभूत लोकोत्सव का आयोजन जिस विशाल पैमाने पर हो रहा है, वह उल्लेखनीय है। 20 से 26 फरवरी के बीच इस आयोजन में एक अनुमान के अनुसार 30 लाख लोग आने वाले हैं।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

16 दिसंबर की रात या यूं कहें कि 17 दिसंबर की सुबह जब 1.50 बजे मैं कनेरी मठ पहुंचा तो शरीर वास्तव में थक चुका था। तेजस और गोआ एक्सप्रेस नामक दो ट्रेनों की मदद से लखनऊ कोल्हापुर की दूरी तय करने में मुझे कुल 43 घंटे लगे। सौभाग्य से ट्रेन में मेरे साथ कोल्हापुर कृषि विज्ञान केन्द्र के प्रमुख रवीन्द्र सिंह भी थे। उनसे अनौपचारिक बातचीत के दौरान मुझे खेती-किसानी के साथ-साथ सरकारी तंत्र के बारे में कई नई बातें पता चलीं।

कनेरी मठ मैं अतीत में कई बार आ चुका हूं किंतु इस बार की मेरी यात्रा पहले से अलग है। अगर सब कुछ योजनानुसार हुआ तो मैं यहां दो महीने से अधिक रहने वाला हूं। अपने जन्म स्थान आजमगढ़ और कर्मस्थान दिल्ली के बाद इतने लंबे समय तक मैं किसी एक स्थान पर नहीं रहा हूं। मठ में इतना समय बिताने का फैसला मैंने अचानक नहीं लिया है। इसकी पृष्ठभूमि पिछले कई महीनों से तैयार हो रही थी।

कोल्हापुर के इस लंबे प्रवास के पीछे एक आयोजन है जिसका नाम है पंचमहाभूत लोकोत्सव। श्रीक्षेत्र सिद्धगिरि मठ अर्थात कनेरी मठ के तत्वावधान में आयोजित हो रहा यह आयोजन कई मायनों में बहुत खास है। पंचमहाभूत जैसे गूढ़ विषय को उत्सव के माध्यम से लोक अर्थात आम आदमी तक ले जाने की यह सोच अनोखी है। आज पर्यावरण असंतुलन की जिस समस्या से दुनिया जूझ रही है, उससे निपटने का यह एक ठेठ भारतीय अंदाज है। गंभीर से गंभीर विषय को विविध उत्सवों के माध्यम से जनता तक पहुंचाना भारत की पुरानी परंपरा रही है।

पंचमहाभूत लोकोत्सव का आयोजन जिस विशाल पैमाने पर हो रहा है, वह उल्लेखनीय है। 20 से 26 फरवरी के बीच इस आयोजन में एक अनुमान के अनुसार 30 लाख लोग आने वाले हैं। इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 650 एकड़ है जहां प्रदर्शनी, सम्मेलन और कलात्मक प्रस्तुतियों के द्वारा जनता को पंचतत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से परिचित करवाया जाएगा। मजे की बात यह है कि ज्ञान देने के साथ-साथ सभी आगंतुकों के निःशुल्क भोजन की भी तैयारी की जा रही है और वह भी जन भागीदारी से। कुछ गांव वाले रोटी देंगे तो कोई चावल। कहीं से दाल आएगी तो कोई सब्जी देगा। 2015 में इस व्यवस्था को मैं अपनी आंखों से देख चुका हूं।

कनेरी के स्वामी जी से मेरा परिचय 2015 में तब हुआ था जब भारत विकास संगम का चौथा सम्मेलन उनके मठ में आयोजित किया गया था। उस सम्मेलन के आयोजन में मैंने जो भूमिक निभाई थी उसे याद करते हुए स्वामी जी ने मुझे इस आयोजन से भी जुड़ने के लिए कहा। संभवतः यह स्वामी जी के व्यक्तित्व का आकर्षण ही है जिसने मुझे दो महीना कनेरी आकर रहने के लिए विवश कर दिया। गांव, किसान और भारतीय संस्कृति के प्रति स्वामी जी का जो समर्पण है, वह अपने आप में अद्भुत और अद्वितीय है।

स्वामी जी की एक खासियत है कि वह सभी के लिए सहज उपलब्ध रहते हैं। जितनी आसानी से उनसे बड़े-बड़े राजनेता और उद्योगपति मिलते हैं, उतनी ही आसानी से वे एक साधारण मजदूर से भी मिलते हैं। सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो यह एक अच्छी बात है, लेकिन इससे एक समस्या पैदा होती है। इसके चलते कई बार मठ का औपचारिक काम-काज देख रहे लोगों को उनसे व्यक्तिगत संवाद करने का पर्याप्त मौका नहीं मिल पाता।

सत्रह दिसंबर को जब मैं स्वामी जी से मिला तो मैंने देखा कि मठ के कई महत्वपूर्ण कार्यकर्ता स्वामी जी से अपनी बात नहीं कह पा रहे थे। वे इंतजार कर रहे थे कि स्वामी जी का लोगों से मिलना खत्म हो तो वे अपनी बात रखें, लेकिन लोगों का न आना रुक रहा था और न ही उन्हें अपनी बात कहने का मौका मिल रहा था। इनमें से अधिकतर कार्यकर्ता पंचमहाभूत लोकोत्सव की तैयारी के बारे में ही बात करना चाहते थे। इस स्थिति को देखकर मैंने स्वामी जी को सुझाव दिया कि वे प्रतिदिन सुबह साढ़े आठ बजे केवल पंचमहाभूत लोकोत्सव की तैयारी के विषय में ही बात करें। मेरे सुझाव का सम्मान करते हुए स्वामी जी ने हां कर दी और अगले दिन अर्थात 18 दिसंबर से चुने हुए कार्यकर्ताओं की नियमित बैठक शुरू हो गई।

