
जरा कल्पना कीजिए। आप घर पर बैठे हैं, पुलिस आकर आपको गिरफ्तार कर लेती है। आप पूछते हैं आपका कसूर क्या है। पुलिस आप पर एक से एक संगीन आरोप लगा देती है। आपको जेल में बंद कर दिया जाता है। आप हैरान हैं, परेशान हैं, कहते हैं कि ये सब झूठी, मनगढ़ंत कहानी है लेकिन सुनने वाला कौन है। आप जानना चाहते हैं कि आपके खिलाफ इतने संगीन आरोप लगाने का आखिर आधार क्या है। जवाब मिलता है – आप अपने आप को अदालत में निर्दोष साबित कीजिएगा।
आपको उम्मीद मिलती है। आप पूछते हैं कि अदालत के सामने सारा सच और सबूत कैसे पेश करूं। वह तभी हो पाएगा, जब अदालत में सुनवाई शुरू होगी। तो सुनवाई कब होगी? पता लगता है कि मुकद्दमा शुरू होने में भी अभी तो कई साल लग सकते हैं। आप पूछते हैं कि अगर मुकद्दमा शुरू भी नहीं हो रहा तो मुझे जेल में बंद क्यों कर रखा है?
जवाब मिलता है – यही कानून है। वैसे तो इस अपराध में जमानत नहीं होती, मगर जेल से छूटना है तो कोर्ट जाइए। फिर उम्मीद बंधती है। आप कोर्ट में अर्जी डालते हैं। महीनों बाद सुनवाई का नम्बर आता है। कई पेशियों के बाद सुनवाई पूरी हो जाती है। लेकिन महीनों तक फैसला नहीं आता। इस बीच जज साहब का ट्रांसफर हो जाता है। फिर कुछ महीने बाद नए जज साहबान, नए सिरे से सुनवाई। वहां भी फैसला नहीं आता। फिर एक और जज साहबान। तारीख पर तारीख।
ऐसे में कई साल गुजारने के बाद जेल में बैठे हुए आप क्या सोचेंगे? कानून, व्यवस्था, संविधान जैसे शब्दों को सुनकर आपके मन में क्या भाव आएंगे? न्यायाधीशों के सुंदर भाषण सुनकर आपको कैसा लगेगा? शायद वैसा ही जैसा आज गुलफिशां फातिमा को महसूस होता होगा, या खालिद सैफी को या फिर उमर खालिद को। क्योंकि यह कहानी काल्पनिक नहीं है। दिल्ली दंगों के बाद जेल में डाले गए अनेक आंदोलनकारियों की यही कहानी है।
एक तरफ न्यायाधीश संवैधानिक मूल्यों और मानवाधिकारों पर भाषण देते हैं। सुप्रीम कोर्ट हिदायत देता है कि जमानत की अर्जी पर जल्द से जल्द विचार किया जाए, किसी भी हालत में 2 हफ्ते के भीतर फैसला सुनाया जाए। दूसरी तरफ उसी कोर्ट की नाक के नीचे इन कार्यकत्र्ताओं को 2 हफ्ते या 2 महीने नहीं बल्कि 2 साल में भी जमानत की अर्जी पर कोई भी फैसला नहीं मिलता। उनका कसूर यही है कि वे मुसलमान हैं और उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से एक कानून का विरोध किया था।
गुलफिशां फातिमा का किस्सा भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में दर्ज किया जाएगा। दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी.ए. और गाजियाबाद से एम.बी.ए. करने के बाद गुलफिशां रेडियो जॉकी बनीं। सी.ए.ए. यानी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ अभियान से जुड़ीं और सीलमपुर में शाहीन बाग जैसे धरने में हिस्सा लिया। किसी तरह की हिंसा में न तो शामिल हुई, न ही सीधी हिंसा करने का आरोप है।
फिर भी दिल्ली दंगों के बाद सी.ए.ए. विरोधी तमाम कार्यकर्ताओं की धरपकड़ में गुलफिशां को भी 9 अप्रैल, 2020 को गिरफ्तार कर लिया गया। सीधे-सीधे कोई तोडफ़ोड़ या हिंसा का मामला तो बन नहीं सकता था, इसलिए उन पर दिल्ली दंगों का गुप्त और गहरा षड्यंत्र रचने का केस लगा दिया गया। जल्दी से जमानत न मिल सके, इसलिए यू.ए.पी.ए. की धाराएं लगा दी गईं।
