प्रधानमंत्री ने बीते दिनों में लड़कियों के विवाह की उम्र को 18 से बढ़ाकर 21 साल करने के प्रस्ताव का ऐलान किया था। उन्होंने बताया था कि सरकार हमेशा से देश की बहन-बेटियों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रही है। खासकर, बेटियों को कुपोषण से बचाने के लिए उचित उम्र में विवाहकरना एक आवश्यक कदम होगा।
इस प्रस्ताव के हर पहलू पर विचार करने हेतु 2020 में जया जेटली के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स भी गठित कर दिया गया, जिसमें नीति आयोग के डा. वीके पॉल और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं शिक्षा मंत्रालयों के सचिव और विधायी विभाग भी शामिल थे। इस टास्क फोर्स का गठन मुख्य तौर पर मातृत्व की उम्र, मातृ मृत्यु दर, कुपोषण इत्यादि से संबन्धित मुद्दों पर विचार- विमर्श के लिए किया गया था।
इन सारे महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श के उपरांत इस टास्क फोर्स ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी और अब इस प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने भी अपनी मंजूरी दे दी। वैसे तो लैंगिक-समानता लाने के लिए यह फैसला एक ठोस कदम है पर, यह एक सवाल बार-बार सोचने पर मजबूर कर देती है कि3 वर्ष का समय मिल जाने भर से क्या कदम-कदम पर लड़कियों के साथ होनेवाले भेदभाव से भी मुक्ति मिल जाएगी ? जहां तक स्वास्थ्य का सवाल है तो इसका संबंध तो सीधा सामाजिक-संरचना से है।
पौष्टिक आहार और पोषण की बात की जाए तो आज भी मध्यवर्गीय परिवार में आमतौर पर,बचपन से ही रसोई बनाने की ज़िम्मेदारी तो लड़कियों को दी जाती है। लेकिन, भरपूर पोषण वाले सामग्री पर घर के पुरुषों का पहला अधिकार होता है। उनसे जो सामग्री बच जाती है घर की महिलाएं और लड़कियों उन्हें ग्रहण करती हैं। अब आधारभूत सवाल यह उठता है कि, जब शुरुआत से ही इस तरह की असमानता रहेगी तो विवाह की उम्र 18 हो या 21 बहुत ज्यादा फर्क पड़ने की तो संभावना नहीं समझ आती।
रही बात शिक्षा की तो या तो लड़कियों को पढ़ाई शुरू करने में ही बहुत मसक्कत करनी होती है, शुरू हो भी जाती है तो आरंभिक कुछ वर्षों के बाद रुक जाने का खतरा बना रहता है तो, इन तीन वर्षों में इन्हें शिक्षा का कितना अवसर मिल पाएगा इसमें भी संशय है? उसी तरह से जब विवाह की उम्र 18 थी तब भी लगातार बाल-विवाह हो रहे थे और लड़कियां कम उम्र में माँ बन रही थीं, राज्य के सभी तंत्र के तमाम प्रयासों के बाबजूद भी बाल-विवाह और मातृ-मृत्युदर को पूरी तरह से रोकने में सफल नहीं हो पा रहे थे। तो अब एक नए कानून के आ जाने से इस स्थिती पर कितना नियंत्रण हो पाएगा यह भी सोचने का विषय है?
यूनिसेफ के आंकड़े के अनुसार, दुनिया की हर तीन बाल-दुल्हन में से एक भारतीय है। एक और आंकड़े के अनुसार, पूरे विश्व में 21% लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की उम्र से पहले कर दी जाती है। सर्वेक्षण यह भी बताते हैं कि,बाल-विवाह का सामना करती अधिकांश: लड़कियां अशिक्षित और ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं। यूनिसेफ के अनुसार, बाल-विवाह का प्रचलन 32% ग्रामीण और 18% शहरी क्ष्रेत्रों में पाया गया है। 46% बाल-विवाह बेहद गरीब परिवारों में किए जाते हैं। यह भी सर्वविदित है कि भारत में सबसे अधिक बाल-विवाह के मामले बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य-प्रदेश,पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्यों में हैं। ‘नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो’ और ‘नेशनल सैंपल सर्वे’ की रिपोर्ट को देखने पर साफ होता है कि इन राज्यों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और महिला साक्षारता दर की स्थिति बेहद चिंताजनक है।
जाहिर सी बात है कि इस तरह के सामाजिक परिवेश और आर्थिक तंगी की वजह से कई बार कम उम्र में कम दहेज देकर या किसी पैसे वाले अधेड़ के साथ कम उम्र लड़की को सौंप कर बेमेल विवाह कर देना एक आसान रास्ता नज़र आता है। हो सकता है कि इस नए कानून के आने से कुछ लड़कियां बाल-विवाह से बच जाएँ लेकिन, ऐसे देश में जहां लड़कियों को आर्थिक बोझ और वंश बढ़ाने का जरीया मात्र माना जाता है वहाँ, इन मिले हुए तीन वर्षों से उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्णय लेने की छ्मता में कितना सुधार हो पाएगा यह संदेह का विषय है?
