
दिल्ली सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन की कवरेज कर रहे पत्रकार अब पुलिस के निशाने पर है। स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया की गिरफ्तारी इसका उदाहरण है। मनदीप पुनिया की गिरफ्तारी के बाद सरकार निशाने पर है।
मनदीप पुनिया को सरकारी कामकाज में बाधा डालने के आरोप में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया है। लेकिन सवाल यही है कि क्या मौके से निष्पक्ष रिपोर्टिंग सरकारी कामकाज में बाधा है ?
दरअसल भारत में लगातार निष्पक्ष पत्रकारिता पर हमले के आरोप लग रहे है। भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता के भविष्य पर सवाल उठाया जा रहा है। 2019 में मिड डे मिल में स्कूली बच्चो को दिए जाने वाले खाने को लेकर की गई रिपोर्टिंग पर उतर प्रदेश के मिर्जापुर में पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज हो गया। हाल ही में कानपुर देहात में फेक न्यूज फैलाने के आरोप में तीन रिपोर्टरों पर मुकदमा दर्ज किया गया।
आज पत्रकारिता की स्वतंत्रता के खतरे पर लगातार बहस हो रही है। हालांकि स्वतंत्र पत्रकारिता का दमन सिर्फ भारत में हो रहा है, यह कहना गलत होगा। लेकिन पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिहाज से वैश्विक प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत जैसे मुल्क का काफी नीचे होना चिंता का विषय है। 2020 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की स्थिति काफी बदतर है। भारतीय प्रेस स्वतंत्रता के लिहाज से बहुत बुरी स्थिति में है।
प्रेस की स्वतंत्रता के लिहाज से भारत के पड़ोसी नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान जैसे देश बेहतर प्रदर्शन कर रहे है। दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र भारत 180 देशों की सूची में प्रेस की स्वतंत्रता के लिहाज से 142 वें पायदान पर है। जबकि सैन्य नियंत्रण वाला पाकिस्तान वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 145 वें पायदान पर है।
प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर भारत से बेहतर स्थिति नेपाल, अफगानिस्तान और श्रीलंका की है। नेपाल 112 वें पायदान पर है। अफगानिस्तान 122 वें पायदान पर है। जबकि श्रीलंका 127 वें पायदान पर है। ये हमारे प़ड़़ोसी मुल्क है जो प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहे है।
हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की दुहाई देते है। लेकिन ईमानदारी से दक्षिण एशियाई पत्रकारिता की तुलना करें तो हमारी स्थिति कई प़ड़़ोसी देशों से भी खराब है। भारत, पाकिस्तान औऱ बांग्लादेश में पत्रकारिता की स्वतंत्रता लगभग बराबर है। तीनों देशों में स्वतंत्र पत्रकारिता को चुनौती लगातार मिल रही है। भारत एक लोकतंत्र है। यहां पर स्वतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता स्थापित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई।
वैश्विक संगठनों की रैंकिंग में अगर भारतीय पत्रकारिता की स्वतंत्रता और पाकिस्तानी पत्रकारिता की स्वतंत्रता लगभग बराबर है तो किस आधार पर हम दावा करते है कि भारत दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र है ?
