आदिवासी समुदाय की स्त्रियों की स्थिति को समझने के लिए उस समाज के अर्थशास्त्र को समझना आवश्यक है। भारत में लगभग हर आदिवासी समुदाय की अपनी संस्कृति, भाषा, इतिहास और सामाजिक-व्यवस्थाएं होती हैं। औपनिवेशिक शासन के दौरान लगभग सभी आदिवासी समुदाय दमन और शोषण के शिकार हुए हैं।
जो प्रक्रिया आज भी जारी है, जिससे उन समाजों में विस्थापन एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में विद्यमान है। इस समस्या से पूरा आदिवासी समाज जूझ रहा है। समूची अर्थव्यवस्था में इस समाज की महिलाओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान और भूमिका रही है। अलग-अलग तरह की समस्याओं की वजह से इस समाज की पारंपरिक व्यवस्था ध्वस्त तो हो ही रही है लेकिन इसका असर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं और उनके अधिकार पर पड़ रहा है। ये महिलाएं अपने पारंपरिक उत्पादन के साधनों से वंचित होती जा रही हैं।
विकास के नाम पर या रोजगार के लिए अब उन्हें भी अकेले या फिर परिवार के सदस्यों के साथ प्रवासन का सहारा लेना पड़ रहा है और जमींदारों के घरों, खेतों, बागानों में या फिर फैक्ट्रियों में मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यहाँ पर न तो काम के घंटे निर्धारित होते हैं और न ही अनुकूल वातावरण और वेतन की तो बात ही नहीं की जा सकती है।
आदिवासी समुदायों के बीच प्रवासन हमेशा परिस्थितिजन्य रही है। आदिवासियों के प्रवासन को दो तरीकों से समझा जा सकता है। सामान्य शब्दों में कहें तो पहला विकर्षण से उत्पन्न प्रवासन और दूसरा आकर्षण से उत्पन्न प्रवासन। पहली श्रेणी के प्रवासन के सामाजिक-आर्थिक कारक हैं जिनमें गरीबी, भुखमरी, बीमारी, प्राकृतिक आपदाएं आदि हैं और दूसरी श्रेणी में वे कारक आते हैं जिनमें व्यक्ति रोजगार, बेहतर आय, स्तरीय जीवन-यापन आदि की तलाश में प्रवास करता है।
आदिवासी समाजों में प्रवासन इन दोनों ही कारकों का परिणाम हैं और काफी संख्या में आदिवासियों का प्रवासन शहरी, नगरीय और सुदूर स्थानों पर हुआ। तीसरा एक और सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारक है, राजनीतिक कारक। ऊपर के अन्य दो कारकों को तो मौजूदा समय में उनके विकास पक्ष को ध्यान में रखते हुए जायज ठहरा सकते हैं लेकिन यह तीसरा कारक न तो आकर्षण से उत्पन्न होता है और न ही विकर्षण से। यह प्रायोजित कारक है जिसमें ऐसी स्थितियां पैदा की जाती हैं जिससे आदिवासी समाजों को प्रवासन के लिए मजबूर होना पड़ता है।
वर्तमान में आदिवासी समुदाय को उनके जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करके मजदूर की श्रेणी में तो ला दिया गया है। पर, उदारीकरण के इस दौर में इन मजदूरों के हितों खासकर आदिवासी महिला मजदूर के हितों की सुरक्षा के लिए कोई विशेष प्रावधान बनाने पर ध्यान तो नहीं ही दिया जा रहा है, जहां तक हो सके उसे समाप्त करने का ही प्रयास किया जा रहा है।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मध्य प्रदेश और झारखंड से जीवनयापन की तलाश में भारी संख्या में प्रवासन हुआ। 1950 और 1980 के बीच जनजातियों का प्रवासन बिहार और पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में हुआ। लेकिन 1980 के बाद वे दिल्ली, मुंबई और कलकत्ता जैसे बड़े शहरों की तरफ रुख करने लगे।
हाल के वर्षों में जनजातियों के प्रवासन में एक नया दृश्य जो उभरा वह यह कि भारी संख्या में केवल महिलाएं ही प्रवासित होने लगीं हैं जबकि पहले जनजातीय इलाकों से केवल पुरुष ही रोजगार की तलाश में शहर जाते थे। जनजातीय परिवारों में बढ़ती गरीबी ने अविवाहित लड़कियों का और महिलाओं को काम की तलाश में शहरों की तरफ भागना शुरू किया है। यह महिलाएं अपने मालिकों के उत्पीड़न का शिकार तो हैं ही साथ ही अन्य असामाजिक तत्वों के उत्पीड़न और शोषण का अलग-अलग तरीकों से भी शिकार हो रही हैं।