अब शुरू हुआ कोर्ट-कचहरी का चक्कर। गिरफ्तारी के एक साल बाद गुलफिशां ने निचली अदालत में जमानत की अर्जी लगाई, कई महीने बाद मार्च 2022 में अर्जी खारिज हो गई। नकारात्मक ही सही, जज साहब ने फैसला तो सुना दिया। लेकिन हाई कोर्ट पहुंचने पर गुलफिशां को यह भी नसीब नहीं हुआ।
अपील मई 2022 में दायर हुई, सुनवाई का नंबर जनवरी 2023 में आया। एक महीने में सुनवाई पूरी हो गई लेकिन फैसला नहीं आया। इस बीच ठीक गुलफिशां की तरह गिरफ्तार हुए अन्य 3 कार्यकर्ताओं नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को इसी हाई कोर्ट से जमानत मिल गई। इस आधार पर मई 2023 में गुलफिशां ने एक और अर्जी लगाई। न रुका हुआ फैसला आया, न नई सुनवाई हुई।
संयोगवश अक्तूबर में जज साहब का ट्रांसफर हो गया, जाने से पहले उन्होंने फैसला नहीं सुनाया। अब फिर नए सिरे से नई बैंच के पास केस लगा। फिर तारीख पे तारीख। मार्च 2024 में जाकर सुनवाई का नंबर आया। सुनवाई एक ही दिन में पूरी हो गई, जैसा होना चाहिए था। लेकिन फिर फैसला नहीं आया। संयोग देखिए, जुलाई के महीने में इन जज साहब के भी ट्रांसफर के आदेश आ गए। अब एक और नई बैंच, फिर नए सिरे से सुनवाई। थक कर गुलफिशां सुप्रीम कोर्ट गईं। कुछ विचित्र संयोग है कि ऐसे सब मामले सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष जज के पास ही जाते हैं, जो एक विशेष तरह का फैसला देती हैं।
कोर्ट ने जमानत के फैसले में इतनी देर होने के बावजूद गुलफिशां को वापस उसी हाई कोर्ट में भेज दिया, जिसकी देरी से परेशान होकर वह सुप्रीम कोर्ट आई थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जल्द सुनवाई की हिदायत दी थी लेकिन नवंबर 2024 से दिल्ली हाई कोर्ट की तीसरी बैंच इस मामले की सुनवाई कर रही है। तारीख पर तारीख लग रही है। पांच साल गुजर गए हैं। मुकद्दमा शुरू होने या न्याय मिलने या जमानत मिलने की बात तो छोडि़ए, गुलफिशां को अब तक अच्छा या बुरा कोई फैसला भी नसीब नहीं हुआ है।आप यह न सोचिएगा कि यह भारतीय न्याय व्यवस्था की सामान्य त्रासदी है, कि जो सबके साथ हो रहा है, वह गुलफिशां के साथ भी हो रहा है।
बेशक मुकद्दमे का लटकना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जिस मामले में सरकार की विशेष दिलचस्पी हो, उसमें जमानत की अर्जी पर फैसला भी न होना एक अनहोनी घटना है। यह उस वक्त हो रहा है, जब अर्नब गोस्वामी को जमानत देने के लिए सुप्रीम कोर्ट शनिवार को खुलता है।
किसानों को रौंदने के आरोपी पूर्व मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे को जमानत मिल जाती है। बलात्कार के आरोपी को इस आधार पर जमानत मिलती है कि हो न हो लड़की की लापरवाही से ऐसा हुआ। बलात्कार और हत्या के सजायाफ्ता अपराधी राम रहीम को पैरोल पर पैरोल मिल रही है। लेकिन फातिमा गुलफिशां, खालिद सैनी, शरजील इमाम और उमर खालिद जेल में बंद रहने को अभिशप्त हैं। क्या यही न्याय है? आज न सही, कभी तो इतिहास भारत की न्याय व्यवस्था से यह सवाल पूछेगा और उस दिन न्याय की देवी का सिर शर्म से झुक जाएगा।
(योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक चिंतक हैं)