गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर: प्रेम और प्रकृति के अद्भुत कवि


रबीन्द्रनाथ टैगोर एक ऐसे वृक्ष थे जिस पर सभी प्रकार के मीठे फल लगे। साहित्य हो, संगीत हो, प्रकृति प्रेम हो, मानव सेवा, भेदभाव मुक्त शिक्षा या चित्रकला सभी कुछ एक ही इंसान मे फलित हुए। उस वृक्ष की छाया भी उतनी ही शीतल थी।



डॉ. शिवा श्रीवास्तव
“काबुलीवाला” शायद ही कोई होगा जिसने रबीन्द्रनाथ टैगोर की ये कहानी पढ़ी या सुनी न हो। तपन सिन्हा के निर्देशन मे बांग्ला मूल में 1957 में इस कहानी पर फिल्म भी बनी, फिर 1961 में हिन्दी में हेमेन गुप्ता ने इसे निर्देशित किया। 

दूरदर्शन द्वारा जब ये फिल्म टेलीविजन (शायद 1985-86) पर दिखाई गई तब इसे देखने का अवसर मिल। ये कहानी पढ़ते पढ़ते कई बार आंखें बरबस ही गीली हो जाया करती थी। एक पठान और एक पांच साल की बच्ची के बीच रिश्ते की कहानी, प्रेम से सींचे गए एक पौधे की तरह है। एक पिता का मन कैसे अपनी प्यारी बेटी को किसी और की बेटी मे ढूंढ़ता था। 

जाति, भाषा, संस्कृति, सामाजिक स्थिति का अंतर होते हुए भी उनका एक दूसरे के प्रति प्रेम अथाह गहरा था। और बरसों बाद जब शादी के दिन वो उसे देखता है तो उसे अपनी बेटी याद आती है, जिसके हाथों की छाप वो जेब में रखे घूमता था। 

बरसों बाद मेरे एक मित्र द्वारा भेंट की गई ‘रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियां’ पुस्तक में मुझे फिर ये कहानी पढ़ने को मिली। एक ही कहानी अलग अलग समय पर अलग ढंग से मन पर प्रभाव डालती है। ये पुस्तक बांग्ला से हिन्दी अनुवाद है। परिचय कराते हुए सोमनाथ मैत्र कहते हैं की “ वास्तव में उनकी (रबीन्द्र नाथ टैगोर) कहानियों के परिचय की आवश्यकता नहीं है, वे स्वयं अपने विषय में बहुत अच्छी तरह बता सकती हैं।

“अमार सोनार बांग्ला” (मेरा सोने का बंगाल या मेरा सोने जैसा बंगाल) और दो देशों के राष्ट्रगान का श्रेय भी पूरे विश्व में रवींद्रनाथ जी को ही है। आमार सोनार बांग्ला 1906 मे जब लिख रहे थे,  तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा की 66 साल बाद यह स्वतंत्र बांग्लादेश का राष्ट्र गान होगा। 

स्वतंत्र भारत के गणराज्य ने काफी सोच विचार कर “जन गण मन” को राष्ट्र गान के रूप में अपनाया। जार्ज पंचम और उनकी पत्नी के भारत आगमन पर उनके स्वागत के लिए दूसरा गीत गाया गया। अखबारों मे इसे भी रवींद्रनाथ का ही गीत बता कर जन गण मन का हिस्सा माना गया। जिसके कारण “अधिनायक” शब्द विवाद का विषय बना (जिसका अर्थ था सर्वशक्तिमान ऊपर वाला- भगवान या देव)। इस बात पर बिना कोई सफाई दिए उन्होंने प्रश्न उठाने वालों द्वारा इसे अपना अपमान बताया। 

गांधी ने ही उनको गुरु देव की उपाधि दी। शांतिनिकेतन में बिताए अल्प समय को भी गांधी ने अपनी आत्मकथा में चिन्हित किया है। 1913 में साहित्य के लिए मिलने वाला नोबेल पुरस्कार गीतांजली जैसी महान कृति के लिए दिया गया था। ये न सिर्फ भारत का बल्कि एशिया का पहला पुरस्कार था, जो गुरुदेव को मिला। गीतांजलि को कई भाषाओ मे अनुवादित किया गया। 

