रामदेव के दावे में कितना दम?


बालकृष्ण कह रहे हैं कि यह रैंडमाइज प्लेसिबो क्लिनिकल कन्ट्रोल ट्रायल था। रैंडमाइज प्लेसिबो का अर्थ हुआ कि उन्होंने ऐसे लोगों पर दवा का परीक्षण किया जो असल में संक्रमित थे ही नहीं। मेडिकल टर्म में प्लेसिबो ग्रुप का मतलब होता है जिन पर वास्तविक नहीं बल्कि काल्पनिक परीक्षण किया जाता है और उस परीक्षण का प्रभाव देखा जाता है। तो क्या इसी काल्पनिक परीक्षण को रामदेव ने वास्तविक परीक्षण मानकर दवा बनाने की घोषणा कर दी?



धरती के हर व्यक्ति में कोई न कोई कौशल है और हर वनस्पति में कोई न कोई औषधीय गुण। संसार की सभी चिकित्सा पद्धतियां इसी सिद्धांत पर काम करती हैं। वनस्पति में जो औषधीय गुण है अगर उसे पहचान लिया जाए तो बेकार सी दिखने वाली वनस्पति भी जीवन रक्षक बन जाती है। 

कोरोना संक्रमण फैला तो अलग-अलग चिकित्सा पद्धतियों ने अपनी अपना क्षमता के अनुसार उसका तोड़ खोजना शुरू कर दिया। लेकिन दवा बनाने का दावा किसी ने नहीं किया। दावा किया तो सिर्फ बाबा रामदेव ने। बाबा रामदेव ने गाजे-बाजे के साथ हरिद्वार में प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया कि उन्होने कोरोना की “दवा” खोज ली है। चिकित्सा जगत के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं होता अगर दावे के दो घण्टे के भीतर ही केन्द्र सरकार के आयुष मंत्रालय द्वारा इस “दवा” के प्रचार और प्रयोग पर रोक न लगा दिया जाता। आखिर रामदेव ने ऐसा क्या गलत कर दिया था कि जिस चुनौती से सारा संसार लड़ रहा है उसकी दवा खोज लेने के बाद भी उस पर सरकारी रोक लग गयी? 

असल में किसी बीमारी की निश्चित दवा खोज लेने का एक मानक होता है। खासकर एलोपैथी में दवा बनाना एक लंबी प्रक्रिया होती है। लेकिन परंपरागत चिकित्सा शास्त्र में ऐसा नहीं होता क्योंकि इन चिकित्सा पद्धतियों में जो दवाइयां हैं वो परंपरागत शास्त्रों में बताये गये फार्मूले पर बनायी जाती हैं। इसलिए न तो सरकार उसमें दखल देती है न ही सवाल खड़ा करती है। लेकिन रामदेव का दावा बिल्कुल अलग था। उन्होंने दावा किया कि आयुर्वेद में उन्होंने कोरोना संक्रमण की सौ प्रतिशत परिणाम देनेवाली दवा बना ली है। क्योंकि कोरोना वॉयरस का कोविड-19 बिल्कुल नया वॉयरस है और पूरी दुनिया में इसका तोड़ खोजा जा रहा है, ऐसे में यह दावा ही चौंकानेवाला है। 

तत्काल केन्द्र सरकार ने उनकी इस दवा कोरोनिल के प्रचार और बिक्री पर रोक लगा दी। आयुष मंत्रालय ने रामदेव की आयुर्वेदिक कंपनी दिव्य फार्मेसी से सारे प्रमाण मांगे जिसकी जांच की जा सके क्योंकि रामदेव ने इतना बड़ा दावा करने में न तो किसी सरकारी संस्थान को अपना भागीदार बनाया था और न ही सरकार से उचित परमीशन मांगी थी। उत्तराखंड सरकार से रामदेव की दवा कंपनी ने जो अनुमति मांगी थी वह इम्युनिटी बूस्टर और कफ कोल्ड के दवा के परीक्षण की मांगी थी। 

यानी पहले ही कदम पर रामदेव ने धोखाधड़ी किया। फिर जिस निजी मेडिकल संस्थान निम्स के साथ मिलकर उन्होंने कोरोना संक्रमितों पर दवा परीक्षण का दावा किया वह निम्स, जयपुर भी विश्वसनीय आंकड़े नहीं दे पा रहा है कि परीक्षण हुआ तो किस पर हुआ? विवाद बढ़ने पर तो निम्स के चेयरमैन बीएस तोमर ने किसी भी प्रकार के क्लिनिकल ट्रायल से ही इंकार कर दिया। 25 जून को उन्होंने मीडिया को बताया कि अपने अस्पताल में उन्होंने गिलोय, तुलसी और अश्वगंधा को इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में दिया था, इसे बाबा रामदेव ने कोरोना की शत प्रतिशत दवा कैसे बता दिया ये वो ही जाने। हालांकि तोमर ने ये दावा विवाद बढ़ने के बाद किया वरना हरिद्वार में बाबा रामदेव जब कोरोना की ‘दवा’ लांच कर रहे थे तो मंच पर बीएस तोमर स्वयं मौजूद थे। 

विवाद बढ़ने और विभिन्न सरकारों द्वारा कड़े तेवर अपनाने के बाद रामदेव की कंपनी की तरफ से बालकृष्ण भी गोलमोल जवाब दे रहे हैं कि यह रैंडमाइज प्लेसिबो क्लिनिकल कन्ट्रोल ट्रायल था। मेडिकल टर्म में यह ट्रा़यल ही रहस्यमय बन जाता है। रैंडमाइज प्लेसिबो का अर्थ हुआ कि उन्होंने ऐसे लोगों पर दवा का परीक्षण किया जो असल में संक्रमित थे ही नहीं। मेडिकल टर्म में प्लेसिबो ग्रुप का मतलब होता है जिन पर वास्तविक नहीं बल्कि काल्पनिक परीक्षण किया जाता है और उस परीक्षण का प्रभाव देखा जाता है। तो क्या इसी काल्पनिक परीक्षण को रामदेव ने वास्तविक परीक्षण मानकर दवा बनाने की घोषणा कर दी? 

और यह सब काम सिर्फ एक महीने में ही पूरा कर लिया गया। मात्र एक महीने में ही औषधियों की पहचान, उन औषधियों के समुचित मिश्रण से दवा को तैयार करना और उस दवा का परीक्षण करके परिणाम भी प्राप्त कर लेना, शंका पैदा करता है। क्या रामदेव ने सचमुच चमत्कार कर लिया था या फिर सरेआम उन्होने लोगों और सरकार की आंख में धूल झोंकने की कोशिश किया था जिसे समय रहते पहचान लिया गया?

असल में रामदेव ने सरकारी सिस्टम की कमजोरी का ही लाभ उठा लिया। आज भी आयुर्वेद में दवाओं का कोई मानकीकरण नहीं है। एलोपैथी की तरह यहां दवाओं के परीक्षण और उत्पादन की कोई सरकारी गाइडलाइन है ही नहीं। सरकार की इस कमजोरी का रामदेव ने फायदा उठाने की कोशिश किया लेकिन समय रहते सरकार के हस्तक्षेप के ही कारण वो ऐसा करने से चूक गये। अब सरकार उनके दावों की जांच करके पता लगायेगी कि क्या कोरोनिल से सचमुच कोरोना निल हो जाता है या रामदेव का दावा निल बट्टे सन्नाटा है।