सांप्रदायिक सर्वसम्मति की ओर भारतीय राजनीति!

ओवैसी राजनीति में अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की एक अलग पट्टी तैयार करने की कोशिश में लगे हैं। अल्पसंख्यक राजनीति का यह ढब नरम इस्लामत्व का आधार लेकर चलेगा अथवा कट्टर इस्लामत्व का, या दोनों का मिश्रण तैयार करेगा-आगे देखने की बात होगी।

धर्मनिरपेक्ष खेमे के विद्वान आरएसएस/भाजपा के कट्टर हिंदुत्व का प्रत्यक्ष विरोध करते समय अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के नरम हिंदुत्व का उल्लेख इस तरह करते हैं मानो राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए नरम हिंदुत्व का इस्तेमाल संविधान-सम्मत धर्मनिरपेक्ष व्यवहार हो। इस प्रवृत्ति के तहत वे विभिन्न चुनावों में बिना दुविधा के उस नरम हिंदुत्ववादी राजनीतिक दल/नेता पर अपना दांव लगते हैं जो उनकी नजर में कट्टर हिंदुत्ववादी आरएसएस/भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकता है। भले ही वह दल/नेता भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हो।

उनके इस राजनीतिक व्यवहार के दो नतीजे सामने आते हैं: पहला यह कि धर्मनिरपेक्ष दलों को नरम हिंदुत्ववाद करने अथवा भाजपनीत गठबंधन में शामिल रहने का प्रमाणपत्र मिल जाता है; वे हिंदुत्ववाद करते हुए भी संविधानवादी बने रह सकते हैं; बिना किसी हिचक के आरएसएस/भाजपा की बुरी नजर से संविधान को बचाने की दुहाई दे सकते हैं। दूसरा यह कि आरएसएस की राजनीतिक भुजा भाजपा की राजनीतिक ताकत बढ़ती जाती है और उसकी विचारधारा पूरे देश में फैलती जाती है; उसका लक्ष्य कि भारत की राजनीति संविधान-केंद्रित न रह कर हिंदू धर्म-केंद्रित हो जाए, आसानी से फलीभूत होता जाता है।

कहना न होगा कि चुनावों और सत्ता-प्राप्ति के बाद सरकारों के संचालन के लिए जितना संविधान चाहिए, उतना भाजपा को भी मंजूर है। वह आगे भी रहेगा। दुनिया के अन्य धर्म-आधारित (ईश्वरीय) राज्यों (थियोक्रेटिक स्टेट्स) में भी संविधान होते हैं, जिनमें लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की कुछ न कुछ व्यवस्था होती है।

नरम हिंदुत्ववादी दल/नेता अपनी राजनीति करते हुए यह दावा करते हैं कि हिंदू धर्म का पेटेंट अकेले आरएसएस/भाजपा के पास नहीं है। आरएसएस/भाजपा को उनके ऐसे दावे पर ऐतराज नहीं होता। क्योंकि नरम हिंदुत्ववादी यह कहते हुए उसके लक्ष्य की प्राप्ति में ही सहायता करते हैं। हिंदू धर्म पर अपना भी अधिकार जताते हुए नरम हिंदुत्ववादी जनता के सामने जब यह दलील देते हैं कि आरएसएस/भाजपा की बुरी हिंदू धार्मिकता के बरक्स वे अच्छी हिंदू धार्मिकता के ‘पुजारी’ हैं, तब भी फायदा आरएसएस/भाजपा की विचारधारा को होता है।

ध्यान दिया जा सकता है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के उदय के पहले तक आरएसएस/भाजपा भी ज्यादातर नरम हिंदुत्व की राजनीति तक सीमित रहते थे। अटलबिहारी वाजपेयी ने भाजपा के गठन के बाद दिसंबर 1980 में बंबई में आयोजित पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ गांधीवादी समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति नई पार्टी की निष्ठा का जोरदार बखान किया था।

देश का प्रधानमंत्री बनने की तलाश में वाजपेयी हरा साफा पहन कर मुस्लिम सभाओं में जाते थे। भले ही मुसलमानों को धमकाते भी थे कि भाजपा उनके समर्थन के बिना भी सत्ता में आ सकती है। उनकी इस धमकी को नरेंद्र मोदी ने पहले गुजरात में, और फिर तीन बार केंद्र में सच साबित करके दिखाया।

नरम हिंदुत्ववादी पार्टियों का हिंदुत्ववाद के मोर्चे पर आपस में झगड़ा रहता है। वे सभी बहुसंख्यक हिंदुओं को आरएसएस/भाजपा के पाले से अपनी तरफ फोड़ने की कोशिशें करती हैं। ऐसा करते हुए वे आरएसएस/भाजपा की पिच पर विचित्र (बिज़ार) अंदाज में खेलती हैं। उनके नेता खुद को एक-दूसरे से बढ़ा-चढ़ा हिंदू जताने की कोशिश करते हैं। अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलमानों को ज्यादातर भाजपेतर पार्टियां और नेता अपनी खेती मानते हैं। इस खेती में उनके लिए वोटों की फसल लहलहाती है, जिसे काटने की उनमें गला-काट प्रतिस्पर्धा होती है। कहने की जरूरत नहीं कि यह सब करते हुए दुहाई धर्मनिरपेक्ष संविधान को बचाने की दी जाती है।

