भारतीय समाज में “कन्यादान” की परंपरा बनाम पुरुष “स्वामित्व बोध”

डॉ. आकांक्षा
मत-विमत Updated On :

खासतौर से उत्तर भारतीय समाज में आमतौर पर, लड़की के अभिवावक अपनी लड़की का हाथ अपने अनुसार ढूंढ़े गये वर को ही सौंपते हैं। रीति-रिवाज के साथ कन्या का हाथ वर को सौंपने के लिये विवाह संस्कार के दौरान जो रस्म निभाई जाती है, ‘कन्यादान’ कहलाती है। इस रस्म में कन्या के हाथ हल्दी से पीले किये जाते हैं और कन्या के अभिभावक कन्या के हाथ वर के हाथ में सौंप देते हैं। सांस्कृतिक तौर पर तो यह माना जाता है कि, लड़का-लकड़ी एक नए जीवन की शुरुआत करते हैं और अब लड़की के संरक्षण का दायित्व लड़के और उसके घर वालो को उठाना होता है और लड़की अपनी प्रजनन शक्ति से उनके वंश को आगे बढ़ाने का दायित्व पूरा करेगी। ऐसे में वर पक्ष वाले कन्या को अपनी कन्या के समान समझें और उसके प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करें, इन्हीं जिम्मेदारियों के स्थानांतरण की प्रक्रिया है ‘कन्यादान’। पर, इस परंपरा को अगर स्त्रीवादी नजरिए से देखा जाए और विश्लेषण किया जाए तो दूसरा पहलू भी सामने आएगा जिसे आमतौर पर परंपरा और संस्कृति नाम पर विमर्श के दायरे में रखा ही नहीं जाता है।

परंपरानुसार कन्या का हाथ वर को सौंपने का अर्थ कहीं-न-कहीं सम्मान, सुरक्षा और संरक्षण से जुड़ा हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार लड़की को सारी उम्र किसी न किसी पुरुष के संरक्षण में रहने का निर्देश दिया गया है, ताकि परजीवी की भांति उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व बन ही न पाए । कन्या को एक समान्य इंसान का दर्जा न मिल पाने में कहीं-न-कहीं इस तरह की परंपरा और निर्देश भी जिम्मेदार है। हर इंसान को अपने अनुकूल जीवनसाथी का चुनाव करने का हक तो अब हमारी न्याय-व्यवस्था भी देती है। फिर, इन तमाम तरह के परम्पराओं के नाम पर एक इंसान की संरक्षण की ज़िम्मेदारी के हस्तांतरण की आवश्यकता का क्या औचित्य है?

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रमेश माधव बापत ने शांति देवी बनाम रामलाल अग्रवाल (1998) के मामले में निर्णय सुनाते हुए कहा भी है, ‘‘हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत वैध विवाह के लिए ‘कन्यादान’ अनिवार्य रस्म नहीं है। इससे पहले जब नाबालिग बच्चों का विवाह किया जाता था, तो पिता की सहमति अनिवार्य होती थी। यानी पिता द्वारा दामाद को पुत्री ‘दान’ में देने का ‘वह अर्थ’ अब पूर्णतया समाप्त हो गया है”। ऐसा नहीं है कि आज बाल-विवाह का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया है या इसे पूर्णतौर पर अबैध माना जाने लगा है पर, इनकी संख्या में कमी जरूर आई है।

सामाजिक संस्थाओं और तमाम तरह के मीडिया के माध्यमों द्वारा लगातार महिलाओं के अधिकार से जुड़े कानून से लोग अवगत भी हो रहें हैं और उन्हें इन अधिकारों को पाने का रास्ता भी मिल रहा है फिर भी, इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न क़ानूनों की जानकारी होने के बाबजूद भी बहुत ही कम संख्या में लोग इसका उपयोग कर पा रहें हैं। ऐसी स्थिति में लड़की या किसी भी जागरूक व्यक्ति के लिए किसी सांस्कृतिक परंपरा को चुनौती देना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है।

