क्या मार्क्सवाद, सचमुच फेल हो गया है ?

दुनिया के इस घटनाक्रम का बुर्जुआ शोषकवर्ग लगातार यह कहकर दुष्प्रचार करता रहा है कि मार्क्सवाद की प्रासंगिकता और उसका अस्तित्व दुनिया से हमेशा के लिए खत्म हो गया है।

सामंती-पूंजीवादी शोषण और दमन के कारण रूस और चीन के इलावा यूरोप के अनेकों देशों में अनेकों जनक्रांतियां सम्पन्न हुईं । लेकिन यह सच है कि पूंजीवादी षडयंत्रों और अपनी वैचारिक और प्रशासनिक अनुभवहीनता के कारण कालांतर में वे जनक्रांतियां ज़्यादा समय तक अपने अस्तित्व को बचा कर रख पाने में सफल नहीं हो सकीं। दुनिया के इस घटनाक्रम का बुर्जुआ शोषकवर्ग लगातार यह कहकर दुष्प्रचार करता रहा है कि मार्क्सवाद की प्रासंगिकता और उसका अस्तित्व दुनिया से हमेशा के लिए खत्म हो गया है।

दुर्भाग्य की बात यह है कि उनके सुर में सुर मिलाते हुए अधिकांश दलित बुद्धिजीवी भी निरंतर मार्क्सवादी दर्शन का निरंतर विरोध और निंदा करते रहे है और वे बिना किसी चिंतन-मनन, गहन अध्ययन और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित विश्लेषण के बग़ैर अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि मार्क्सवाद अप्रासंगिक होकर फेल हो गया है। अम्बेडकर, मार्क्स और साम्यवादी व्यवस्था के घोर विरोधी के रूप में प्रकट हुए थे। इसीलिए अम्बेडकर के अधिकांश अनुयाइयों के वैचारिक चिंतन-मनन की प्रक्रिया अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद से आगे की यात्रा करने में असमर्थ हो चुकी है । यह स्थिति उनके मानसिक और वैचारिक दिवालिएपन को ही प्रकट करती है ।

याद रहे, जो भी विचार दर्शन बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने विचारों का लगातार विकास नहीं करता वह लूला-लंगड़ा होकर देर-सवेर समाप्त होकर अपनी प्रासंगिकता को खो देता है । अम्बेडकर के अनुयायियों और अधिकांश दलित बुद्धिजीवियों के साथ यही दुर्घटना घटती हुई मालूम पड़ती है । अम्बेडकर का पूरा विचार दर्शन न तो वर्तमान की चिंता करता है और न ही दलितवर्ग के भविष्य की । इसीलिए अम्बेडकर अतीत में जाकर ढाई हजार वर्ष पुराने बौद्धधर्म को, जिसकी निरंतर तेज़ी के साथ बदलती परिस्थितियों में स्वयं की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है, मार्क्सवाद के विकल्प के तौर पर पेश करते हैं ।

चूंकि कथित दलित बुद्धिजीवियों का स्वयं का अपना कोई चिंतन-मनन नहीं होता, इसीलिए उनके सभी वक्तव्यों का मुख्य स्रोत अम्बेडकर की विचार सरणी ही होता है और अम्बेडकर की विचार सरणी का मुख्य आधार मार्क्सवाद का घोर विरोध और सामंती-पूंजीवादी व्यवस्थाओं के विचार दर्शन को कुछ मामूली से सुधारों और रियायतों के साथ उसकी सड़ीगली और मरणशील संस्कृतियों के समर्थन और सहयोग पर आधारित रहा है । इसीलिए कथित दलित बुद्धिजीवियों द्वारा निरंतर यह प्रचारित करने का प्रयास करते रहना कि मार्क्सवाद मर गया है और उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई है, स्वाभाविक ही है । लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह विचार करना अति आवश्यक है कि क्या वाक़ई मार्क्सवाद अप्रासंगिक होकर दुनिया से खत्म हो गया है ?

किसी भी सच्ची जनक्रांति के बाद शोषकों द्वारा प्रतिक्रांति का ख़तरा हमेशा ही बना रहता है क्योंकि प्रत्येक जनक्रांति के बाद नई सामाजिक व्यवस्था में पुराने शोषकों और उनके वैचारिक। और सांस्कृतिक अवशेषों का अस्तित्व क्रांति के बाद भी लंबे समय तक बना ही रहता है, वे पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होते और वे पुनः संगठित होकर निरंतर शोषितों द्वारा गठित नई समाजव्यवस्था को उखाड़कर पुनः वापसी की कोशिश करते रहते हैं । रूसी क्रांति के बाद ऐसा ही हुआ था । सर्वहारा क्रांति के भीतरी और बाहरी सामंती-पूंजीवादी शोषक शत्रु बेहद सक्रिय हो गए थे और उनका प्रतिरोध हज़ार गुना बढ़ गया था।

