दुनिया इन दिनों एक मासिक पत्रिका है। समसामयिक विषयों को केंद्र में रखते हुए जन सरोकार की चिंता व्यक्त करने वाली इस पत्रिका का प्रकाशन मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से किया जाता है और देश के एक वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सक्सेना इसके प्रधान सम्पादक हैं। मित्र प्रकाशन की पत्रिका माया फेम के पत्रकार सुधीर सक्सेना के नेतृत्व में संपादित, प्रकाशित और मुद्रित इस पत्रिका, “दुनिया इन दिनों” की सम्पादक हैं सरिता सक्सेना और इसके मुद्रक-प्रकाशक हैं नवीन केडिया।
आम तौर पर किसी आलेख या विश्लेषणात्मक सम्पादकीय टिप्पणी के सन्दर्भ में इस तरह किसी पुस्तक या पत्रिका का परिचय देने की परंपरा हमारे देश में नहीं है। लेकिन जब कभी कोई पत्रिका या पुस्तक किसी ख़ास सामग्री के साथ किसी ख़ास अंदाज में प्रस्तुत होती है या प्रस्तुत की जाती है तो उसका ऐसा ख़ास परिचय देना बनता भी है। दुनिया इन दिनों का अगस्त 2020 का अंक कुछ इसी तरह का और ख़ास है। यह अंक इसलिए ख़ास है क्योंकि इसमें अयोध्या के राम मंदिर पर तमाम सामग्री आपको एक साथ मिल जायेगी।
अयोध्या में 1528 में बाबर के समय में कथित रूप से राम जन्म भूमि मंदिर तोड़ कर बनाई गई मस्जिद में किस तरह 1949 में रामलला की मूर्तियां रखवा दी गईं थीं और किस तरह इस विवादित ढांचे में ताले लगवा दिए गए थे, कैसे 1986 में ये ताले खुल गए और कैसे विश्व हिन्दू परिषद् के राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के बाद अयोध्या के इसी स्थल में नवम्बर 1989 को एक बार शिलान्यास और भूमिपूजन के 30 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने किस तरह दिसम्बर 2019 में इस विवाद का शांतिपूर्वक समाधान निकाल कर एक बार फिर उसी स्थान में राम के भव्य मंदिर निर्माण के लिए शिलान्यास और भूमि पूजन का मार्ग प्रशस्त किया और 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों यह कार्य संपन्न भी हो गया। 500 साल का न भी सही लेकिन पिछले 71 वर्षों में मंदिर निर्माण को लेकर जो भी एतिहासिक उतार-चढ़ाव अभी तक देखने में आये हैं, कमोबेश सभी की जानकारी “दुनिया इन दिनों” के इस राम मंदिर विशेषांक में एक साथ पढ़ने को मिल जायेगी। इसलिए भी यह अंक संग्रहणीय बन गया है।
इस अंक की एक खासियत इस रूप में भी देखी जा सकती है कि इसमें राम मंदिर के इतिहास को संजो कर न रख पाने के क्रम में की गई इंसानी गलतियों का उल्लेख करने के साथ ही उनसे सबक लेने की बात भी की गई है। इस विशेषांक में अयोध्या के इतिहास पर चर्चा करते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु, संयुक्त प्रान्त (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त, भारतीय सिविल सेवा के तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारी केके नायर से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी उनके समकालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री सरदार बूटा सिंह,विश्व हिन्दू परिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल और कोषाध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया, पूर्व केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवानी के साथ ही उनकी टीम के अनेक नेताओं जिनमें पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, अयोध्या-फैजाबाद के पूर्व भाजपा सांसद विनय कटियार समेत असंख्य लोगों के नाम शामिल हैं, सभी के बारे में यह जानकारी उपलब्ध है कि किसका किस रूप में इस मंदिर के निर्माण में योगदान रहा है।