रबीन्द्रनाथ टैगोर एक ऐसे वृक्ष थे जिस पर सभी प्रकार के मीठे फल लगे। साहित्य हो, संगीत हो, प्रकृति प्रेम हो, मानव सेवा, भेदभाव मुक्त शिक्षा या चित्रकला सभी कुछ एक ही इंसान मे फलित हुए। उस वृक्ष की छाया भी उतनी ही शीतल थी। 

एक ऐसे स्कूल की कल्पना जो चारदीवारी के बंधन से मुक्त हो, प्रकृति के साए मे जहां विद्या अध्ययन हो। शिक्षक और छात्र के बीच सहजता हो। जो पुराने चले आ रहे पाठ्यक्रमों पर आधारित न हो। ऐसी कल्पना ले कर वे पत्नी के पास गए तो वे खूब हंसी। पर गुरुदेव ने निश्चित कर लिया था, वे प्रयोग करके रहेंगे। 

1901 मे टैगोर ने इस प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की। भारत और पश्चिमी परंपराओं के सर्वश्रेष्ठ को मिलाने का प्रयास किया। अपने सपने को पांच शिक्षकों के साथ इसे आरंभ किया। बहुत कठिनयां आई, पर दृढ़ निश्चय ने शांति निकेतन बनाया। 

प्रकृति के बीचों बीच अपनी रूचि के अनुसार विषयों को पढ़ना, उनमें नए प्रयोग करने की स्वतंत्रता होना, शांतिनिकेतन में ही संभव हुआ। बरसों की मेहनत ने विद्यालय  से 1921 में विश्व भारती विश्वविद्यालय का सफर तय किया। जो आज भी विश्व मे शोध का विषय है। 

अमर्त्य सेन, राम किंकर बैज,सत्यजित रॉय, बिनोद बिहारी मुखर्जी, सुचित्रा मित्र, सैयद मुज्तबा आलिम, केजी सुब्रमण्यम, शिवानी, महाश्वेता देवी, गायत्री देवी, इन्दिरा गांधी, ये विश्व प्रसिद्ध व्यक्तित्व शांति निकेतन की ही देन हैं। जो अपने अपने क्षेत्र मे आदर्श के रूप में जाने जाते  हैं। 

प्रेम और गुरुदेव का बहुत गहरा संबंध रहा। उनके जीवन मे प्रेम बहुत सहज था। जिसमें 63 साल के गुरुदेव और 30 साल की विक्टोरिया ऑकम्पो के बीच प्रेम सबसे चर्चित रहा। प्रेम को देखने के कई दृष्टिकोण हो सकते हैं। विक्टोरिया ऑकम्पो अर्जेंटीना मे रहती थी और स्पेनिश भाषा मे लेख लिखती थी। गुरुदेव की गीतांजलि उन्होंने पढ़ रखी थी। जब गुरुदेव से मिली तो उनसे सहज ही प्रेम कर बैठी। उनके लिए गुरदेव ने लिखा- “आमि चीनी गो चीनी, तोमार ए ओ गो बिदेशिनी, तूमी थाको सिंधु पारे, ओ गो बिदेशिनी।” (समुद्र पार रहने वाली ओ विदेशिनी, मैं तु्म्हें जानता हूं।) यही गीत बाद में सत्यजीत रॉय ने फिल्म ‘चारुलता’ मे रखा। 

‘बिजया’ नाम का काव्य संग्रह विक्टोरिया को समर्पित था। विक्टोरिया और गुरुदेव के प्रेम संबंधों पर ही अर्जेंटीना के फिल्मकार ‘ पाब्लो सीजर’ ने “थिंकिंग ऑफ हिम-रबीन्द्रनाथ टैगोर” नाम से फिल्म बनाई। प्लेटानिक लव दिखाती यह फिल्म शांति निकेतन मे शूट की गई। 7 अगस्त 1941 को यह ध्रुव तारा टूट गया। उनकी मृत्यु से दुखी लोग इस बारे मे कम ही चर्चा करते हैं।

(डॉ.शिवा श्रीवास्तव भोपाल में रहती हैं।)