‘कन्यादान’ की परंपरा भी इसी तरह की एक संस्कृतिक परंपरा बन चुकी है जिसे भावना और इज्जत के साथ जोड़कर देखा जाता है। खासतौर पर उत्तर भारत में आज भी यह मान्यता है कि परिवार के सदस्यों द्वारा चुने गए लड़के को ही लड़की को अपना जीवनसाथी स्वीकार करना चाहिए। वही लड़की आदर्श भी मानी जाती है जो इस व्यवस्था में तमामेल बैठा लेती है। हालांकि अब थोड़ा-बहुत बदलाव आना शुरू हो चुका है यहां तक कि कुछ-कुछ राज्य में अंतरजातीय विवाह को भी प्रशासनिक समर्थन दिया जाना सुनिश्चित हुआ है अब, ये अलग बात है कि व्यावहारिक तौर पर यह कितना सफल हो पाया इसे जाँचने की भी आवश्यकता है।

‘कन्यादान’ परंपरा को इज्जत से जोड़कर देखा जाना भी कहीं-न-कहीं स्वामित्व का बोध कराता है और मजेदार बात यह है कि यह बोध सिर्फ लड़की के परिवार वाले के लिए ही नहीं है बल्कि, यह लड़के के परिवार वाले के लिए भी उतना ही स्वामित्व बोध कराता है। एक ओर जहां लड़की के परिवार वाले ‘कन्यादान’ (उत्कृष्ट संपत्ति का स्थानांतरण) करते हुए फूले नहीं समाते हैं वहीं लड़के के परिवार वाले एक ऐसे लड़की को अपने परिवार के सदस्य के रूप में स्वीकार करते हुए गौरान्वित होते हैं कि वे अब एक उत्कृष्ट संपत्ति के स्वामी हैं। इस परंपरा को धर्म के साथ भी जोड़ दिया गया है और इसे पाप और पुण्य का मुद्दा तक बना दिया गया है।

उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में यह भी सुनने को मिल जाता है कि एक लड़की का ‘कन्यादान’ करने वाले व्यक्ति को सौ गाय दान करने के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है। अब सोचने वाली बात यह है कि इंसान और जानवर में कोई फर्क है या नहीं? या फिर, इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जिस तरह पुरोहितों/ब्राह्मणों को गाय रूपी दक्षिणा देकर जबतक उस गाय की ज़िंदगी है उसका दोहन करने की सुविधा देता है उसी तरह ‘कन्या रूपी संपत्ति’ को दान करके उसके आजीवन दोहन की सहमती प्रदान करता है क्योंकि, मान्यता यह है कि ‘कन्यादान’ के बाद कन्या के संरक्षक और कुल भी बदल जाते हैं और वह अपने मायके लिए लिए ‘पराया धन’ हो जाती है।

अबतक लड़की की जिंदगी के सारे फैसले लेनेवाले पिता, भाई जैसे घर के पुरुष सदस्य की जगह पति, ससुर और आगे चलकर बेटा ले लेता है। इस तरह समय-समय पर स्त्रियों के जीवन में स्वामियों का भी रूप बदलता रहता है। कन्या को क्या और कितना पढ़ना है, नौकरी करनी है या नहीं, जीवनसाथी कौन होगा, बेटा पैदा करना है या बेटी यह भी उसे तय करने का अधिकार नहीं है और चुपचाप इन सारी मान्यताओं को स्वीकार करने वाली लड़की ‘संस्कारी’ भी मानी जाती है।

यहां तक कि यदि कन्या किसी कारणवश मां नहीं बन पाती या फिर बेटे की मां नहीं बन पाती तो वंश को आगे बढ़ाने के लिए पति की दूसरी शादी को भी स्वीकार करना एक आदर्श स्त्री का गुण माना जाता रहा है। उत्तर भारत में एक कहावत बहुत ही प्रचलित है ‘मायके से लड़की की डोली उठती है और ससुराल से अर्थी’। इस कहावत का आशय यह तो नहीं है कि किसी भी परिस्थिति में कन्या को ‘कन्यादान’ के उपरांत अपने मायके से किसी तरह की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए चाहे जान तक क्यों न गंवानी पड़े?

