
ईवीएम की हेराफेरी कर चुनाव जीतने के आरोपों को फिर से बल मिला है। ईवीएम को लेकर फिर हंगामा मचा है। असम में भाजपा उम्मीदवार की गाडी से ईवीएम की बरामदगी हुई है। फिर एक बार चुनाव कार्य में लगे अधिकारियों की निष्पक्षता पर सवाल उठा है। लेकिन यह खेल महज चुनाव अधिकारियों का नहीं है। गलती सिर्फ चुनाव संपन्न करवाने वाले निचले अधिकारियों की नहीं है।
चुनाव आयोग सरकार के सामने लेटा हुआ नजर आ रहा है। चुनाव आयोग की कभी इतनी भद्द नहीं पिटी थी। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता निश्चित तौर पर खत्म होती नजर आ रही है। चुनाव आयोग के बड़े अधिकारी भय से सरकार के सामने बोल नहीं पा रहे है।
आज चुनाव आय़ोग के अधिकारियों और चुनाव आयुक्तों को भी शायद सीबीआई और ईडी का भय सता रहा है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता संदेह के घेरे में है। पिछले कुछ सालों में चुनाव आयोग की स्वतंत्रता खत्म हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं है। आयोग पर लग रहे आरोप में दम है है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रही है।
सबसे पहले बात बिहार की। किसी जमाने में बिहार में निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराना आसान काम नहीं होता था। उस जमाने में बिहार में बूथ कंट्रोल होता था। आज चुनाव आयोग और केंद्र सरकार की मिलीभगत से ईवीएम कंट्रोल की बात हो रही है। किसी जमाने में बिहार में बूथ कंट्रोल आम घटना थी। बूथ कंट्रोल का मतलब किसी एक दल के उम्मीदवार के समर्थन में गांव वाले या बूथ लुटेरे बैलेट पेपर पर मुहर लगाकर चलते बनते थे।
जैसे आज के जमाने में हैकरों का महत्व है, उस जमाने में बूथ लूटने वालों का बड़ा महत्व होता था। बूथ लुटेरे हथियार चलाने में माहिर होते थे। बूथ पर बम फेंकने में माहिर होते थे। चुनाव से पहले ही मुहंमागी कीमत देकर उन्हें उम्मीदवार बुलाते थे।
ईवीएम कंट्रोल और बूथ कंट्रोल में बहुत ही बारीक अंतर है। ईवीएम कंट्रोल में चुनाव आयोग पूरी तरह से सरकार से मिला हुआ नजर आ रहा है। बूथ कंट्रोल के दौर में चुनाव आयोग बेबस नजर आता था। उस समय चुनाव आयोग के पास संसाधन नहीं थे। सरकार मदद नहीं करती थी। लेकिन चुनाव आयोग ईमानदार था। निष्पक्ष चुनाव करवाना चाहता था।
अंत में जब टीएन शेषण चुनाव आयोग पहुंचे तो बेबस चुनाव आयोग के सामने सरकारें बेबस नजर आने लगी, वे उम्मीदवार बेबस आने लगे, जो चुनावों में बूथ कंट्रोल करते थे। लेकिन आज आयोग के पास तमाम शक्तियां है, लेकिन आयोग सरकार के साथ मिलकर निष्पक्ष चुनाव करवाने से कतरा रही है।
बिहार में बूथ कैप्चरिंग काफी सामान्य सी घटना होती थी। 1960 के दशक में बिहार में बूथ कैप्चरिंग की शुरूआत हुई थी। 1995 तक बिहार में बूथ कैप्चरिंग सामान्य बात थी। काफी मुश्किल से चुनाव आयोग के एक बड़े अधिकारी केजे राव ने बिहार में बूथ कैप्चरिंग की परंपरा को 21 वीं सदी में एक तरह से समाप्त ही कर दिया।
हालांकि बूथ कैप्चरिंग की घटना उस जमाने की बात है जब भारत में राजनीति पूरी तरह से कारपोरेट के कंट्रोल में नहीं थी। हां राजनीति कारपोरेट के चंदे पर निर्भर थी। लेकिन कारपोरेट राजनेताओं की मेहरबानी से हाथ पाव जोड़ कर आगे बढ़ते थे। जबकि इससे पहले ग्रामीण इलाकों में चुनाव के दिन बूथ पर गोलियां चलना आम बात होती थी।
