भेड़ और बकरी के कोरोना पॉजेटिव आने के बाद कोरोना संक्रमण के दौर में मुनाफे के खेल की कुछ तस्वीर सामने आयी है। इसका खुलासा तंजानिया के राष्ट्रपति ने किया है। तंजानिया में भेड़, बकरी समेत कुछ जानवरों के खून सैंपल लैब में जांच के लिए भेजा गया था। दरअसल राष्ट्रपति खुद कोरोना संक्रमण की सच्चाई को जानना चाहते थे। उनके आदेश पर गोपनीय तरीके से भेड और बकरी के खून की जांच की और लैब में जांच करने वाले तकनीकी कर्मचारियों को यह जानकारी तक नहीं थी कि जिस खून की वो जांच कर रहे है वो जानवर के है। जब जांच किट ने भेजे गए जांच सैंपल को कोरोना पॉजेटिव बताया तो फर्मा कंपनियों और बॉयोमेडिकल उपकरण बनाने वाली कंपनियों के इरादों पर सवाल उठ गए।
तंजानिया के राष्ट्रपति ने कोरोना बीमारी की जांच और इलाज पद्धति पर सवाल उठा दिया है। उन्होंने इसे एक बड़ा फ्रॉड करार दिया है। तंजानिया ने अब कोविड-19 के इलाज के लिए मेडागास्कर से सहयोग मांगा है। मेडागास्कर ने अपनी इलाज पद्धति से कोविड-19 इलाज की दवाई विकसित की है। दरअसल कोरोना संक्रमण को लेकर तमाम सवाल खड़े हो गए है। पूरी दुनिया में एक राय यह भी उभर रही है कि यह संक्रमण उतना खतरनाक नहीं है, जितना इसका भय लोगों में फैलाया गया है। यही कारण है कि दुनिया के कई देशों ने अपनी जनता को साफ कहा है कि कोरोना के साथ रहना सीखे। क्योंकि कोरोना से संक्रमण से मृत्यु दर काफी कम है। स्पेनिश फ्लू, एशियन फ्लू जैसे रोगों के मुकाबले कोरोना उतना खतरनाक नही है, जितना इसे बताया गया। वैसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन, चीन और अमेरिका की फर्मा कंपनियां और कुछ अन्य ताकतवर लॉबी की सांठगांठ पर सवाल भी उठे है।
फर्मा कंपनियों का खेल देखिए। पहले कहा गया कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन गेमचेंजर है कोरोना के इलाज में। फिर अब कहा जा रहा है कि इबोला के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवाई कोरोना में गेम चेंजर है। कुछ दिन पहले तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना इलाज में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन दवाई को गेमचेंजर बता रहे थे। उन्होंने भारत से एक बड़ी खेप भी इस दवा की मंगवाई। लेकिन अब अमेरिका में एक और दवाई रेमडेसिविर की ट्रायल की भी मंजूरी दे दी है।
कोरोना संक्रमित मरीजों को रेमडेसिविर दवाई दिए जाने की मंजूरी के बाद ट्रंप ने एक और ब्यान जारी किया है। उनका कहना है कि कोरोना के इलाज के लिए भविष्य में कोई वैक्सीन की जरूरत नहीं पड़ेगी। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि बिना वैक्सीन इसका इलाज संभव नही है। दुनिया के कई देश बहुत जल्दीबाजी में लॉकडाउन खत्म करने का कदम नहीं उठाए। ट्रंप ने अब नया दावा किया है कि कोरोना खुद-बखुद खत्म हो जाएगा। दिलचस्प बात है कि रेमडेसिविर दवाई इबोला बीमारी के इलाज के लिए विकसित किया गया था। इबोला के इलाज में यह दवाई फेल हो गई। वहीं कई वैज्ञानिक कोरोना में इस दवाई के इस्तेमाल पर गंभीर सवाल उठा रहे है।
दरअसल इन दावे प्रतिदावों के बीच यह सवाल उठ रहा है कि क्या फर्मा कंपनियां उन सारी दवाइयों को कोरोना मरीजों पर इस्तेमाल करना चाहती है, जिनकी उपयोगिता पर पहले दूसरी बीमारियों पर सफल नहीं रही है? क्योंकि कोरोना मरीजों पर कई दवाइयों के इस्तेमाल से ही फर्मा कंपनियां अरबों डालर की कमाई करेंगी। वैसे जांच किट और कुछ दवाइयों का कोरोना संकट में इस्तेमाल कर दवा कंपनियों ने अरबों रुपये की कमाई अभी तक कल ली है। दिलचस्प बात है कि रेमडेसिविर के खेल में अमेरिका और चीन दोनों शामिल हो सकते है। क्योंकि इस दवाई में दोनों मुल्कों की हिस्सेदारी है।