इसके अतिरिक्त आसपास के सभी पूंजीवादी और साम्राज्यवादी देशों ने एकजुट होकर रूसी क्रांति को नष्ट करने के लिए, रूस को चारो तरफ़ से घेरकर हमला कर दिया था । इसीलिए क्रांतिकारी शक्तियों को, क्रांति के बाद भी क्रांति के भीतरी शत्रुओं और क्रांति-विरोधी साम्राज्यवादी आक्रमणकारियों से दलित-शोषित श्रमिकवर्ग के नवगठित शासन को बचाना होता है । यह दलित शोषित श्रमिकवर्ग के लिए बहुत ही कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य होता है । याद करें, आज से 150 वर्ष पूर्व 18 मार्च, 1871 को पेरिस के मज़दूरवर्ग ने सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ते हुए पेरिस कम्यून की स्थापना की थी।

इस ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घटना से पूंजीवादी शोषकों की दुनिया में हड़कंप मच गया था। पूंजीपतिवर्ग के ख़िलाफ़ यह शोषित, वंचित और मेहनतकश वर्ग द्वारा सम्पन्न की गई पहली क्रांति थी जिसके कारण इतिहास में मज़दूरों ने अपनी सरकार क़ायम की थी । मार्क्स ने इस क्रांति को “नए समाज का शानदार अग्रदूत” बताया था और लेनिन ने उस जनक्रांति को “सोवियत सत्ता का बीज” कहा था ।

हालांकि मज़दूरों की यह सत्ता ज़्यादा दिन नहीं चली क्योंकि उस क्रांति के नेताओं के पास क्रांतियों को संभालने, नियंत्रित और संचालित करने का कोई परिपक्व सैद्धांतिक और ऐतिहासिक आधार और अनुभव नहीं था । इसीलिए इस जनक्रांति को नष्ट करने के लिए देश के पूंजीपतियों ने जर्मनी के साथ मिलकर उसपर हमला कर दिया और मज़दूरों द्वारा नवगठित कम्यून को खून में डुबो दिया । पूंजीपतिवर्ग का यह खूनी खेल सात दिनों तक निरंतर चलता रहा और दूसरी तरफ़ मज़दूरवर्ग भी अपनी सत्ता बचाने की जी-जान से कोशिश करते रहे ।

मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़, पूंजीपतियों के इस खूनी अभियान में कोई तीस हजार मज़दूर मारे गए । पैंतीस हज़ार मज़दूरों को जेलों में ठूस दिया गया और अमानवीय यातनाएं दी गईं । इस अभियान में लगभग एक लाख “सर्वश्रेष्ठ लोगों” को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था । इसी पेरिस कम्यून की असफ़लताओं से, भावी क्रांतियों के लिए मार्क्स ने अत्यंत महत्वपूर्ण सैद्धांतिक और व्यवहारिक सबक लेते हुए, बाद में क्रांति के बाद की स्थिति से निपटने के लिए “सर्वहारा की तानाशाही” जैसा मूल्यवान और अति महत्वपूर्ण सिद्धांत श्रमजीवीवर्ग को दिया जो बाद में रूसी क्रांति और उसके बाद अपने भीतरी और बाहरी वर्ग शत्रुओं से निपटने के लिए बेहद कारगर साबित हुआ । लेकिन कुछ अम्बेडकर और उनके अनुयाई अधिकांश दलित बुद्धिजीवी “सर्वहारा की तानाशाही” के इस अति महत्वपूर्ण सिद्धांत को हिंसक कहकर नाक-भौं सिकोड़ते रहे हैं ।

अम्बेडकर लाख यह दावा करते रहें कि उन्होंने कम्युनिज़्म पर अकेले ही इतने ग्रंथ पढ़े हैं जितने भारत के सारे कम्युनिष्टों ने मिलकर भी नहीं पढ़े होंगे लेकिन वास्तविकता यह है कि अम्बेडकर और उनके समस्त अनुयायी सभी मिलकर भी शोषणकारी हिंसा और क्रांतिकारी हिंसा के बीच के भेद तक को समझ पाने में पूर्णतः असमर्थ रहे । ऐसे ही, वर्ग, वर्गसंघर्ष, हिंसा, राज्य, राज्य का उन्मूलन, श्रम के शोषण, निजी संपत्ति संबंधी मार्क्सवादी सिद्धांतों तक को समझ पाने में अम्बेडकर और अम्बेडकरवादी असहाय दिखाई पड़ते हैं । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब भी कोई नया और समाज को बदलने वाला विचार और सिद्धांत प्रकट होता है तो समस्त सड़ेगले, मरणशील, पुरातन परंपरावादी विचार मिलकर नए विचारदर्शन का पुरज़ोर विरोध करना शुरू कर देते हैं और नए विचारदर्शन को ख़त्म करने के लिए एकताबद्ध हो जाते हैं क्योंकि प्रत्येक नया विचार और सिद्धांत पुराने विचार की मौत का पैग़ाम लेकर आता है।

