
9 नवंबर 2019 वह ऐतिहासिक दिन था जब सुप्रीम कोर्ट ने श्रीराम जन्मभूमि विवाद पर फैसला देते हुए उस भूमि को रामलला विराजमान को सौंप दिया। साथ में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से कहा कि वह एक ट्रस्ट बनाने की पहल करे और आगे का कार्य इसी ट्रस्ट की देखरेख में हो। सुप्रीम कोर्ट का ट्रस्ट वाला फैसला थोड़ा अटपटा था क्योंकि राम जन्मभूमि विवाद में जो वादी थे उनमें पहले से ऐसे लोग शामिल थे जो रामलला मंदिर के लिए सेवा कर रहे थे। इनमें एक वादी था रामजन्मभूमि न्यास। रामजन्मभूमि न्यास का गठन 1993 में हुआ था जिसके पीछे विश्व हिन्दू परिषद था। असल में 1984 में जब विश्व हिन्दू परिषद राम मंदिर आंदोलन में शामिल हुआ उसके बाद से राम मंदिर आंदोलन ने राजनीतिक स्वरूप ले लिया। इस राजनीतिक स्वरूप के बाद भी मंदिर आंदोलन के सर्वोच्च नेता के रूप में वही साधु-संत मध्य में रहे जो दशकों से राम जन्मभूमि के लिए संघर्ष कर रहे थे।
इन साधु संतों में दो नाम प्रमुख थे। एक महंत दिग्विजयनाथ जो गोरखनाथ पीठ के प्रमुख थे और दूसरे महंत रामचंद्र दास परमहंस जो मणिरामदास छावनी के प्रमुख थे। महंत दिग्विजयनाथ के निधन के बाद महंत रामचंद्रदास ही एक तरह से मंदिर आंदोलन के केन्द्र में आ गये थे। लालकृष्ण आडवाणी की राम रथयात्रा के बाद मिले धन को संभालने और मंदिर निर्माण कार्यशाला की शुरुआत करने के लिए विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि न्यास का गठन किया तो उसका प्रमुख भी रामचंद्रदास को ही बनाया गया। मतलब पहले से ही न्यास मौजूद था जो मंदिर कार्यशाला का कार्य देख रहा था, इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि पर मंदिर निर्माण के लिए अलग से ट्रस्ट या न्यास बनाने का सुझाव दे दिया।
इस सुझाव पर अमल हुआ और केन्द्र सरकार की ओर से एक नये ट्रस्ट का गठन किया गया श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र। विवादित 2.77 एकड़ भूमि इस ट्रस्ट को सौंप दी गयी इसके अलावा नरसिंहराव सरकार द्वारा अधिग्रहित 67 एकड़ भूमि भी इसी ट्रस्ट को दे दी गयी जो अब मंदिर निर्माण का कार्य देखनेवाला था। इस ट्रस्ट का अध्यक्ष एक बार फिर मणिदास छावनी के महंत नृत्यगोपाल दास को बनाया गया जो महंत रामचंद्रदास के उत्तराधिकारी हैं। लेकिन पूर्व में बना राम जन्मभूमि न्यास हो या वर्तमान में बनाया गया श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास हो, प्रमुख भले ही कोई महंत हो लेकिन ट्रस्ट के संचालन का सारा अधिकार विश्व हिन्दू परिषद के पास ही रहता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इन दोनों ही ट्रस्ट में सचिव का पद विश्व हिन्दू परिषद के पास ही है। जो लोग ट्रस्ट के काम काज के नियम के समझते हैं वो जानते हैं कि ट्रस्ट में सचिव ही सर्वेसर्वा होता है। बैठक, निर्णय, कामकाज सब सचिव के जिम्मे ही रहता है, अध्यक्ष एक मोहर से अधिक कोई हैसियत नहीं रखता। ठीक वैसे ही जैसे भारत का प्रधानमंत्री सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम पर करता है लेकिन स्वयं राष्ट्रपति अपने नाम पर कोई कार्य नहीं कर सकता।
वर्तमान में जो जमीन विवाद हुआ है उसके मूल में यही प्रावधान है कि ट्रस्ट का पदेन सचिव इतना ताकतवर होता है कि वह ट्रस्ट के सभी कार्यों को संपादित करने के लिए स्वतंत्र होता है। श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के जो सचिव हैं वो विश्व हिन्दू परिषद के महासचिव चंपत राय हैं। इसके अलावा ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष गोविन्द देव गिरी भी संघ के पुराने स्वयंसेवक हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि परोक्ष रूप से मंदिर निर्माण का कार्य संघ के स्वयंसेवकों के हाथ में है। महंत नृत्य गोपालदास एक मोहर हैं जिनका आशीर्वाद लेना भी जरूरी नहीं समझा जाता। मसलन, 2 करोड़ की भूमि के लिए 18 करोड़ देने का विवाद जब सामने आया तो महंत नृत्यगोपाल दास का एक बयान भी सामने आ गया कि बीते एक साल से चल रही गतिविधियों के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गयी है। 83 साल के महंत नृत्यगोपाल दास बीमार हैं इसलिए दिन प्रतिदिन की कार्यवाही में शामिल होना उनके लिए संभव नहीं लेकिन उनके उत्तराधिकारी कमलनयन दास का कहना है कि महंत को ट्रस्ट की गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी भी नहीं दी जाती। हां, 2 करोड़ की कथित भूमि को 18 करोड़ में खरीदने का विवाद उठा तो जरूर ट्रस्ट के लोगों ने आशीर्वाद के लिए नृत्यगोपाल दास को आनलाइन संपर्क कर लिया।
ट्रस्ट द्वारा भूमि खरीदने में किये गये कथित भ्रष्टाचार का जो आरोप है वह राजनीति से प्रेरित है ये कहना गलत नहीं है। लेकिन ये आरोप जिन पर लग रहा है क्या वो राजनीति से प्रेरित नहीं है? अगर धर्म के काम में राजनीतिक लोग दखल देंगे तो स्वाभाविक है राजनीति होगी ही। आप पार्टी के संजय सिंह हों या समाजवादी पार्टी के पवन पांडे। वो राम मंदिर पर सवाल नहीं उठा रहे बल्कि राम मंदिर न्यास तले चल रहे भ्रष्टाचार को सामने ला रहे हैं। ऐसे सवाल उठते रहने चाहिए ताकि सार्वजनिक कार्य में पारदर्शिता बनी रहे। इन सवालों पर ऐतराज करने की बजाय उनका जवाब देना जरूरी होता है ताकि लोगों के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।