
उज्जैन एक शांतिप्रिय शहर है। हिन्दुओं की धार्मिक आस्था महाकाल की नगरी कहे जाने वाले उज्जैन में आमतौर पर हिंसक प्रदर्शन आदि की खबरें नहीं आती लेकिन 2015 में एक दिन अचानक से हजारों मुस्लिम मस्जिद के आसपास इकट्ठा हो जाते हैं और कमलेश तिवारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरु कर देते हैं। लखनऊ के कमलेश तिवारी पर आरोप था कि उन्होंने मोहम्मद की निंदा किया था जो इस्लाम में अक्षम्य अपराध समझा जाता है।
उत्तर प्रदेश की इस घटना का मध्य प्रदेश में ऐसी प्रतिक्रिया हैरान करनेवाली थी। तत्काल प्रशासन सक्रिय हुआ और जांच शुरु हुई कि इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गयी और प्रशासन को भनक तक कैसे नहीं लगी? जांच में पता चला कि इस भीड़ को जुटाने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्म वाट्सएप्प का इस्तेमाल किया गया था और गुपचुप तरीके से लोग इकट्ठा हो गये और शहर में उत्पात भी मचाया।
सोशल मीडिया के उभार के साथ इस बात का खतरा भी बढा है कि गलत नीयत रखनेवाले लोग भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। लंदन के दंगों में ये बात उभरकर पहले ही सामने आ चुकी थी। इसी साल दिल्ली के नागरिकता विरोधी दंगों की बात हो या फिर बंगलौर में एक घण्टे के भीतर सड़क पर उतरी उपद्रवकारी भीड़ हो, निश्चित रूप से इन सबमें सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जाता है। गुप्त रूप से सही गलत सूचनाएं प्रसारित की जाती हैं और समाज के माहौल को खराब करने की कोशिश की जाती है। ऐसे में क्या सिर्फ एक समूह पर सवाल उठाकर सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल की बात कही जा सकती है?
बिल्कुल नहीं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल सही लोग अपने हिसाब से कर रहे हैं औल गलत लोग अपने हिसाब से। तकनीकि सही गलत नहीं पहचानती। तकनीकि सिर्फ आपको प्लेटफार्म मुहैया करवाती है, आप जैसे चाहें वैसे उसका इस्तेमाल करें। लेकिन राहुल गांधी ने वालस्ट्रीट जर्नल में छपी एक रिपोर्ट को ट्वीट करके सोशल मीडिया का एक समूह विशेष द्वारा ही गलत इस्तेमाल करने का जो आरोप लगाया है वह वास्तविक नहीं बल्कि राजनीति से प्रेरित मुद्दा अधिक लगता है।
वाल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट भी जिस तरह से लिखी गयी है उससे लगता है वो लोग भी जानबूझकर एक वर्ग विशेष हिन्दुओं को ही अपना निशाना बना रहे हैं। ये बात सही है कि नरेन्द्र मोदी ने 2012 से ही सोशल मीडिया का इस्तेमाल शुरु कल दिया था और कथित तौर पर उनका मीडिया मैनेजमेन्ट देख रही अमेरिकी पीआर कंपनी ने फेसबुक के जरिए ही मोदी को लोगों तक पहुंचाया।
उस दौर में मोदी पर नेशनल मीडिया का अघोषित बैन था और मोदी से जुड़ी खबरें आमतौर पर टीवी पर नहीं दिखायी जाती थी। 2002 के दंगों के बाद देश के सबसे बड़े चैनल आज तक ने तो एक दौर में मोदी के खिलाफ लंबे समय तक मुहिम भी चलायी थी। इसलिए मोदी के लिए जरूरी था कि वो वैकल्पिक रास्तों से लोगों तक पहुंचे। ऐसे में फेसबुक बहुत बड़ा माध्यम बना।
तो क्या फेसबुक का दोष सिर्फ ये है कि उसने मोदी के कैम्पेन को होने दिया? नहीं। ये उसका दोष नहीं हो सकता। सोशल मीडिया प्लेटफार्म वैसे नहीं होते हैं जैसे परंपरागत मीडिया प्लेटफार्म होते हैं। सोशल मीडिया पर कोई भी पैसा खर्च करके अपने आपको प्रचारित कर सकता है। फेसबुक हो या ट्विटर ये दोनों ही माध्यम पैसा लेकर आपकी सामग्री को प्रचारित करते हैं और ये उनकी घोषित नीति है। कोई इस पर सवाल कैसे उठा सकता है?