कई बार उम्मीदवार खुद बूथ लूटने के लिए लाव लश्कऱ के साथ निकलते थे। एक बार मेरे पडोस के गांव में लोकदल के उम्मीदवार खुद बूथ लूटने के लिए पहुंचे थे। गांव की सीमा पर पहुंचते ही उम्मीदवार और उनके दस्ते ने चार-पांच फायर किया। लेकिन बूथ पर मजबूत विरोधी कम्युनिस्ट प्रत्याशी के समर्थकों ने चार पांच जवाबी फायर किया। बूथ पर भगदड मच गई। लेकिन कुछ देर पर सारा कुछ शांत नजर आया।
दरअसल कम्युनिस्ट समर्थकों के जवाबी फायर के बाद लोकदल समर्थकों का दस्ता वापस लौट गया था। फिर बूथ पर शांति आ गई। सामान्य मतदान होने लगा। दरअसल गांव में कम्युनिस्ट पार्टी को वोट पड रहा था, इसलिए लोकदल के उम्मीदवार खुद ही बूथ कैप्चर करने पहुंच गए थे।
बाद में एक बार बातचीत के दौरान बूथ लूटेरों के दस्ते में मौजूद एक व्यक्ति से यह पूछा गया कि वे जवाबी फायर मिलने के बाद वापस क्यों लौट गए, क्या वे डर गए थे, उसका जवाब था कि उनके फायर के जवाबी फायर आने के बाद उन्हें समझ मे आ गया कि यहां पर बूथ लूटने से पहले कम से कम आधे घंटे तक टकराव होगा। उतनी देर में वे एक-दो बूथ और कैप्चर कर लेंगे। फिर यहां पर फायरिंग ज्यादा होने पर किसी की जान भी जा सकती थी।
आज राजनीति पर पूरी तरह से कारपोरेट का कंट्रोल है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का जमाना है। वैसे में ईवीएम हैकिंग से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। खुद किसी जमाने में भाजपा ईवीएम की विश्वसनियता पर सवाल उठा चुकी है। लेकिन अब भाजपा ईवीएम को चुनाव का सबसे बेहतर उपकरण मान रही है। इसके बावजूद जब दुनिया के तमाम देश इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से चुनाव करवाना बंद कर चुके है।
भारत में कई बड़े विशेषज्ञ ईवीएम और वीवीपैट को लेकर तमाम सवाल उठा रहे है। उधर बीस लाख ईवीएम भी गायब है। चुनाव आयोग के नियंत्रण में रहने वाला ईवीएम कहां गायब है खुद चुनाव आयोग भी नहीं बता पा रहा है। मुबई हाईकोट में गायब ईवीएम पर मामला लंबित है। लगातार आरोप लगाए जा रहे है कि गायब ईवीएम का दुरूपयोग किया जा रहा है। ईवीएम को रास्ते में बदला जा रहा है। कम से कम असम की घटना तो साफ संकेत यही दे रही है कि ईवीएम की हेराफेरी में चुनाव आयोग से लेकर सरकारी तंत्र की मिलीभगत है।
इससे पहले भी हुए चुनावों में रास्ते में ईवीएम बदलने को लेकर हंगामा हुआ। बीते लोकसभा चुनावों में स्ट्रांग रूम में बंद ईवीएम को बदलने को लेकर कई जगहों पर हंगामा हुआ। विरोधी दलों के उम्मीदवारों और उनके समर्थकों ने स्ट्रांग रुम को घेर लिया। मसला वीवीपैट मशीनों की निष्पक्षता को लेकर भी है।
हाल ही में पश्चिम बंगाल में पहले दो चरणों के हुए चुनाव में लोगों ने यह शिकायत की वे वोट टीएमसी को दे रहे थे लेकिन वीवीपैट मशीन पर सामने कमल का निशान प्रिंट होकर आया। चुनाव आयोग को खुद ही वीवीपैट मशीन की निष्पक्षता पर संदेह है। यही कारण है कि वीवीपैट मशीन में बंद सारी पर्चियों को चुनाव आयोग गिनती करने से पीछे हट रहा है। यही नहीं तय सीमा से पहले चुनाव आयोग वीवीपैट मशीनों की पर्चियों को नष्ट भी कर रहा है।