अम्बेडकरवादियों को यह समझना चाहिए कि बुद्ध के समय में भी, बुद्ध के अग्रगण्य शिष्यों में 95 प्रतिशत मूलतः ब्राह्मणवादी ही रहे थे । बुद्ध की मौजूदगी तक तो वे चुप रहे क्योंकि बुद्ध से निपटना उनके वश में नहीं था । लेकिन बुद्ध के विदा होते ही, बुद्ध के इन्हीं ब्राह्मणवादी शिष्यों ने षडयंत्र करके बुद्धधर्म को भारत से उखाड़ फेंका और पुनः सड़ेगले मनुवादी धर्म को स्थापित करने का काम किया । उनका यह प्रयास सदियों तक निरंतर चला और आज तक चल रहा है । यही कारण है कि अपने इन्हीं निरन्तर प्रयासों के चलते वे आज सत्ता पर क़ाबिज़ हो चुके हैं । ऐसे ही,रूसी क्रांति के बाद, जिन-जिन देशों में जनक्रांतियाँ हुईं, वहां के परास्त शोषक पूंजीपतियों ने साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ षडयंत्र करते हुए वहां स्थापित मज़दूरों के नवगठित समाजवादी शासन को ख़त्म कर दिया। इसीलिए आज रूस, चीन और पूर्वी यूरोप के जिन देशों में समाजवादी शासन की स्थापना हुई थी, अब वहां पुनः पूंजीवादी व्यवस्थाओं की स्थापना हो चुकी है ।

इस स्थिति ने सर्वहारा की तानाशाही के मार्क्सवादी सिद्धांत की उपयोगिता और आवश्यकता को पुनः उजागर किया है । इसी कारण, दलित बुद्धिजीवी यह खटराग राग अलापते फिरते हैं कि मार्क्सवाद और उसकी प्रासंगिकता ख़त्म हो चुकी है । यह हास्यास्पद है । ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि किसी भी सफ़ल सामाजिक बदलाव या क्रांति के पीछे पीडितवर्ग के असंख्य त्याग, आंसू, कष्टपूर्ण संघर्ष, अनगिनत व्यथाओं और निराशाओं की एक लंबी श्रृंखला होती है । कोई भी सामाजिक बदलाव एकांगी नहीं होता बल्कि सापेक्ष होता है और यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का हिस्सा होता है । आज दलित-शोषित श्रमजीवीवर्ग को जो भी थोड़ी बहुत सुख-सुविधायें और रियायतें प्राप्त हैं, वह किसी एक नेता, व्यक्ति या किसी महापुरुष के प्रयासों का फल नहीं है और न ही यह सब सुविधाएं कानून के द्वारा या कथित पूंजीवादी लोकतांत्रिक संस्थाओं द्वारा मुफ़्त में पीडितवर्ग को दे दी गईं हैं । यह सभी उपलब्धियां पीड़ित वर्ग के लंबे और सामूहिक संघर्षों और त्यागपूर्ण प्रयासों का परिणाम है । इसीलिए किसी भी क्रांति को असफ़ल कह देना जड़बुद्धि होने का ही प्रमाण है ।

प्रत्येक असफलता को भविष्य में होने वाले सफ़ल सामाजिक बदलाब की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि किसी भी सफ़ल क्रांतिकारी बदलाव के पीछे असफलताओं की एक लंबी श्रृंखला मौजूद होती है जो मंदबुद्धि बुद्धिजीवियों को अक्सर दिखाई नहीं देती । यही कारण है कि वे मार्क्सवाद के फेल हो जाने के उल-जलूल किस्से-कहानियां गढ़कर शोषकवर्ग के इस प्रचार का हिस्सा बने रहते हैं कि अपनी प्रासंगिकता खोकर फेल हो गया है । याद रहे, भविष्य में भी यह सम्भव है कि पेरिस कम्यून और रूसी जनक्रांतियों की तरह भविष्य में होने वाली और भी जनक्रांतियां असफल हों, लेकिन तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में यह भी निश्चित है कि शोषण और दमन की व्यवस्थाओं के दिन अब लद चुके हैं ।

आगे आने वाला समय अब जनक्रांतियों और उनकी सफलताओं का युग होगा । याद करें, जब बारूद से ढके पेरिस में कम्यून को ध्वस्त करने के लिए लड़ाई चल रही थी तब मार्क्स ने कहा था, “यदि कम्यून को नष्ट भी कर दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित ही होगा । कम्यून के सिद्धांत शाश्वत और अनश्वर हैं; जब तक मज़दूर वर्ग मुक्त नहीं हो जाता, तब तक ये सिद्धांत बार-बार प्रकट होते रहेंगे ।” मार्क्स के इन शब्दों को याद रखना होगा ।

First Published on: November 8, 2021 1:07 PM
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