
पिछले चार दशकों के दौरान भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और डराने-धमकाने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई है। बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के बाद मुंबई में अभूतपूर्व हिंसा हुई जिसमें करीब एक हजार लोगों को जान खोनी पड़ी। सन् 1999 में पॉस्टर ग्राहम स्टेन्स को जिंदा जलाने की भयावह घटना हुई जिसे भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ। के। आर। नारायणन ने ‘कलुषित घटनाओं की श्रृंखला में सबसे वीभत्स घटना‘ निरूपित किया था।
गुजरात का नरसंहार गोधरा में ट्रेन जलाने के बहाने किया गया, जिसका नतीजा हुआ जबरदस्त धार्मिक ध्रुवीकरण और इसके बाद हुए चुनावों में भाजपा की जीत। इसके कुछ वर्षों बाद, 2008 में माओवादियों द्वारा स्वामी असीमानंद की हत्या के बाद कंधमाल में बहुत हिंसा हुई। चर्च जलाये गए और हत्याएं हुईं। सन् 2013 में मुजफ्फरनगर और 2019 में दिल्ली में हुई घटनाएं भी भीषण हिंसा की श्रेणी में आती हैं जिन्होंने देश को दुखी किया।
यही नहीं गौहत्या और लवजिहाद के मुद्दों के कारण अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत और बढ़ी। सीएए से मुस्लिम समुदाय की तकलीफों में और वृद्धि हुई। विभिन्न स्थानों पर ईसाईयों की प्रार्थना सभाओं पर यह आरोप लगाकर हमले किए गए कि इनका उद्धेश्य धर्मपरिवर्तन करवाना है। इन सब घटनाओं के कारण पिछले चार दशकों में अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा लगातार बढ़ती गई।
दुनिया धीरे-धीरे एक वैश्विक गांव का रूप लेती जा रही है और दुनिया में कई ऐसी संस्थाएं स्थापित हो गई हैं जो सारे विश्व में चल रहे घटनाक्रम पर नजर रखती हैं। ऐसी ही एक संस्था संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) है। ‘जस्टिस फॉर ऑल‘ एक अन्य संस्था, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ में सलाहकार का दर्जा हासिल है, ने ‘‘यूएससीआईआरएफ की मंगलवार, 25 मार्च 2025 को जारी की गई उस रपट की सराहना की जिसमें यह कहा गया है कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता कम होती जा रही है।
रपट में सन् 2024 के आम चुनाव के दौरान की जा गई घृणा फैलाने वाली बातों, मुसलमानों के घरों को ढहाए जाने और सरकार के सीएए को लागू करने की दिशा में उठाए जा रहे कदमों – जिसके चलते और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) तैयार किए जाने से दसियों लाख मुसलमानों की नागरिकता खतरे में पड़ सकती है और वे किसी भी तरह के कानूनी संरक्षण से महरूम हो सकते हैं‘‘।
भाजपा सरकार और हिन्दुत्व राजनीति की वजह से भारत की यह बुरी छवि बन रही है जिसका दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह छवि आजादी एवं लोकतंत्र से जुड़े विभिन्न सूचकांकों पर भारत की गिरती स्थिति में भी प्रतिबिंबित हो रही है। सरकार और आरएसएस विचारधारा वाले सत्ताधारी इस नकारात्मक स्थिति का सामना किस तरह कर रहे हैं?