मजेदारी यह है कि अल्पसंख्यक वोटों की फसल खुद उनके हाथों लुटने को आतुर रहती है। इसी बिंदु पर धर्मनिरपेक्ष विद्वानों का निर्देशन आता है कि संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता को बचाने का भार अल्पसंख्यकों के कंधों पर है, और उन्हें किस भाजपेतर दल/नेता को वोट देना है। संविधान के नाम पर फरेब देने की इस कला का नेताओं और विद्वानों को चोखा फायदा होता है। लेकिन यह फरेब खाते जाने की आदत अल्पसंख्यकों को क्या देती है, एक जटिल सवाल है।

ताजा उदाहरण दिल्ली विधानसभा चुनाव (5 फरवरी 2025) का लिया जा सकता है। इस चुनाव में वाम मोर्चे ने पांच उम्मीदवार खड़े किए। लेकिन अल्पसंख्यक मुसलमानों में उनकी कोई चर्चा नजर नहीं आई। न ही ऐसा देखने को मिला कि मुख्यधारा राजनीति के बाहर की किसी छोटी पार्टी के उम्मीदवार अथवा किसी आजाद उम्मीदवार में उन्होंने रुचि दिखाई हो। भले ही वे सचमुच संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने वाले हों।

शुरुआत में कांग्रेस को लेकर जरूर कुछ दुविधा रही। लेकिन वे जल्दी ही उस दुविधा से मुक्त होकर ‘हनुमान-भक्त’ केजरीवाल के पीछे एकजुट हो गए। अलबत्ता, दो मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्रों में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों को लेकर मुस्लिम मतदाता सचमुच दुविधा का शिकार हुए।

ओवैसी राजनीति में अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की एक अलग पट्टी तैयार करने की कोशिश में लगे हैं। अल्पसंख्यक राजनीति का यह ढब नरम इस्लामत्व का आधार लेकर चलेगा अथवा कट्टर इस्लामत्व का, या दोनों का मिश्रण तैयार करेगा-आगे देखने की बात होगी। इस पट्टी पर आगे और कई ओवैसी खड़े हो सकते हैं। उनमें प्रतिस्पर्धा भी होगी। लेकिन वह सब सांप्रदायिक राजनीति के विस्तार की संगति में ही होगा। मैं कहना यह चाहता हूं कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को अपने पक्ष में पोषित करती चलती है। नरम हिंदुत्व की राजनीति बहुसंख्यकवाद की राजनीति, जिसके लिए आरएसएस/भाजपा को कोसा जाता है, का ही अभिन्न अंग है। राजनीति में कट्टर और नरम हिंदुत्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जिस तरह भारत में राजनीतिक और बौद्धिक अभिजन में नवउदारवाद पर लगभग सर्वसम्मति कायम हो चुकी है, सांप्रदायिकता पर भी कमोबेश वैसी ही सर्वसम्मति बन चुकी है। नवउदारवादी सर्वसम्मति संविधान के समाजवादी मूल्य के खिलाफ है, और सांप्रदायिक सर्वसम्मति संविधान के धर्मनिरपेक्षतवादी मूल्य के खिलाफ। इसे आरएसएस/भाजपा की बड़ी सफलता कहा जाएगा कि उन्होंने भारतीय गणतंत्र के साथ भारतीय समाज को भी सांप्रदायिक मोड़ में डाल दिया है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका भी सांप्रदायिकता की चपेट में हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। मीडिया से जिस तरह समता के संवैधानिक मूल्य की वकालत की जगह लगभग समाप्त हो चुकी है, उसी तरह धर्मनिरपेक्षता के मूल्य की जगह भी समाप्त होती जा रही है।

दरअसल, कट्टर हिंदुत्व और नरम हिंदुत्व पदों का प्रयोग भ्रामक (डिसेप्टिव) है, जो बंद होना चाहिए। राजनीतिक दलों/नेताओं के इस तरह के राजनीतिक व्यवहार को संबोधित करने लिए सीधे कट्टर सांप्रदायिकता और नरम साम्प्रदायिकता पदों का प्रयोग किया जाना बेहतर होगा। ताकि नई पीढ़ियां भ्रम के पर्दे को हटा कर यह जान लें कि देश में सांप्रदायिक राजनीति पर लगभग सर्वसम्मति है, और ज्यादातर धर्मनिरपेक्षता के दावेदार नेता और विद्वान सांप्रदायिक राजनीति के सहयात्री हैं।

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)

First Published on: February 4, 2025 4:36 PM
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