2008 के एक अध्ययन के अनुसार प्रतिवर्ष तीस हजार मजदूर बोलांगीर जिले से पश्चिमी उड़ीसा के क्षेत्रों में प्रवासित हो रहे हैं। इसी प्रकार मध्य प्रदेश के जंगली और सुदूरवर्ती इलाकों से भी प्रवासित होने वाले लोगों की संख्या भी लगभग ऐसी ही है। दक्षिणी मध्य प्रदेश के जनजातीय जिलों के लगभग 65 प्रतिशत परिवार प्रवासित हो चुके हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार झारखंड के कुछ गांवों के अध्ययन में ऐसा पाया गया कि उनमें रहने वाले एक तिहाई परिवारों में से कम से कम एक सदस्य प्रवासन कर चुका है।
भारत में मध्यप्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां अन्य राज्यों की तुलना में जनजातियों की जनसंख्या अधिक है। इसके दक्षिणी जिलों से होने वाले प्रवासन पर ही यहां के निवासियों का जीवन-यापन टिका हुआ है। यहां के लोग अपने पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र और गुजरात जाते हैं। 2005 तक इस क्षेत्र से स्थानीय एजेंट द्वारा भारी संख्या में इनकी भर्ती मजदूरों के रूप में की गई। इस प्रक्रिया को ‘मुक्कद्दम’ कहा जाता है। प्रवासी जनजातियों को फैक्ट्री-मजदूर, पोर्टर, घरेलू नौकर, सफाईकर्मी अदि के रूप में रखा गया है।
प्रवासी मजदूरों को ऐसे काम दिए जाते हैं जो दूसरे अन्य मजदूर नहीं कर सकते या नहीं करना चाहते। (जैसे- गंदे, खतरे वाले काम आदि)। इस तरह के कामों के लिए मजदूरी भी कम दी जाती है और इसमें असुरक्षा भी काफी होती है लेकिन इस तरह के कामों को करने के लिए वह इस लिए तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन्हें अपनी की अपेक्षा ज्यादा मजदूरी मिल जाती है।
हाल के वर्षों में किए गए अध्ययनों में यह देखा गया है कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल की शिक्षित,अशिक्षित और निरक्षर आदिवासी महिलाएं बड़ी संख्या में देश के विभिन्न भागों और दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में संगठित, असंगठित और घरेलू नौकरानी के रूप में अच्छे रोजगार और जीवन-यापन की तलाश में प्रवासित हुई हैं।
वे प्रायः शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताडि़त हो रही हैं। इन महिलाओं की औसत उम्र 30 वर्ष है और दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में प्रवासित आदिवासी महिलाओं में आधी से ज्यादा महिलाओं की औसत उम्र 25 वर्ष जिनमें से एक तिहाई अविवाहित हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं ऐसी हैं जिनका घर से निकलने के बाद दुबारा घर से संपर्क ही टूट गया। ऐसी महिलाओं को देह व्यापार में धकेल दिया गया या फिर बेच दिया गया।
छत्तीसगढ़ और झारखंड की महिलाओं को अपेक्षाकृत कम वेतन दिया जाता है। साथ ही मालिकों और ठेकेदारों द्वारा शारीरिक दंड भी दिया जाता है। मानसिक और यौन उत्पीड़न भी साथ-साथ चलता रहता है। इन मामलों में सबसे ज्यादा उत्पीड़न बिचैलियों द्वारा किया गया है। यह कितना हास्यास्पद है कि इन स्थितियों के बावजूद मात्र 150 परिवारों पर किए गए इस अध्ययन के सरकारी आंकड़े यह दावा करते हैं कि आदिवासी महिलाओं के प्रवासन से उनके परिवारों की स्थितियों में हर तरह का सुधार हुआ है और आदिवासियों का प्रवासन उनका सुखद और सुरक्षित भविष्य निर्मित करने में कारगर हो रहा है।
जबकि उन्हीं का एक आंकड़ा यह भी कहता है कि उनकी आय की प्रतिशतता में तो वृद्धि हुई है लेकिन उनकी स्वास्थ्य, सफाई, संतुलित आहार, शिक्षा आदि के बारे में जागरूकता में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है और साथ ही यह भी कहता है कि उनकी संस्कृति, उनकी परंपरा, भाषा, व्यवहार और अन्य पारंपरिक चीजों के मामलों में संकटग्रस्तता बढ़ी है।