भारतीय मीडिया की तुलना पाकिस्तानी मीडिया से करते हुए यही कहा जाता है कि दोनों मुल्कों में मीडिया की स्थिति एक सामान है। जबकि भारत में लोकतंत्र है। पाकिस्तान में सैन्यतंत्र हावी है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में 2010 से 2019 के बीच 40 पत्रकारों की हत्या हुई है। कई राज्यों में स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता के दमन के लिए पत्रकारों पर मानहानि के मामले भी दर्ज कराए गए। दरअसल स्वतंत्र पत्रकारिता के दमन के लिए देश में एक गठजोड़ बना हुआ है।
सिर्फ केंद्र सरकार ही नहीं कई राज्य सरकारें पत्रकारों के दमन में आगे रही है। गैर भाजपाई मुखय्मंत्री भी पत्रकारिता के दमन में पीछे नहीं रहे है। इसमें केरल के वामपंथी विचारधारा वाले मुख्यमंत्री भी शामिल है।
सिर्फ भाजपा के राज में ही पत्रकारों का दमन हो रहा है यह कहना कतई गलत होगा। यह भी कहना गलत होगा कि सरकारी तंत्र के पहले शिकार मनदीप पुनिया है। पत्रकारों का दमन कांग्रेस के राज में भी होता रहा। समाजवादी और वामपंथी दलों के नियंत्रण वाले राज्यों में भी पत्रकारों का दमन होता रहा है। कांग्रेस के आपातकाल के राज में भी पत्रकारिता का जोरदार दमन किया गया था।
आज भी भाजपा प्रेस की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए अक्सर इमरजेंसी को याद करती है। लेकिन व्यवहार में भाजपा राज प्रेस की स्वतंत्रता के दमन में कांग्रेस से आगे निकलती हुई नजर आ रही है। कई बड़े पत्रकारों सरकार के निशाने पर आए। कुछ बड़े पत्रकार कारपोरेट घरानों के निशाने पर आए।
लेकिन सबसे बुरा हाल जिला स्तरीय और कस्बाई पत्रकारों का है। वे जिला स्तरीय सरकारी तंत्र के शिकार हो जाते है। सरकार और नौकरशाही को चुभने वाली खबर लिखी नहीं कि पत्रकार की नौकरी भी जा सकती है, पत्रकार पर मुकदमा भी हो सकता है।
आजादी के दौरान प्रेस की आजादी के लिए भी संघर्ष किया गया। पत्रकारिता की स्वतंत्रता की लड़ाई भी स्वतंत्रता सेनानियों ने लड़ी। महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी। गांधी और तिलक दोनों पत्रकार थे। दोनों ने अखबार भी निकाला। अखबारों में छपे लेखों के कारण महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेजी राज ने जेल भेजा।
ब्रिटिश सरकार को महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक के अखबार में लिखे गए लेखों में अक्सर विद्रोह नजर आता था। महात्मा गांधी ने हरिजन, यंग इंडिया जैसे अखबार निकाले। बाल गंगाधार तिलक ने मराठा और केसरी जैसे अखबार निकाले। अपने लिखे लेखों के कारण बाल गंगाधर तिलक दो बार जेल चले गए। जबकि महात्मा गांधी यंग इंडिया और हरिजन में लिखे गए लेखों के अंग्रेजी राज के निशाने पर आए।
वर्तमान सरकार वाकई में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लड़ी गई लंबी लड़ाई के महत्व को नहीं समझ पायी है। अगर प्रेस की स्वतंत्रता का थोड़ा भी लिहाज होता तो निर्भीक रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज नहीं होता। ब्रिटिश सरकार का रवैया भारतीय प्रेस के प्रति घोर दुर्भावना से ग्रस्त था।
1824 में राजा राम मोहन राय ने भारतीय प्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार के रवैये के प्रति नाराजगी दिखायी थी। राजाराम मोहन राय ने प्रेस पर अंकुश लगाने वाले कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को ज्ञापन भेजा।
उन्होंने ज्ञापन में कहा कि हर अच्छे शासक के लिए जनता को ऐसे साधन उपलब्ध करवाना जरूरी होता है, जिसके जरिए जनता की उन समस्याओं और सरोकारों की सूचना शासन को जल्दी से जल्दी मिल सके, जिनका हल तलाशने के लिए शासन के हस्तक्षेप की जरूरत है। इस महत्वपूर्ण उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रेस को अप्रतिबंधित स्वतंत्रता दी जानी जरूरी है।
1860 के बाद भारत में प्रेस की आजादी के लिए खूब संघर्ष हुआ। देश मे कई अखबारों की शुरूआत हुई। द हिंदू, द ट्रिब्यून, मराठा, केसरी, बंगाली और अमृत बाजार पत्रिका जैसे अखबारों की शुरुआत हुई। इन अखबारों ने प्रेस की आजादी का मतलब समझाया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूत किया।
यही अखबार थे जिन्होंने जनता की समस्या को उठाया। ये अखबार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और आम जनता के बीच संवाद का माध्यम थे। इससे घबरायी ब्रिटिश सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता को छीनने की कोशिश की।
भारतीय प्रेस के खिलाफ कई कानून पास किए। भारतीय प्रेस से नाराज लॉड डफरिन ने कहा था कि अंग्रेज शासन के खिलाफ सैकड़ों तेज-तर्रार बाबुओं का हमला अखबारों में बढ़ता जा रहा है। अंग्रेजों के खिलाफ रोज-ब-रोज रोष, निंदा और कटु आलोचना भरी बातें लिख रहे है।
डफरिन के अनुसार भारतीय प्रेस ने भारतीयों के दिमाग में भर दिया था कि अंग्रेज सामान्य रूप से पूरी मानव जाति के और विशेष कर भारत के दुश्मन हैं। क्या स्वतंत्र भारत में आज 21 वीं सदी मे भी सरकारों को कुछ इसी तरह का डर सता रहा है ?