सबसे पहले तो आधिकारिक तौर पर भारत मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दों की निगरानी करने वाली किसी भी संस्था को मान्यता नहीं देता। सरकार इसे देश के ‘आंतरिक मामलों‘ में दखलअंदाजी बताती है। यही सरकार पड़ोसी देशों में हिंदुओं के उत्पीड़न पर आसमान सिर पर उठा लेती है। उत्पीड़न की इन घटनाओं पर चिंता व्यक्त करना बिल्कुल उचित है परंतु इस मामले में सरकार दुहरा रवैया दिखाती है।
भारत में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा की अनदेखी करने की इस रणनीति में नया आयाम जोड़ते हुए आरएसएस-भाजपा नेता राम माधव ने एक लेख में यह तर्क दिया कि धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन का यह नजरिया हालातों को यूरोपीय चश्मे से देखता है। अपने तर्क के समर्थन में वे एक अन्य अमरीकी थिंक टेंक की ‘‘चेंजिग द कनवरशेसन एबाउट रिलीजियस फ्रीडमः एन इंट्रीगल ह्यूमन डेवलपमेंट एप्रोच‘‘ शीर्षक वाली रपट का जिक्र करते हैं।
इस रपट के अनुसार ‘‘एकात्म मानववाद पर आधारित मानव विकास ही समग्र समृद्धिशाली और टिकाऊ हो सकता है‘‘। वे टिप्पणी करते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता को मात्र मानवाधिकारों से संबद्ध करके नहीं देखा जा सकता (इंडियन एक्सप्रेस जून 14)।
माधव के अनुसार आक्रमणकारी मुगल सेनाओं ने हिंदुओं पर जुल्म ढाए। वे देश के विभाजन के लिए पूरी तरह से मुस्लिम लीग को दोषी ठहराते हैं। माधव के नजरिए के विपरीत भारत की आजादी की लड़ाई के नेता गांधी चाहते थे कि भारत में विभिन्न धार्मिक समुदाय सद्भावनापूर्ण माहौल में फले-फूलें। इसी तरह नेहरू मानते थे कि हमारी सभ्यता समन्वयवादी है। उन्होंने लिखा था ‘‘भारत माता एक प्राचीन स्लेट की तरह है जिसमें विचारों की परतें एक के ऊपर एक लिखी जाती रहीं और बाद की परत पिछली परत को पूरी तरह से मिटा या छिपा नहीं सकी।‘‘
माधव हमें ‘एकात्म मानववाद‘ के बारे में बताते हैं जिसे सर्वप्रथम 1936 में जेकुइस मार्टियन ने प्रस्तुत किया था। वे एक कैथोलिक ईसाई थे और चर्चों के सर्वोच्च पादरी भी उनके प्रशंसक रहे हैं। माधव के मुताबिक उनके एकात्म मानववाद के नजरिये के अनुसार मनुष्यों के न केवल भौतिक बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए धार्मिक बंधनों से ऊपर उठना जरूरी है। कैथोलिक ईसाई धर्म के संदर्भ में संभवतः इसका लक्ष्य उन लोगों का विरोध करना हो सकता था जो ईसाई धर्म के गैर-कैथोलिक पंथों की ओर आकर्षित हो रहे थे। वे उस धार्मिक स्वतंत्रता के पक्ष में जिसे ‘ईसाई प्रजातंत्र’ बढ़ावा देना चाहता है।
भारत में इस विचार को भाजपा नेता दीनदयाल उपाध्याय ने प्रस्तुत किया, जो आरएसएस से भी जुड़े हुए थे। वे एक ऐसे राजनैतिक संगठन का हिस्सा थे जिसका लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना था। इस विचारधारा की मान्यता यह है कि भारत को पहले मुस्लिम राजाओं और फिर अंग्रेजों ने गुलाम बनाया।
यह विचारधारा हिंदू समाज की बहुत सी खराबियों के लिए खासतौर से मुस्लिम राजाओं के अत्याचारों को दोषी मानती है। तथ्य यह है कि हिंदू धर्म की बहुत सी कमियां जाति, वर्ण और लिंग आधारित ऊंच-नीच की वजह से हैं जिनका जिक्र हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाले कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। वे इस तथ्य से भी अनजान हैं कि मुस्लिम राजाओं के प्रशासन में विभिन्न स्तरों के पदों पर बहुत से उच्च जाति के हिंदू काबिज थे।
उपाध्याय द्वारा सन् 1965 में दिए गए चार प्रमुख व्याख्यानों में एकात्म मानववाद के सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया। यह विचारधारा भारत के संघीय ढ़ांचे के खिलाफ है और भारत में ‘धर्म राज्य‘ की स्थापना का आव्हान करती है। उनके अनुसार धर्म का दर्जा संसद से ऊंचा है। वह मनुष्यों की पूर्वनिर्धारित भूमिका का समर्थन करती है, यानि जाति-वर्ण व्यवस्था का समर्थन करती है। वह समाज में यथास्थिति की हामी है। मार्टियन ‘ईसाई लोकतंत्र‘ की वकालत करते हैं वहीं उपाध्याय ‘हिंदू राष्ट्र‘ के एजेंडे से जुड़े हुए थे। भाजपा ने ‘एकात्म मानववाद‘ को सरकार चलाने की अपनी विचारधारा के रूप में अपनाया है।
एकात्म मानववाद के धर्म के परे होने का दावा किया जाता है, परंतु व्यावहारिक तौर पर यह ब्राम्हणवादी मूल्यों को बढ़ावा देता है और इसके चलते मंदिर (मस्जिदों को ढहाया जाना), पवित्र गाय (लिंचिंग), लव जिहाद और धर्मपरिवर्तन एजेंडे के मुख्य मुद्दे बन गए हैं।
वर्तमान दौर में एकात्म माननवाद को बढ़ावा देने से भारतीय संविधान के मूल्यों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों व नीची जातियों और महिलाओं के अधिकारों को नुकसान पहुंच रहा है। यह हिंदू राष्ट्र के एजेंडे के लिए एक परिष्कृत शब्द हो सकता है, जो भारतीय संविधान के पूर्णतः विपरीत है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)