ये फॉरेन पॉलिसी है या फ़ौरन पॉलिसी ?

योगेन्द्र यादव
मत-विमत Updated On :

मेरे एक युवा दोस्त है जो फर्राटे से चीनी भाषा पढ़ते-बोलते हैं। आज सुबह मैंने उनसे एक विशेष अनुरोध किया। हमारे अखबार की हैडलाइन थी: “पीएम मोदी ने चीन में दिखाई भारत की ताकत”। मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें ऐसा कुछ चीनी भाषा के अखबार, टीवी या सोशल मीडिया में दिखाई दिया? उनका जवाब था कि बेशक, चीन में उनके राष्ट्रपति शी की पुतिन और मोदी के साथ मुलाक़ात का जिक्र हो रहा है, लेकिन इसे कोई ख़ास महत्व नहीं दिया गया है। जो जिक्र है वो शी की उपलब्धि के रूप में, कि उन्होंने ट्रम्प का मुंह चिढ़ाने के लिए मोदी जैसे विरोधी को भी अपने साथ खड़ा कर लिया। पुतिन की कुछ सराहना है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री कि लिए जो नकारात्मक मुहावरे इस्तेमाल किए गए हैं उसका जिक्र यहाँ ना किया जाए तो बेहतर।

उत्तर पाकर मुझे मायूसी हुई। इसलिए नहीं की मैं उनके आक्षेपों को सच मानता हूँ। जाहिर है, अगर मैं भारत के ज्यादातर दरबारी मीडिया की रिपोर्टिंग पर यकीन नहीं करता तो भला चीन के ज्यादातर सरकारी मीडिया या नियंत्रित सोशल मीडिया पर भरोसा क्यों करने लगा। मायूसी इसलिए हुई कि देश में हम मोदी जी की लाख आलोचना करें, लेकिन देश के बाहर हमारा प्रधानमंत्री भारत की राष्ट्रीय गरिमा का प्रतिनिधि है। सही या ग़लत, अगर हमारा प्रधानमंत्री हँसी का पात्र बनता है तो हर भारतीय का माथा नीचा होता है।

इस सच को कुछ देर तक ही भारत की जनता से छुपाया जा सकता है। आज्ञाकारी मीडिया ने भले ही एससीओ सम्मेलन को मोदी जी की एक और विश्वविजय के रूप में पेश किया है, लेकिन अब दर्शकों को ऊब होनी शुरू हो गई है। जो कल तक चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताते थे, वो आज उससे दोस्ती के फ़ायदे ढूँढने लगे हैं। जिन टीवी एंकरों को कल तक ट्रम्प और मोदी की मुलाक़ात में बिजली कड़कती दिखाई देती थी, उन्हें अब शी-पुतिन-मोदी के हैंडशेक में सितारे नजर आने लगे हैं।

विश्वपटल पर मोदी जी का महिमामंडन अब फोटो और वीडियो की ‘बॉडी लैंग्वेज’ के आधार पर होने लगा है। इसलिए अब सोशल मीडिया पर ऐसे जवाबी फ़ोटो और वीडियो चल निकले हैं जो इस सम्मेलन में मोदी जी की बेचारगी को दिखाते हैं। सच जो भी हो, इतना तय है कि अंतरराष्ट्रीय मामलों पर इस किस्म की फूहड़ बहस हमारे सार्वजनिक जीवन की बेचारगी को जरूर दिखाते हैं।

तियानजिन में हो रहे सम्मेलन का सच इस उल-जलूल चर्चा से परे है। एससीओ का मतलब है शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन। वैसे बहुराष्ट्रीय मंच है लेकिन इसकी धुरी है चीन और इसके कर्ता-धर्ता चीन के राष्ट्रपति शी हैं। इस सम्मेलन के ज़रिए शी अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प को धता बताना चाह रहे थे। इसका मौके का इस्तेमाल उन तमाम देशों ने किया जो ट्रम्प के तुगलकी टैरिफ़ फ़रमानों से त्रस्त हैं। सच यह है कि भारत उन देशों में बस एक और देश है -ना इससे कम ना ज़्यादा।

यह सच किसी से छुपा नहीं है कि मोदी जी यहाँ ट्रम्प की बेवफ़ाई से मजबूर होकर आए हैं। सच यह है कि हाल ही तक मोदी सरकार एससीओ की बजाय चीन विरोधी देशों (अमरीका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत ) के चौगुटे गठबंधन “क्वाड” से ज़्यादा वफादारी निभा रही थी। सच यह है कि अगर इस सम्मेलन के कोई स्टार मेहमान है तो वो मोदी जी नहीं बल्कि व्लादिमीर पुतिन हैं।