भारतीय प्रेस से डरी हुई ब्रिटिश सरकार ने 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया। क्योंकि भारतीय प्रेस ने लॉर्ड लिटन के प्रशासन की निंदा कर दी थी। इससे ब्रिटिश सरकार घबरा गई थी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय भाषायी अखबारों पर अंकुश लगाने के लिए विधान परिषद में चंद मिनटों के बहस के बाद वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट विधेयक पारित कर दिया।
भारतीय प्रेस ने इसका जोरदार विरोध किया। दबाव में लॉर्ड रिपन ने वर्ष 1881 में इस दमनकारी कानून को वापस ले लिया। 1883 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने बंगाली अखबार में सरकार विरोध लेख लिखा था।
बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के लिए अराध्य है। दिल्ली की गद्दी पर बैठी भाजपा सरकार को कम से कम बाल गंगाधर तिलक की पत्रकारिता को याद करना चाहिए, जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता को आजादी के आंदोलन से जोड़ा। जुलाई 1897 में केसरी अखबार मे लिखे एक लेख के कारण बाल गंगाधर तिलक को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
तिलक की गलती मात्र इतनी थी उनके भाषण के वे अंश 15 जून 1897 के केसरी के अंक में छप गए थे, जिसमें उन्होंने शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या को वाजिब ठहराया था। ब्रिटिश सरकार ने अफजल खां की हत्या पर तिलक की टिप्पणी को भडकाऊ माना था। तिलक को 18 माह की सजा हुई। जून 1908 में तिलक को एक बार फिर एक लेख लिखे जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
ब्रिटिश सरकार ने 1922 में यंग इंडिया में छपे लेखों का गलत अर्थ निकालकर महात्मा गांधी के खिलाफ तहत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया। उन्हें छह साल कैद की सजा सुनायी गई। ब्रिटिश सरकार बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के लेखों को देशद्रोह की श्रेणी में रखती थी। क्योंकि इसमें प्रशासन के कुशासन के साथ-साथ जनता के दुखदर्द को दिखाया जाता था।
लेकिन 21 वीं सदी के भारत में जनता के दुखदर्द और मुद्दों की खबरें अखबारों और टीवी चैनलों से गायब है। इसका कारण मीडिया पर कारपोरेट और सरकार का भारी दबाव है। वैसे मीडिया की स्वतंत्रता के दमन में तमाम सरकारों की भूमिका एक जैसी रही है। मीडिया के दमन के मामले में क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या वामपंथी, क्या समाजवादी सभी के विचार एक जैसे है।
अगर शासन की गलितयों के खिलाफ खबर होगी तो सरकार किसी की भी हो, पत्रकारिता का दमन तय है। दरअसल 21 वीं सदी के भारत में विभिन्न गठजोड़ों ने भारत में पत्रकारिता पर संकट बढाया है। सरकारें अपनी गलतियों पर होने वाली खबरों को स्वीकार करने को राजी नहीं है। सरकारों को वैचारिक विरोध भी स्वीकार नहीं है। पत्रकारिता को लेकर सरकारों की सहनशीलता लगभग खत्म हो चुकी है।