विशेषांक का मूल आलेख, “राम मंदिर, सांच पर आंच” तो प्रधान सम्पादक सुधीर सक्सेना ने ही तैयार किया, उनके अलावा वरिष्ठ समाजवादी कार्यकर्ता रघु ठाकुर, मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री राजा पटेरिया समेत इतिहास और सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रहने वाले विशेषज्ञ लेखक प्रोफेसर संजय द्विवेदी, डॉक्टर परिवेश मिश्र, राकेश अचल, दिवाकर मुक्तिबोध और अजय कुमार ने भी अयोध्या मसले से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर अपने सन्दर्भों से सर्वथा नई जानकारियां इस विशेषांक के माध्यम से उपलब्ध कराई हैं।
दुनिया इन दिनों के इस अंक में राम मंदिर के बहाने यह बताने की कोशिश भी की गई है कि साढ़े तीन वर्ष की अवधि में इस मंदिर का निर्माण कार्य संपन्न होने पर किस तरह प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक डॉक्टर मोहन भागवत को इसका व्यक्तिगत लाभ मिल सकता है। पत्रिका में व्यक्त किये गए विचारों के माध्यम से इसी इस तरह समझ जा सकता है।
“5 अगस्त निर्विवाद्तः मोदी-भागवत की जुगलबंदी का पर्व था। दोनों के अपने-अपने मिशन हैं। अलग-अलग लेकिन परस्पर सम्बद्ध। संघ-भाजपा में वैसे भी नाभि-नाल का रिश्ता है। दोनों का अपना मिशन है, अपना- अपना अभीष्ट है। दोनों के रोड मैप दिलचस्प तौर पर मेल खाते हैं। 2024 में देश में लोकसभा के लिए चुनाव होना है और इसके अगले साल 2025 राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का शताब्दी साल है। यह दोनों के अभीष्ट की पूर्ति के लिए मायने रखता है।”
कहना गलत नहीं होगा कि अयोध्या में राम मंदिर के बहाने भाजपा ने लगभग दो दशक तक विश्व हिंदू परिषद् को ढाल बना कर देश में जिस धार्मिक आन्दोलन को हवा दी उसका फायदा भी उसे मिला। पत्रिका में भी इस बात का उल्लेख है, “बीजेपी को रामलला फले, इतने फले कि बीजेपी निहाल हो गई। घटनाक्रम बताता है कि बीजेपी ने 30 अक्टूबर 1990 को गोलीकांड में मारे गए कारसेवकों की कोई सुध नहीं ली लेकिन संघ और भाजपा की जुगलबंदी जारी रही। फलतः 1984 में फकत दो सीटों से बढ़ कर पैंतीस साल बाद 303 सीटों पर कामयाब रही।”
बीजेपी की इस कामयाबी का सेहरा केवल एक ही नेता के सर पर बंधा वो और कोई नहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही हैं। एक बात तो सही है कि, “चाहे के के नायर को गोविन्द बल्लभ पन्त की शह रही हो, चाहे राजीव गांधी की आंतरिक इच्छा से राम जन्म भूमि का ताला खुला हो, चाहे लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ हो, चाहे मंदिर का शिलान्यास और भूमिपूजन पहले ही क्यों न हो चुका हो, चाहे पीवी नरसिंह राव ने एन मौके पर निष्क्रियता बरत कर बाबरी ढांचे के विध्वंस में परोक्ष भूमिका निभाई हो, श्रेय की स्पर्द्धा में विजेता का मोर मुकुट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही हासिल किया है।”
शायद इसीलिए दूसरे शिलान्यास और भूमि पूजन के मौके पर इनमें से सिवाय नरेन्द्र मोदी के वहां और कोई मौजूद नहीं था। बात किस्मत की भी है मंदिर बनवाने के लिए कोशिश तो पंडित नेहरु ने भी की थी और उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने भी और उनके नाती राजीव गांधी ने भी यह कोशिश की थी। आईसीएस अधिकारी केके नायर, विहिप नेता अशोक सिंघल प्रवीण तोगडिया और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी जैसे अनेक लोगों ने समय-समय पर इसके लिए कोशिश भी की लेकिन कामयाब नहीं हो सके।
इस सम्बन्ध में नेहरु-गांधी खानदान के कट्टर आलोचक और भाजपा के सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी की बात पर यकीन करें तो मंदिर निर्माण की सबसे इमानदार कोशिश कांग्रेस नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही की थी लेकिन उनको फायदा नहीं मिला। स्वामी के शब्दों में, “राजीव गांधी यदि दोबारा प्रधानमंत्री बन जाते तो राम मंदिर बन चुका होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस चुनाव हार गई फिर 1991 में राजीव गांधी की ह्त्या हो गई और मंदिर निर्माण अधूरा रह गया।”