मेरा पुराना चाइनीज मोबाइल बदलना है। अभी मैं सोच ही रहा था कि 15 जून को गलवान घाटी में 20 जवान बलिदान हो गये। पहली बार मन में चाइनीज ब्रांड न लेने का विचार उठा। आखिर ये कैसे हो सकता है कि हमारे सैनिकों को चीन सीमा पर कुचलकर मार दे और मैं चाइनीज प्रोडक्ट खरीदता रहूं?
ये सोचते हुए मैं एमआई ऐप पर गया। संयोग से वहां एमआई नोट-9 का प्रोडक्ट सेल था। आप सब जानते हैं चीन की शाओमी कंपनी का भारत में प्रवेश और व्यापार का तरीका बिल्कुल अलग है। उन्होंने आनलाइन सेल से अपने फोन बेचने शुरु किये। और शाओमी के एमआई ब्रांड की आज भारत में इतनी मांग है कि सेल मिनट दो मिनट में खत्म हो जाती है। 16 जून को भी वही हुआ। एक मिनट में ही एमआई ऐप और अमेजन पर रेडमी नोट 9 की सेल फुल हो गयी। क्योंकि मुझे खरीदना नहीं था इसलिए मैं सेल में शामिल ही नहीं हुआ लेकिन जो शामिल हुए वो भी भारत के ही नागरिक हैं? उन्होंने भी तो ये समाचार सुना होगा कि गलवान घाटी में भारत के बीस सैनिकों के साथ चीन ने क्या किया है? कम से कम ऐसे समय में तो रेडमी के फोन बिना बिके रह सकते थे?
ऐसा नहीं हुआ। रेडमी के फोन पहले की ही तरह एक मिनट मिनट में बिक गये। फोन खरीदने वालों को हम क्या कहें? भारत के नागरिक या फिर भारत के उपभोक्ता? राष्ट्र, समाज इन सबकी सीमारेखा किसी नागरिक के लिए होती है, उपभोक्ता के लिए नहीं। मुझे याद है एक बार रतन टाटा ने भी कहा था कि हम सिर्फ एक मार्केट के भरोसे नहीं है। उनका संकेत भारत की तरफ था।
रतन टाटा देश के समर्पित उद्योगपति हैं लेकिन व्यापार करने वाले के लिए राष्ट्र की सीमाएं एक बैरियर होती हैं जिन्हें हटाने के लिए दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही लगातार प्रयास हो रहे हैं। पहले गैट और बाद में डब्ल्यूटीओ के प्रावधान पूरी दुनिया पर लागू किये गये। इन प्रावधानों का सिर्फ एक उद्देश्य था कि संसार के सभी उपभोक्ता एक समान समझे जाएं। वो संसार के जिस भी वस्तु का उपभोग करना चाहें, अगर उनमें खरीदने का सामर्थ्य है तो उस वस्तु को उन तक पहुंचाया जाए।
यही ग्लोबलाइजेशन है जिसमें भारत भी शामिल है और डेढ़ दशक पहले चीन भी शामिल हो चुका है। भारत की कंपनी चीन में जाकर व्यापार करेगी और अगर चीनी उपभोक्ता चाहेंगे तो भारतीय कंपनी को चीन बाहर नहीं निकाल सकता। ऐसा ही भारत में भी होगा। कोई सरकार चीनी कंपनी को सिर्फ इसलिए बाहर नहीं निकाल सकती क्योंकि वह चाइनीज कंपनी है। इसलिए खरीद और बहिष्कार का सारा दारोमदार उस उपभोक्ता पर आ जाता है जो किसी न किसी देश का नागरिक भी होता है।
तो क्या भारत के स्मार्टफोन बाजार पर 72 प्रतिशत हिस्सा रखनेवाली चीनी मोबाइल कंपनियों से भारत के उपभोक्ता को कोई परेशानी हो रही है? ऐसा लगता तो नहीं है। अगर परेशानी हो भी तो भारत का उपभोक्ता क्या कर सकता है? क्या भारत का कोई ऐसा मोबाइल ब्रांड है जिसे खरीदकर वह अपने नागरिक होने का परिचय दे सके?