अगर इस सम्मेलन के प्रस्ताव में पहलगाम में (पाकिस्तान प्रायोजित) आतंकी घटना की निंदा हुई है तो पाकिस्तान में जाफर एक्सप्रेस और ख़ुज़दार में हुए आतंकी हमलों (जिसमे पाकिस्तान ने भारत पर आरोप लगाया है) की भी निंदा हुई। इस सच से मुँह नहीं चुराया जा सकता कि इस सम्मेलन में भारत को कमोबेश उतना ही वजन मिला है जितना पाकिस्तान को।

तियानजिन की तस्वीरें इस बड़े सच को छुपा नहीं सकती कि आज भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर उतना अलग-थलग खड़ा है जितना पहले कभी नहीं था। सच यह है कि हमारे पड़ोसियों में भूटान को छोड़कर हर देश की सत्ताधारी पार्टी या नेता भारत विरोध के नारे पर सत्ता में आया है। सच यह है कि एक जमाने में गुटनिरपेक्ष देशों का बेताज बादशाह भारत आज तीसरी दुनिया या ग्लोबल साउथ की राजनीति में अप्रासंगिक हो चुका है। सच यह है कि ग़ज़ा में इजरायली नरसंहार और ईरान पर अमरीकी हमले पर चुप्पी बनाये रखने के बाद विश्व मंच पर भारत की नैतिक आभा खंडित हो चुकी है।

सच यह है कि बिगड़ैल और तुनकमिजाज ट्रम्प के टैरिफ़ का निशाना बनने से भारत की हैसियत को उतना नुक़सान नहीं हुआ होता, अगर यह तोहफ़ा अमरीका और ट्रम्प की हर संभव लल्लो-चप्पो करने के बाद ना मिला होता। गनीमत है कि इस तमाम उठापटक के बीच भारत ने रूस के साथ अपना रिश्ता बनाये रखा। लेकिन सच यह है कि इसके पीछे भी रिश्ते की ईमानदारी कम और रूस के सस्ते तेल में भारत के पूंजीपतियों की हवस का योगदान ज़्यादा था।

सच यह है कि प्रधानमंत्री का यह चीन दौरा अंतरराष्ट्रीय मंच पर अकेले पड़ जाने के मजबूरी का नतीजा है। पिछले 11 वर्ष में मोदीजी चीनी राष्ट्रपति शी के साथ तीसरी बार दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं। हर बार चीन ने इसेके पीछे की मजबूरी को पहचानकर पलटवार किया है-कभी लद्दाख में, कभी डोकलाम में, तो कभी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान।

चार दिन के युद्ध के बाद भारतीय जनरल ने औपचारिक रूप से उसमे पाकिस्तान के पीछे चीन का हाथ बताया था। सरकारी और दरबारी सभी भोंपू मिलकर चीनी माल का बॉयकॉट करने की अपील कर रहे थे। उसके चंद महीने बाद प्रधानमंत्री द्वारा चीन में चीन की छत्रछाया में हो रहे सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति का हाथ पकड़ कर मुस्कराने के पीछे सद्भावना या पंचशील नहीं बल्कि एक कमजोर नेता की मजबूरी दिखाई देती है।

सच यह है कि यह मजबूरी जितनी अंतराष्ट्रीय राजनीति के उलटफेर से पैदा हुई है उससे कहीं ज़्यादा मोदी सरकार की समझ के उलटफेर से पैदा हुई है। सच यह है कि हम विदेश नीति को मोदी जी के व्यक्तिगत प्रचार और देश में चुनावी राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने के लालच, विश्वपटल पर होने वाले बदलाव के बारे में नासमझी और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हित की बजाय तात्कालिक नफे नुकसान की तिकड़म के खेल का खामियाजा भुगत रहे हैं।

ये कहानी सुन मेरे एक वरिष्ठ मित्र बोले: भैया ये ‘फॉरेन पालिसी’ यानी विदेश नीति थोड़े ही है, ये तो ‘फौरन पालिसी’ यानी झटपट फायदे की जुगत। मुझे एक शेर याद आया: “ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,

लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई”

(योगेंद्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक चिंतक हैं)