मठ के कार्यकर्ताओं की समस्या का तात्कालिक समाधान हो गया लेकिन मेरी अपनी कुछ समस्याएं थीं जिनका मुझे ही समाधान ढूंढना था। कनेरी मठ के सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से मेरा पुराना परिचय है। वे सभी मुझसे स्नेह करते हैं। लेकिन इसके बावजूद दो महीने यहां रहना आसान नहीं है। सबसे बड़ी समस्या भोजन की है। शरीर को पिछले पचास वर्षों से जिस भोजन की आदत हो गई है, वह भोजन यहां नहीं मिलता। दो दिन अर्थात 17 और 18 दिसंबर में ही शरीर ने संकेत दे दिया कि उसके साथ जबर्दस्ती की गई तो अंजाम बुरा होगा।

मैं जब किसी समस्या में फंसता हूं तो प्रायः इतिहास के किसी पात्र या घटना से सीखने की कोशिश करता हूं। इस बार शरीर की चेतावनी से निपटने के लिए मैंने जापानी योद्धा, कलाकार, लेखक और तपस्वी मियामातो मुस्सासी की सलाह ली। मुस्सासी के विचार दो किताबों में संग्रहित हैं- ‘द बुक आफ फाइव रिंग्स’ और ‘द पाथ आफ अलोननेस’। उसका कहना है कि एंद्रिय सुख की कामना एक व्यक्ति की लौकिक और पारलौकिक उन्नति में बहुत बड़ी बाधा है।

मुस्सासी की सलाह मानते हुए मैंने भोजन में स्वाद की लालसा छोड़ दी। इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए मैंने चावल, गेहूं और सभी प्रकार के मशालों से दो महीने दूर रहने का निर्णय लिया। सोचा है कि अगले दो महीने मोटे तौर पर दूध, चना और कुछ कच्ची या उबली सब्जी से काम चलाऊंगा। सौभाग्य से मठ में देशी गायों की एक सुंदर गोशाला है, इसलिए दूध की शुद्धता और उपलब्धता को लेकर यहां कोई संकट नहीं है।

मुस्सासी अपने जीवन में प्रायः अकेले ही रहा। मैं उसकी तरह यहां अकेला नहीं हूं। लेकिन हां यहां शहर का कोलाहल भी नहीं है। यहां मेरा निवास मठ के मुख्य शिवालय से पश्चिम चालीस-पचास मीटर दूर पहाड़ी की थोड़ी ढलान पर है। मैं जहां रहता हूं, वह स्थान प्रायः मठ में आने वाले भक्तों और साधकों को दिया जाता है। सच कहूं तो पूरा माहौल बहुत ही शांत और सौम्य है। उत्तर भारत में दशहरा के समय जितनी ठंडी होती है, उतनी ही ठंड यहां दिसंबर और जनवरी में होती है। कुल मिलाकर माहौल ऐसा है कि यहां कोई साधारण व्यक्ति भी साधना के लिए सहज तत्पर हो जाएगा।

मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति की साधना तब पूरी होती है जब उसके मन के सभी द्वंद्व और अंतर्विरोध समाप्त हो जाएं। इसके लिए अलग-अलग पंथों में भांति-भांति की पद्धतियां प्रचलित हैं। मैं भी ऐसी ही एक पद्धति का पालन करता हूं। इसी के साथ जब मौका मिलता है तब कुछ समय के लिए निकट ही स्थित शिव मंदिर में जाकर बैठता हं। कई बार तो लगता है कि यह पंचमहाभूत लोकोत्सव एक बहाना है। वास्तव में ईश्वर ने मुझे कुछ दिन अपने नजदीक रहने का एक मौका दिया है।

साधना केवल व्यक्ति की नहीं बल्कि संगठन की भी होती है। एक स्वस्थ शरीर में मष्तिष्क और उसके तमाम अंग-प्रत्यंग के बीच जिस प्रकार का तालमेल होता है, वैसा ही तालमेल जब संगठन के नेतृत्व और उसके कार्यकर्ताओं में हो जाए तो वह संगठन की साथना की पराकाष्ठा होती है। जैसे एक व्यक्ति की साधना के कुछ यम-नियम हैं, उसी प्रकार संगठन की साधना के भी कुछ यम-नियम होते हैं। एक साधक के लिए जो महत्व नामजप का है, सामाजिक संगठनों के मामले में वही महत्व आयोजनों, अभियानों और कार्यक्रमों का होता है। सिद्धगिरी मठ ने अपने 1500 वर्षों के इतिहास में व्यक्तिगत साधना की पराकाष्ठा देखी है। अब स्वामी अदृश्य काडसिद्धेश्वर जी इस मठ को संगठन की एक नई साधना हेतु आगे बढ़ा रहे हैं। पंचमहाभूत लोकोत्सव इसी दिशा में एक प्रमुख पड़ाव है।

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)