करीब पच्चीस साल की संचार क्रांति में भारत में मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियां तो पैदा हुईं लेकिन एक मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनी नहीं बन सकी। जो एक दो भारतीय ब्रांड उभरे भी वो चीन से मोबाइल लाकर भारत में बेचते रहे। इसके उलट चीन ने न सिर्फ मोबाइल क्रांति का हार्डवेयर अपने हाथ में लिया बल्कि सॉफ्टवेयर पर भी जोर आजमाइश शुरु कर दी।
जब चीन ने मोबाइल फोन मार्केट पर दावा किया तो इकोनॉमिस्ट जैसी पत्रिकाओं ने भी चीन की इस कोशिश का यह कहते हुए मजाक उड़ाया था कि चीन की ये कंपनियां नकली प्रोडक्ट के भरोसे अमेरिका को टक्कर देना चाहती हैं। लेकिन चीन ने टक्कर दिया। और अमेरिका के प्रतिष्ठित मोटोरोला ब्रांड को भी एक चीनी कंपनी लेनोवो ने खरीद लिया। चीन ने अपने यहां मोबाइल बनाने का पूरा ढांचा विकसित किया और आज वो कंपनियां न सिर्फ चीन में बल्कि भारत के मोबाइल मार्केट में अपनी बुलंदी का झंडा लहरा रही हैं।
आज वही चीनी कंपनियां भारत में आकर मोबाइल बनाने लगी हैं। मोदी भी भारत की इस मजबूरी को समझते हैं इसलिए उन्होंने मेड इन इंडिया की बजाय मेक इन इंडिया का नारा दिया। इसलिए चीन के शाओमी, वीवो और ओप्पो मोबाइल ब्रांड आज भारत में ही असेम्बल होते हैं।
लेकिन मोबाइल सिर्फ असेम्बलिंग भर नहीं होता। उसके लिए कच्चा माल जैसे स्क्रीन, मदरबोर्ड पैनल, सेमीकन्डक्टर इत्यादि आज भी चीन में ही निर्मित होते हैं। अगर भारत को मोबाइल क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना है तो उसे बुनियादी सामग्री के निर्माण पर जोर देना होगा। लेकिन क्या इसके लिए भारत के उद्योगपति तैयार हैं? उद्योगपतियों का रुख देखकर लगता नहीं कि वो भारत को आत्मनिर्भर बनाने के मूड में हैं। रिलायंस जैसी कंपनी ने भी जियो लांच किया तो अपने हैंडसेट का निर्माण चीन में ही करवाया था, हालांकि जल्द ही वो हैंडसेट मार्केट से हट गये।
लेकिन भारत को आत्मनिर्भर होने के लिए भारतीय उद्योगपतियों को ट्रेडर बनकर नहीं बल्कि उत्पादक और निवेशक बनकर सोचना होगा। नये उत्पाद और तकनीकि में आज भी भारत के उद्योगपतियों का निवेश न्यूनतम है। इसलिए जो नये स्टार्टअप हैं वो मजबूरी में चीन और अमेरिका से अपने लिए पैसा जुटाते हैं। ऐसे में सिर्फ राष्ट्रवाद का सतही नारा लगाने से आत्मनिर्भरता नहीं आ जाएगी।
चीन को पछाड़ने के लिए चीन की तरह ही दूरगामी नीति पर काम करना पड़ेगा। जिसके लिए हो सकता है सरकार तैयार हो, लेकिन इस देश के पूंजीपति कहीं से तैयार नहीं दिखते। पूरी विश्व के लिए भले ही हम साफ्टवेयर बनाते हों लेकिन आज तक एक ऑपरेटिंग सिस्टम भारत ने विकसित नहीं किया। भारत के पूंजीपतियों में आज भी नयी तकनीकी और नयी दुनिया की समझ आना बाकी है। और जब तक ये समझ नहीं आ जाती तब तक आत्मनिर्भरता का हर नारा अधूरा ही रह जाने वाला है।