अगर इस दवाई को कोरोना इलाज में गेमचेंजर बताकर लाखों संक्रमित मरीजों (भविष्य में यह संख्या करोड़ो में पहुंचेगी) को भविष्य में इस दवाई के प्रयोग का आधार बनाया गया तो इससे दोनों मुल्कों की कंपनियों को अरबों डालर की कमाई होगी। रेमडेसिविर अमेरिका की कंपनी गिलियड साइंसेज ने विकसित की है। गिलियड साइंसेज में चीन की कंपनियों का अप्रत्यक्ष निवेश है। मतलब की इस कंपनी में चीन की भी हिस्सेदारी है। यह नहीं गिलियड साइंसेस अमेरिका में डेमोक्रेट पार्टी के उम्मीदवारों को इलेक्शन कैंपेन में फाइनांस भी करता रहा है।
दिलचस्प बात है कि गरीब और विकासशील देशों को कोरोना ने संक्रमण की चोट काफी कम पहुंचायी है। बल्कि कोरोना का भय और लॉकडाउन ने बहुत भारी चोट पहुंचायी है। इसका खामियाजा लंबे समय तक भुगतना होगा। क्योंकि लॉकडाउन के कारण भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान जैसे देशों को आर्थिक मार ज्यादा पड़ी है। इन मुल्कों की अर्थव्यस्था को सम्हलने में अब लंबा समय लगेगा। इन मुल्कों में कोरोना से मौत तो बहुत कम होगी। शायद मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियों से होने वाली मौतों से भी काफी कम। लेकिन भविष्य में भूख से मौत ज्यादा होगी।
दरअसल भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे मुल्कों में कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। वियतनाम जैसे मुल्क में एक भी मौत कोरोना से नहीं हुई है, जबकि यहां 288 कोरोना पॉजेटिव केस मिले है। भारत में कोरोना डेथ रेट 3.2 प्रतिशत, दक्षिण कोरिया में 2.3 प्रतिशत, बांग्लादेश में 1.5 प्रतिशत, अफगानिस्तान में 2.7 प्रतिशत, श्रीलंका में 1.4 प्रतिशत है।
अगर इसमें दक्षिण कोरिया को अपवाद माने तो बाकी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था पहले से ही परेशानी के दौर में है। इसके बावजूद एशिया और अफ्रीका के गरीब मुल्कों में एक अलग तरह का भय पैदा किया जा रहा है। उन्हें विकसित देशों की मौत का आंकड़ा दिखाकर डराया जा रहा है। जबकि विकसित देशों में कोरोना से ज्यादा मौत होने के कई और कारण भी बताए जा रहे है। लेकिन विकसित देशों की बड़ी लॉबी इस बीमारी के बहाने विकासशील देशों को तबाह कर सकती है। क्योंकि यहां की फर्मा कंपनियां मोटे लाभ के खेल में शामिल हो गई है।
इसमें कोई शक नहीं है कि विकसित देशों में कोरोना का भय खासा है। यह वाजिब भी है। क्योंकि विकसित देशों में कई एशियाई और अफ्रीकी देशों के मुकाबले डेथ रेट काफी ज्यादा है। हालांकि कई एशियाई और अफ्रीकी देशों के मुकाबले डेथ रेट ज्यादा विकसित देशों में क्यों है, यह रिसर्च का विषय़ है। अगर कई एशियाई और अफ्रीकी देशों के मुकाबले अमेरिका में डेथ रेट देखे तो पता चलता है कि यहां डेथ रेट लगभग दोगुना है।
अमेरिका में कोरोना से होने वाली डेथ रेट 5.9 प्रतिशत है। स्पेन में डेथ रेट 10 प्रतिशत है। यूके में 13 प्रतिशत है। इटली में 13 प्रतिशत है। जबकि इन मुल्कों में स्वास्थ्य सेवाएं काफी बेहतर है। इसलिए शोध का विषय यह भी होना चाहिए कि जिन मुल्कों में स्वास्थ्य सेवाएं बहुत अच्छी थी वहां मौत ज्यादा क्यों हुई है? जिन मुल्कों में स्वास्थ्य सेवाएं विकसित देशों के मुकाबले कुछ नहीं है, वहां डेथ रेट कम क्यों है? क्या विकसित देशों में ज्यादा डेथ रेट और कई एशियाई और अफ्रीकी देशों में कम डेथ रेट के कारण साइँटिफिक है? क्या मौसम और खानपान के कारण डेथ रेट में फर्क है?
हालांकि विकसित देशों के डेथ रेट का हौव्वा खड़ा कर गरीब देशों को डराया जा रहा है। इसमें वल्ड हेल्थ ऑरगेनाइजेशन, बिल गेटस समेत दुनिया भर की ताकतवर फर्मा लॉबी शामिल है। हालांकि दुनिया के विकसित देशों पता है कि विकासशील एशियाई और अफ्रीकी देशों के पास स्वास्थ्य बजट पर खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। अगर कोरोना से संबंधित कोई वैक्सीन बन भी गया तो इसे खरीदने के लिए भी गरीब देशों के पास पैसे नहीं होंगे। उन्हें कर्ज ही लेना पड़ेगा। क्योंकि कोरोना के कारण हुए लॉक डाउन ने गरीब और विकासशील देशों की आर्थिक हालात काफी खराब कर दी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)