लैंगिक समानता के लिए सिर्फ, लड़कियों के विवाह के उम्र को बढ़ाने को लेकर की गई बात कहीं-न-कहीं यह दर्शाती है कि, आज जबकि हम इक्कीसवीं सदी में पहुँच चूकें हैं फिर भी, हमारे समाज में लड़कियों के आत्मनिर्भर होने से ज्यादा उनका विवाहित और अविवाहित होना मायने रखता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की उम्र से ज्यादा उसके शारीरिक विकास के आधार पर विवाह कर दिया जाता है। यह भी मान्यता है कि अगर लड़की की उम्र ज्यादा दिखने लगेगी तो फिर उसे ‘योग्य वर’ नहीं मिल पाएगा और विवाह के लिए दहेज की मांग भी बढ़ जाएगी।
इसलिए इन सब झंझटों से दूर रहने के लिए लोग लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने या आत्मनिर्भर बनाने के बजाए सीधा विवाह करना ही उचित समझते हैं। लड़की के पैदा होने के कुछ वर्ष बाद से ही उसकी विवाह की तैयारी अर्थात दहेज की रकम जुटाने में जुट जाते हैं। कहने के लिए तो दहेज के विरोध में भी बकायदा कानून बने हुए हैं पर इसकी सच्चाई से हम सब वाकिफ हैं। इसलिए नए कानून बनाने या सुधार करने के साथ-साथ मौजूद क़ानूनों को भी सक्रिय करना आवश्यक है ताकि वास्तविक अर्थों में हम विकास और समानता की राह पर चल पाएँ।
उदाहरण के लिए, यदि दहेज-निषेध कानून प्रभावी रूप से काम करने लगे तो स्वाभाविक रूप से लड़कियों के परिवार वालों की एक बहुत बड़ी चिंता दूर होगी और वह लड़कियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान देंगे। उसी तरह पैतृक-संपत्ति में भी बेटियों को व्यावहारिक रूप में भागीदार बनाया जाए तो बेटियों को बोझ और पराया धन मानने वाली मानसिकता में बदलाव आ सकता है। लड़कियां भी पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर होगी और घर-परिवार की ज़िम्मेदारी निभा पाएगी। उसका अपना बजूद होगा न कि सिर्फ किसी की बहन, बेटी, बहू और पत्नी होगी। सही और गलत का फैसला कर पाएगी, बाहरी दुनिया की उलझनों को वो खुद निपटेगी। पर, यह सब तभी संभव होगा जब किसी भी तरह का कानून सैद्धान्तिक और वास्तविक दोनों रूप में सक्रिय हो।
इसके बावजूद विवाह की उम्र में बढ़ोत्तरी का यह फैसला स्वागतयोग्य है। अब जरूरत इस बात कि है कि इस बदलाव को एक सकारात्मक अवसर के रूप में कैसे उपयोग में लाया जाए? जाहीर सी बात है कि समाज की मानसिकता और संरचना को बदलने में तो अभी समय लगेगा पर, यदि इन 3 वर्षों का उपयोग लड़कियों को उनकी वर्तमान योग्यता के अनुसार आत्मनिर्भर बनाने हेतु मुफ्त में ‘कौशल- प्रशिक्षण’ देकर किया जाए तब कुछ हद तक हम समाज में लैंगिक-समानता ला सकते हैं और सच्चे अर्थों में विकास की दिशा में एक कदम आगे की ओर बढ़ सकते हैं।