आरक्षण में महादलितों को उनका हिस्सा देने की पहल

मुझे याद है जब मैं कॉलेज-यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, लोहिया के समाजवाद में दीक्षा ले रहा था और दलित-आदिवासी आरक्षण का समर्थक था, तब तक मंडल कमीशन लागू नहीं हुआ था और मेरे स्वजातीय लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता था।

दृष्टिकोण बहुत गहरा शब्द है। चूंकि यह हमें याद दिलाता है कि हमारी दृष्टि हमेशा किसी कोण में टिकी है। हम दुनिया में जो कुछ देखते हैं, किसी कोने में बैठकर, दुबककर या सिमटकर देखते हैं। अक्सर यह कोना हम चुनते नहीं हैं। अमूमन हमारे जन्म का संयोग हमें किसी कोने में बैठा देता है। बाकी जीवन हम उसी कोण से जो कुछ दिखता है, उसे अपना मत, अपनी विचारधारा या अपने दर्शन की तरह पेश करते रहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी के लिए आरक्षण में अंदरूनी विभाजन को वैध करार देने के फैसले से उपजी बहस ने दृष्टिकोण के खेल की याद दिलाई है। मुझे याद है जब मैं कॉलेज-यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, लोहिया के समाजवाद में दीक्षा ले रहा था और दलित-आदिवासी आरक्षण का समर्थक था, तब तक मंडल कमीशन लागू नहीं हुआ था और मेरे स्वजातीय लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता था।

उन दिनों अपनी रिश्तेदारी व जान-पहचान के लोगों में आरक्षण की आलोचना सुनने को मिलती थी, उनसे बहस हो जाती थी। लेकिन मंडल कमीशन लागू होते ही आरक्षण के बारे में उनकी दृष्टि बदलने लगी। अब वे सामाजिक न्याय की बात करने लगे।

कभी-कभार फुले-आम्बेडकर का जिक्र भी आने लगा। अब शहरी और अपेक्षाकृत सम्पन्न यादव समाज के लोगों में मैं ‘क्रीमी लेयर’ का विरोध सुनता हूं तो सोचता हूं क्या उनकी दृष्टि का उस कोण से संबंध है, जहां जीवन उन्हें ले आया है?

आरक्षण में वर्गीकरण के मामले में दृष्टि के तीन अलग कोण हैं। पहला कोना तमाशबीनों का है। ‘ये उन लोगों का मामला है, मेरा इससे क्या लेना-देना?’ या फिर, ‘अब मजा आएगा, जब इनमें आपस में सर-फुटौव्वल होगी!’ या फिर ‘बहुत बनते थे ना सामाजिक न्याय के झंडाबरदार! अब मजा चखो, जब तुम्हारे ही लोग तुम से न्याय मांगेंगे।

यानी मियां की जूती मियां के सर!’ इस मुद्दे पर मीडिया की दृष्टि में अकसर यही कोण दिखाई देता है। या तो अज्ञान है या उदासीनता या दोनों ही। मानो मैतेई-कुकी विवाद पर चर्चा हो रही हो या यूक्रेन-रूस युद्ध पर। यह एक औपनिवेशिक दृष्टि है, जैसे मलिक अपने गुलामों के झगड़े को देखता है।

दूसरी दृष्टि दलित समाज के उस हिस्से की है, जिसे अब अगड़ा बताया जा रहा है और जिसे इस फैसले का पीड़ित बनाया जा रहा है। जाति-व्यवस्था और छुआछूत के दंश के शिकार इस दलित समाज का एक छोटा-सा तबका किसी तरह आरक्षण के सहारे खड़ा हुआ है।

आरक्षण के उसके अपने हिस्से में बंटवारे की बात सुनकर वह चिंतित है। उसकी चिंता बनी रहे, इसका इंतजाम करने के लिए नेता तैयार खड़े हैं। कोई उन्हें यह नहीं बता रहा कि आप का कोटा छीना नहीं जा रहा है, आपकी आबादी के अनुरूप ही आपका हिस्सा बना रहेगा।

जिन्हें अलग से टुकड़ा दिया जा रहा है, वो भी आपके ही लोग है, जाति-व्यवस्था के शिकार हैं, आपसे भी निचली पायदान पर खड़े हैं। कुछ सच्ची, कुछ झूठी चिंता को उछालकर यह प्रचार हो रहा है कि आरक्षण को खत्म करने की तैयारी है।

तीसरी दृष्टि उनकी है, जिनके लिए यह फैसला सुनाया गया था। दलितों के दलित या ‘महादलित’- यह वो समुदाय हैं, जो जाति-व्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर खड़े हैं। इन्हें वाल्मीकि, मजहबी, मांग, मुसहर, भुइयां, डोम, पासी, मादिगा, अरुन्धतियार, चकलियार जैसे नामों से या इनके नामों से जुड़े आक्षेपों से पुकारा जाता है।

अपने मन-मैल को ढंकने के लिए इस स्वच्छकार समाज को बाकी लोग तिरस्कारते रहे हैं। पिछले 75 साल में यह महादलित समाज आरक्षण का फायदा उठाने की स्थिति में ही नहीं रहा है। आरक्षण में वर्गीकरण का फैसला इस महादलित समुदाय को उसका हिस्सा देने की देरी से हुई एक छोटी-सी पहल है। लेकिन इस मुद्दे पर चल रही राष्ट्रीय बहस में उनकी आवाज गुम है। इस समाज के पास ना तो राष्ट्रीय नेता हैं, न अपने बुद्धिजीवी या प्रवक्ता, ना ही बड़े चेहरे। उनका दृष्टिकोण छिप जाता है।

मुझे पिछले 20 सालों से इस उपेक्षित कोने में घुसने और उसके दृष्टिकोण को समझने का अवसर मिला है। आदि धर्म समाज नामक अभियान के मुखिया दर्शन रत्न ‘रावण’ के सत्संग में मैंने उत्तर भारत के वाल्मीकि समाज की व्यथा-कथा सुनी है, इनके संघर्ष का साक्षी रहा हूं, उनकी नई पीढ़ी के सपनों की उड़ान का भागीदार भी।

इसलिए जब अदालत का फैसला आया तो मैंने अपनी दृष्टि को इस कोण से जोड़ दिया। यह जरूरी नहीं कि हमारा दृष्टिकोण हमारे जन्म के संयोग से बंधा हो। इसलिए इस सवाल पर बहस करने वाले सभी लोगों से मेरा सवाल है : आपका दृष्टिकोण क्या है?

स्वच्छकार समाज को बाकी लोग तिरस्कारते रहे हैं। पिछले 75 साल में यह महादलित समाज आरक्षण का फायदा उठाने की स्थिति में ही नहीं रहा। इसके पास ना तो राष्ट्रीय नेता हैं, न अपने बुद्धिजीवी या प्रवक्ता, ना ही बड़े चेहरे।

(योगेंद्र यादव सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)

First Published on: August 13, 2024 1:09 PM
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