इन तमाम संदर्भों की चर्चा करने का मतलब यह नहीं है कि हमें अपनी संस्कृति को नकार देना चाहिए बल्कि, उसे और कैसे बेहतर बनाया जाए इसपर विचार करने की जरूरत है। संस्कृति और परंपरा तो समाज द्वारा ही बनाए जाते हैं और समय-समय पर यदि इसपर विचार और समीक्षा की जाए तो इसमें परिवर्तन लाकर और अधिक सुदृद्ध और स्वीकार्य बनाया जा सकता है क्योंकि, अगर देखा जाए तो हमारे देश के अलग-अलग क्षेत्र में विवाह-संस्कार को ही लेकर अलग-अलग तरह की परंपरा है। कहीं ‘क्रास-मैरज सिस्टम’ है तो कहीं लड़के को लकड़ी के घर पर आकर रहने का प्रचलन है, तो कुछ जनजातिये समाज में लड़की को बिना विवाह किए घर की ज़िम्मेदारी उठाने का चलन है।

उसी तरह ‘विवाह-संकेत’ को लेकर भी है। उत्तर भारत में सिंदूर का बहुत महत्व है तो दक्षिण भारत में मंगलसूत्र का। इसी तरह अन्य ‘विवाह-संकेतों’ और त्योहारों के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। वैसे जनमाध्यमों के विकास और एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन की वजह से अब धीरे-धीरे एक-दूसरे की परंपरा को अपनाने का भी चलन बढ़ा है और शिक्षा ने एक हद तक इन रूढ़ीवादी मान्यताओं को लेकर जागरूक होने में मदद भी की है फिर भी, कुछ-कुछ परम्पराएं आज भी ऐसी हैं जिसे धर्म के साथ इस तरह से जोड़ दिया गया है कि, चाहकर भी उससे बाहर निकालना बहुत मुश्किल हो चुका है।

‘कन्यादान’ भी इस तरह की ही एक धार्मिक परंपरा बन चुकी है और इसे भावनाओं के साथ जोड़कर और भी मजबूत बना दिया गया है। इसलिए इस तरह की परंपरा से निकलने के लिए लोगों को कानून ही एकमात्र सहारा नजर आता है। चूंकि, हमारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार की देने की बात करता है इसलिए कानून की नजर में आज के समय में ‘कन्यादान’ जैसी परंपरा का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि, हमारे समाज में रहने वाले हर वयस्क को अपने हिसाब से जिंदगी जीने का पूरा हक है। जहां तक रही बात ‘बाल-विवाह’ और उसमें पिता की अनुमती के लिए इस परंपरा का औचित्य तो ‘बाल-विवाह’ आज के समय में अपराध की श्रेणी में आ चुका है। यह अलग बात है कि धर्म के नाम पर आज भी यह प्रचलन में है।

आज के दौर में जबकी समाज के हर क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हो रहें हैं। भारत विकासशील देश से अब विकसित देश का दर्जा पाने के लिए लगातार प्रयासरत है। शिक्षा के नए-नए आयाम ढूंढ़े जा रहें हैं। जेंडर-विभेद को पाटने की बात की जा रही है। समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उनके संवैधानिक अधिकरों से परिचित कराया जा रहा है। ऐसे में वयस्क लड़की के विवाह के मामले में भी हमें सोचने की जरूरत है और यह शायद तभी संभव है जब कन्या को इज्जत और संपत्ति से इतर एक इंसान तौर पर देखा जाए। एक ऐसी संस्कृति विकसित की जाए जिसमें उसे अपनी जिंदगी में क्या करना है और कैसे करना है का निर्णय करने का अधिकार हो। सिर्फ संवैधानिक तौर पर ही इस अधिकार का मिल जाना हमारे समाज के लिए काफी नहीं है। इस अधिकार को धीरे-धीरे परंपरा और संस्कृति का हिस्सा बनाना भी जरूरी है और इसकी शुरुआत घर से होना आवश्यक है तभी, समाज के विभिन्न तंत्र इसे स्वीकार कर पाएंगे।

(डॉ. आकांक्षा स्त्री अध्ययन से सम्बंधित सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करती हैं।)