हिंदी दिवस विशेष : दो धड़ों में बंटा हिंदुस्तान- एक भारत और दूसरा इंडिया


अंग्रेजी भाषा एक विकल्प के तौर पर नहीं, बल्कि आवश्यक रूप से आना विवशता बनती जा रही है।


शिवा श्रीवास्तव
मत-विमत Updated On :

भारत, जहां व्याकरण अशुद्धि के साथ ही सही, लेकिन लोग हिन्दी बोलते है, दूसरा इंडिया, जहां लोग हिन्दी को पहचानने से इनकार करते है। इनके समूह और समाजो मे हिन्दी का बोलना जैसे किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों की शक्ल दिखने जैसा होता है।

एक ओर जहां ‘राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, भोपाल’ हिन्दी में अभियांत्रिकी (इंजिनीयरींग ) पाठ्यक्रम की पहल कर चुका है (इंजीनियरिंग को सदियों से अंग्रेजी माध्यम का सशक्त पक्ष माना जाता रहा है), वहीं दूसरी ओर अब भी बच्चे के प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश के समय, बच्चे के साथ साथ माता पिता का अंग्रेजी भाषा मे कौशल परीक्षण निरंतर जारी है। इसे क्या माना जाए?

यदि आप अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं, तो संभव है कि, आपके बच्चे को अच्छे विद्यालय में प्रवेश ही न मिले। जैसे तैसे प्रवेश मिल भी गया तो, वहाँ के अंग्रेजीयत भरे माहौल में बच्चा अपने आप को कितना सहज महसूस करेगा? इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। अंग्रेजी भाषा एक विकल्प के तौर पर नहीं, बल्कि आवश्यक रूप से आना विवशता बनती जा रही है।

जिसमें कुशल न होने पर एक अलग ही तरह की कुंठा जन्म ले रही है। हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़वाना चाह रहा है। और खुद अंग्रेजी सीखने के लिए तमाम तरह की कोशिशें कर रहा है । इसलिए जगह जगह अंग्रेजी सीखो के बोर्ड लगे मिल जाते हैं। ९० घंटे में फर्राटेदार अंग्रेजी सीखिए, अंग्रेजी स्पोकेन क्लास, पर्सनैलिटी ग्रूमिंग क्लासेस, इत्यादि।

शायद यही कारण है, कि घरों से भी हिन्दी धीरे धीरे विदा लेती नजर आ रही है। करीब दो साल पहले एक रिश्तेदार के घर जाना हुआ था। उनके बच्चे बहुत छोटे थे, करीब ३ और ५ साल के । उनसे मेलजोल और प्रेम के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ा। मेरा हिन्दी बोलना उन बच्चों के लिए एकदम अजनबी व्यवहार था। घर में उनके माता पिता उनसे, बाहरी प्रतिस्पर्धा को ध्यान रखते हुए हिन्दी मे बात नही करते। यहाँ तक की उन बच्चों को संभालने वाले सहायक भी उनसे अंग्रेजी में ही बात कर सकते थे। और ये एक घर का नहीं, बल्कि कई शहरों का संस्कार बन चुका है।

बच्चे का हिन्दी न समझ पाना इन दिनों बड़े गर्व की बात हो गई है। माता पिता इस बात से ही बलिहारी हुए जा रहे है कि उनके बच्चे, हिन्दी न लिख सकते है, न बोल सकते है। पाठशाला में दिया जाने वाला हिन्दी का गृह कार्य भी माता पिता ही पूरा कर रहे हैं। उनतालीस, उननहचास, उनसठ, उनहत्तर, इक्यासी, पच्चासी तो शायद उन्होंने सुने भी नहीं है।

क्या वाकई हिन्दी आना, बोलना, लिखना, पिछड़ेपन की निशानी है ? अखबार, न्यूज चैनल, टीवी पर सीरीअल, फिल्में, साहित्य, घरों में बोली जाने वाली भाषा, को अगर देखा जाए तो सबसे अधिक हिन्दी का ही प्रतिशत है। तब फिर हिन्दी की ऐसी दुर्दशा का क्या कारण है?

हमारे संविधान में भी २८ भाषाओं को मान्यता प्राप्त है, जिसमे हिन्दी एकभाषा है। गांधी जी ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने पर बहुत जोर दिया। वे कहते थे कि पूरे देश की एक भाषा होनी चाहिए और हिन्दी को इसलिए राष्ट्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए, क्योंकि यहाँ सबसे अधिक बोलने और समझने वाले हिन्दी भाषी ही हैं।

सरकारी, गैर सरकारी दफ्तरों, महकमों में हिन्दी पखवाड़े मनाए जाते है, हिन्दी की उपयोगिता पर निबंध प्रतियोगिता, कविता, कहानी पाठ, आदि का आयोजन होता है, हिन्दी की दुर्दशा पर बहुत कुछ कहा सुना जाता है, और इस सब पर काफी धनराशि भी खर्च की जाती है। पर सप्ताह बीतते बीतते हिन्दी मे बोलने और सुनने का ग्राफ घटता चला जाता है। सप्ताह और पखवाड़े में सिमटती हिन्दी चिंता का विषय है।

भला हो मोबाईल और लैपटॉप बनाने वाली कंपनियों और गूगल का जिन्होंने अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओ को जगह दी है। (हिन्दी भी उनमें एक है) अन्यथा इस युग में हिन्दी किसी विलुप्त नदी सी हो गई होती।

अभिव्यक्ति के लिए वो भाषा होना आवश्यक है , जिसमे हम महसूस करते है, सोचते है और जीते है। कुछ लोगों का तर्क ये भी है, की हर दस किलोमीटर पर हिन्दी का स्वरूप बदल जाता है, फिर कौन सी हिन्दी को सही माना जाए? अंग्रेजी एक जैसी होती है, इसलिए उसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है।

तब ये कहना आवश्यक होगा- कि उसके बदलते स्वरूप ही, क्षेत्रवार उसकी पहचान है, जिसकी तकनीकी अशुद्धियों को सुधारा जा सकता है, और राष्ट्रीय स्तर पर लाया जा सकता है । स्वतंत्रता की अनुभूति लिए हिन्दी एक श्रेष्ठ भाषा है, इसे राष्ट्र भाषा बनाना चाहिए।