
कोरोना की मार के साथ ही भारत और चीन के सम्बंध भी तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। नेपाल की आड़ लेकर जिस तरह चीन भारत के साथ सीमा विवाद को खड़ा करने की तैयारी कर रहा है उससे यह साफ़ जाहिर है कि चीन भारत का मित्र राष्ट्र नहीं हो सकता। मित्र राष्ट्र होना तो दूर की बात है, भरता- चीन सीमा को लेकर पनपे ताजा विवाद और तनाव का एक अर्थ यह भी निकलता है कि चीन दोस्त बना कर दोस्त की पीठ में छूरा भोंकने से कभी बाज नहीं आएगा, इसी चीन ने साथ के दशक में हिंदी -चीनी भाई – भाई का नारा लगा कर 19 62 में भारत को युद्ध की आग में झोंका था।
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु चीन की इस कथित और दुर्भावनापूर्ण दोस्ती के झांसे में आ गए थे जिसके चलते भारत को चीन के साथ हुए युद्ध में काफी नुक्सान उठाना पड़ा था। इस युद्ध के ठीक छह दशक बाद चीन ने एक बार फिर भारत को घुडकी दिखानी शुरू की है। भारत के मौजूदा प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ दोस्ती के लम्बे- चौड़े वादे करने के बावजूद आज जिस तरह चीन भरता के खिलाफ सीमा विवाद को तूल देने की कोशिश कर रहा है उससे यह साफ़ जाहिर होता है कि चीन की दोस्ती में ही खोट है। मौजूदा सन्दर्भ में एक बात बहुत भरोसे और विशवास के साथ कही जा सकती है कि चीन आज के भारत को समझने में गलती कर रहा है।
पूरी दुनिया जानती है कि जब 1962 में दोस्ती का हाथ बढ़ाने के नाम पर भारत पर हमला किया था तब भारत सामरिक रूप से इतना समृद्ध और संपन्न नहीं था और फिर तब भारत को आजाद हुए भी 15 साल ही हुए थे। एक नया देश जब अपने निर्माण की गतिविधियों में व्यस्त था तब उसे युद्ध का सामना करना पड़े तो मनचाही सफलता भी नहीं मिल पाती है। ऐसा ही तब भारत के साथ भी हुआ और चीन के साथ युद्ध में भारत को सफलता नहीं मिल सकी थी। इसी गम में दो साल बाद देश के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित नेहरु का भी निधन हो गया था। 27 मई 1964 का ही वो दिन था जब नेहरु की मृत्यु हुई थी।
हैरान करने वाली बात है कि चीन ने भारत के साथ ताजा सीमा विवाद के लिए भी पंडित नेहरु की मृत्यु के आसपास का ही समय चुना। गौरतलब है कि 25 मई के आसपास ही चीन सीमा पर ताजा विवाद का सिलसिला शुरू हुआ है। पर इस बार भारत 1962 के मुकाबले काफी मजबूत स्थिति में है और चीन की हर गतिविधि का उसकी ही भाषा में मुंह तोड़ जबाब देने के लिए आज का भारत पूरी तरह तैयार है। चिंता चीन को माकूल जवाब देने की बिलकुल नहीं है आज की सबसे बड़ी चिंता यही है कि एक तरफ भारत कोरोना के संक्रमण से मंदी तरफ दौड़ती अपनी अर्थव्यवस्था को नए सिरे से पटरी पर लानी की कवायद में जुटा है, दूसरी तरफ अगर उसे इस तरह के सीमा विवाद में उलझना पड़ेगा तो इससे अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के तमाम प्रयास पिछड़ जायेंगे इसलिए भारत की भी यही कोशिश होगी कि किसी तरह सीमा विवाद की युद्ध् गामी गतिविधियों से फिलहाल बचा ही जाए तो बेहतर होगा।
गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चल रहे तनाव को कम करने के लिए कमांडर स्तर पर छह दौर की वार्ता विफल होने के बाद अब भारत भी इस बार चीन को उसी की भाषा में जवाब देने और आर-पार के मूड में है। मौजूदा हालात को लेकर तीनों सेनाओं ने तैयारियों का ब्लूप्रिंट भी प्रधानमंत्री को सौंपा है। उच्च-स्तरीय भारतीय और चीनी सैन्य कमांडरों के बीच 22 मई और 23 मई को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पूर्वी लद्दाख में मौजूदा समस्या का समाधान निकालने की कोशिश की गई लेकिन वार्ता बेनतीजा रही।
इसके बाद भी कमांडर स्तर की चार बार बातचीत हुई लेकिन भारत और चीन के अपने-अपने हितों पर अड़े रहने से समस्या जस की तस बनी रही। छह बार कमांडर स्तर की वार्ता विफल होने के बाद रक्षामंत्री राजनाथ सिंह मंगलवार को चीफ आर्मी ऑफ स्टाफ (सीडीएस), तीनों सेनाओं के प्रमुखों के साथ बैठे और विचार मंथन करके फैसला लिया गया कि भारत की सीमाओं की पवित्रता बनाए रखने के संबंध में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। भारत शांति में विश्वास करता है और अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए दृढ़ है। यहां तक कि भारतीय रक्षा मंत्री ने आदेश दिया कि भारतीय सेना एक इंच भी पीछे नहीं हटेगी बल्कि और ज्यादा अलर्ट मोड में होना चाहिए।
भारत ने लद्दाख में एयरफोर्स का मूवमेंट भी बढ़ाने का फैसला लिया है। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एलएसी भारतीय सैनिकों की तैनाती के बारे में जानकारी ली और चीनी तनाव के मद्देनजर भारतीय सेना को पूरा सहयोग करने का आश्वासन दिया। दरअसल लद्दाख में स्थिति ‘संवेदनशील’ नहीं ‘खतरनाक’ है। भारत की रणनीतिक पोस्ट एलएसी के बहुत करीब है, जहां भारत ने हाल ही में 6000 सैनिकों को तैनात किया है। इसके अलावा अन्य बेस कैंपों में भारी संख्या में भी सैनिक मौजूद हैं।
इसके बाद मंगलवार को ही देर रात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत और चीन के बीच लद्दाख में सीमा विवाद को लेकर चल रही तनातनी पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल विपिन रावत, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह औऱ तीनों सेनाओं के प्रमुखों के साथ बैठक की। तीनों सेनाओं की तरफ से लद्दाख में चीन के साथ बने हालात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विस्तृत रिपोर्ट दी गई।