अगर कांग्रेस पार्टी चाहे तो वो भी पैसा खर्च करके सोशल मीडिया और न्यू मीडिया प्लेटफार्म पर अपना प्रचार कर सकती है। और प्रचार करती भी है। आज कांग्रेस का अपना सोशल मीडिया विंग है जिसमें लोग काम करते हैं। चुनाव के वक्त कांग्रेस भी अब उसी तरफ इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल करती हा जैसे भाजपा करती है। अगर सोशल मीडिया पर मौजूद लोग कांग्रेस की बजाय भाजपा को ज्यादा समर्थन करते हैं तो क्या फेसबुक या ट्विटर की गलती है?
जहां तक आरोप प्रत्यारोप का सवाल है तो राष्ट्रवादी समूह भी आयेदिन आरोप लगाते रहते हैं कि उनकी पोस्ट की रीच घटायी जा रही है। ट्विटर ने हाल में ही पत्रकार रंगनाथन का ट्विटर एकाउण्ट ब्लॉक कर दिया था क्योंकि उन्होंने कुरान की एक आयत का हवाला देकर बंगलौर दंगों पर सवाल उठा दिया था। ट्विटर ने इसे नफरत फैलानेवाला ट्वीट बताकर न सिर्फ वह ट्वीट डिलिट कर दिया बल्कि उनको पोस्ट करने से भी रोक दिया।
राहुल गांधी द्वारा सवाल उठाये जाने के बाद भाजपा के सांसद तेजस्वी सूर्य ने भी ट्वीट करके फेसबुक और ट्विटर पर आरोप लगाया कि उनके पास ऐसी जानकारी है कि ये सोशल मीडिया प्लेटफार्म जानबूझकर राष्ट्रवादियों के पोस्ट की पहुंच भी घटा रही हैं और हिन्दू विरोधी पोस्ट को बढ़ा चढाकर पेश कर रही हैं। उन्होंने कहा कि वो जानकारी जुटाकर इस मुद्दे को संसदीय समिति में उठायेंगे ताकि इन सोशल साइट्स पर कार्रवाई की जा सके।
इन राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप से अलग यह बात सही है कि तकनीकि में यह संभव है कि किसी पोस्ट की पहुंच घटायी या बढाई जा सके। या फिर कुछ खास पोस्ट को हटा भी दिया जाए जैसे रंगनाथन की ट्वीट को हटा दिया गया। लेकिन इसके आगे तकनीकि की भी अपनी सीमाएं हैं। वह किसी खास वर्ग के लोगों को न तो बढा सकता है या न किसी खास वर्ग के लोगों को घटा सकता है। यह कहना कि सोशल मीडिया पर जो लोग हिन्दुत्व की बात कर रहे हैं वो सब भाजपा या आरएसएस के एजंट है या भाजपा ऐसे लोगों को प्रमोट कर रही है, सिर्फ राजनीतिक आरोप है।
भाजपा का आईटी सेल है तो कांग्रेस का भी आईटी सेल है। लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि हर लिखने बोलनेवाला किसी न किसी आईटी सेल से जुडा हुआ है। यह कहकर अगर सोशल मीडिया को सीमित करने का प्रयास किया जाएगा तो नयी तकनीकि का महत्व ही समाप्त हो जाएगा। याद रखिए सोशल मीडिया सूचनाओं का सुन्दर उपवन नहीं बल्कि एक घना जंगल है जिसमें हर तरह की सूचनाएं तैर रही हैं। सही भी और गलत भी। यह प्रयोग करनेवाले को तय करना है कि वह सूचनाओं के इस जंगल में कितनी सावधानी से सफर करता है।