प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर विदेश सचिव हर्षवर्धन शिंगला से भी बातचीत की। सशस्त्र बलों ने चीन सीमा पर स्थिति से निपटने के लिए सैन्य विकल्पों पर भी शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को जानकारी दी है। साथ ही सेनाओं की तैयारियों का खाका पेश किया। इधर जब नई दिल्ली में सुरक्षा बैठक चल रही थी तो दूसरी ओर चीनी राष्ट्रपति ने अपनी सेना को अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए हर स्थिति के लिए तैयार रहने को कहा। साथ ही चीनी सैनिकों को एक ऑपरेशन के लिए तैयार रहने के आदेश दिए हैं।
भारतीय सेना का कहना है कि हम एलएसी के साथ भारतीय क्षेत्र में बुनियादी ढांचे और सड़क निर्माण का कार्य जारी रखेंगे। चीनी आपत्तियों के बावजूद हमने पहले भी एलएसी के साथ कई पोस्ट स्थापित की थी और सड़क सीमा संगठन (बीआरओ) ने 73 रणनीतिक सड़कों में से 61 सड़कों का निर्माण किया था। दूसरी तरफ 8 मई को कैलाश मानसरोवर मार्ग को 17,060 फीट की ऊंचाई पर लिपुलेख दर्रे से जोड़े जाने पर नेपाल ने विरोध करना शुरू कर दिया।
यहां तक कि राजनीतिक नक्शा जारी करके लिपुलेख और काला पानी पर अपना दावा पेश किया। इसी के बाद सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने 15 मई को जब यह कहा कि इसके पीछे ‘किसी और का हाथ’ है, तभी से नेपाल ने और ज्यादा भड़का हुआ है। हालांकि भारत में नेपाल के राजदूत ने पिछले महीने की शुरुआत में एक जरूरी बैठक के लिए विदेश मंत्रालय को एक अनुरोध प्रस्तुत किया था लेकिन आर्मी चीफ के बयान के बाद 21 मई को फिर बैठक के लिए अनुरोध किया लेकिन नेपाली दूत को अभी तक बैठक की कोई तारीख नहीं दी गई है।
चीन भरोसे लायक देश नहीं है यह बात समय- समय पर हमारे देश के कई नेताओं ने कही है। अटल विहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री और दिवंगत समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था। उन्होंने यह बात तब कही थी जब मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने पोखरन टू परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमेरिका ने भारत को ब्लैक लिस्ट में डाल दिया था। उस विस्फोट के बाद अगर रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस ने ऐसा कोई चौकाने वाला बयान दिया था तो उसे सामरिक दृष्टि महत्वपूर्ण समझ जाना चाहिए था क्योंकि रक्षा मंत्री के नाते दिया गया उनका यह बयान निश्चित ही किन्हीं ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा। लेकिन उनका यह बयान भी पार्टियों में बंटी देश की राजनीती का शिकार होकर रह गया था।
आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे तो रक्षा मंत्री के इस बयान का विरोध करना ही था, इस बाबत एक दिलचस्प बात यह भी थी कि तब इस मसले पर वाजपेयी सरकार की नीतिगत आधार प्रदान करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और संघ के धुर राजनीतिक प्रतिद्वंदी वामपंथी इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रहे थे, उस समय का राजनीतिक माहौल कुछ- कुछ वैसा ही लगने लगा था जिस तरह इन्हीं दो परस्पर विरोधी विचार धाराओं ने अलग-अलग कारणों से 1942 में ‘भारत छोडो’ आंदोलन का विरोध किया था। समाजवादी विचारधारा से सम्बन्ध रखने वाले एक और नेता मुलायम सिंह यादव ने भी चीन को लेकर देश को आगाह किया था।
2017 में चीन की सेना जब डोकलाम में कई किलोमीटर अंदर तक घुस आई थी, तब संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी अपने पुराने अनुभव के आधार पर चीनी खतरे के प्रति सरकार को आगाह किया था। इस मसले पर लोकसभा में बहस के दौरान मुलायम सिंह ने दो टूक कहा था कि भारत की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा चीन से ही है और सरकार उसे हल्के में न लें। दरअसल, देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राममनोहर लोहिया ने तब दे दी थी जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया था। तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने ‘शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाऊ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक रिश्ते अच्छे रहे।
दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे के यहां की कई यात्राएं कीं। लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए। तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ तिब्बत से मिलती थीं। लेकिन चीन द्बारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने लगी उन्हीं दिनों चीन द्बारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा। उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था।
चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एन-लाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए शांति के कबूतर उडा चुके थे, लिहाजा भावुक भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा। मगर, 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भावुक सपनों के ध्वस्त होने का रहा, जब चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया। हमारी सेना के पास सैन्य साजो-सामान का अभाव था, लिहाजा भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा और चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली। इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई।