
कोरोना काल में पिछले सात महीने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात मर्तबा राष्ट्र से मुखातिब हो चुके हैं। यानी औसतन हर महीने एक बार। राष्ट्र के नाम अपने हर संदेश में उन्होंने कोरोना संक्रमण की भयावहता से तो देश को आगाह किया है, लेकिन दो महीने से भी ज्यादा समय तक लागू रहे देशव्यापी संपूर्ण लॉकडाउन के चलते आर्थिक रूप से बुरी तरह टूट चुके और अपनी नौकरियां गंवा बैठे लोगों को आश्वस्त करने जैसी कोई बात एक बार भी नहीं की है।
राष्ट्र के नाम उनके सातवें संबोधन में भी कुछ नई और ठोस नहीं रही।प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जो कुछ कहा, वह सब तो दो-तीन दिन पहले उनके स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन भी कह चुके थे। हर्षवर्धन ने देश को लोगों को चेतावनी दी थी कि त्योहारों के सीजन में लापरवाही न बरते और सावधान रहते हुए दिशा-निर्देशों का पालन करें।
उन्होंने केरल की मिसाल दी थी और कहा था कि वहां ओणम के दौरान लापरवाही बरती गई, जिसका नतीजा यह हुआ है कि हजारों की संख्या में संक्रमण के मामले आने लगे हैं। हालांकि इस सिलसिले में उन्होंने तिरुपति बालाजी के मंदिर और अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास समारोह का जिक्र नहीं किया। केरल का जिक्र करना उनके लिए राजनीतिक दृष्टि से ज्यादा मुफीद था, क्योंकि वहां वामपंथी मोर्चा की सरकार है।
तो सवाल है कि जो बातें देश के स्वास्थ्य मंत्री बता चुके थे, उन्हें दोहराने के लिए प्रधानमंत्री ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ जैसे इवेंट की जरुरत क्यों महसूस हुई? दरअसल प्रधानमंत्री मोदी का कोई काम बिना राजनीतिक प्रयोजन के नहीं होता है। उसके पीछे एक सुविचारित योजना होती है। इस भाषण के पीछे भी ऐसा ही था। गौर करने वाली बात यह है कि उनका भाषण किस समय हुआ?
जब पिछले दो-तीन हफ्ते से लगातार कोरोना संक्रमण के मामलों में कमी आ रही है और जिस दिन तीन महीने में पहली बार संक्रमण के मामले 50 हजार से नीचे आए, उसके अगले दिन प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन हुआ। जाहिर है कि इसका पहला मकसद तो यह बताना था कि भारत ने कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने की दिशा में आगे बढ रहा है।
प्रधानमंत्री ने कहा भी कि भारत संभली हुई स्थिति में है और दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले अपने ज्यादा से ज्यादा लोगों का जीवन बचाने मे सफल रहा है। लेकिन इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने यह भी कह दिया कि लोगों को लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए वरना अमेरिका और यूरोप जैसा हश्र हो सकता है।
उन्होंने कहा कि अमेरिका और यूरोप के देशों में संक्रमण के मामलों में कमी आ रही थी लेकिन अब अचानक मामले बढने लगे हैं। उनके कहने का आशय था कि भारत में भी ऐसा हो सकता है। इसीलिए उन्होंने कबीर के हवाले से एक दोहा पढा- ”पकी खेती देखि के गर्व किया किसान, अजहूं झोला बहुत है घर आवे तब जान।’’ हालांकि यह दोहा कबीर का नहीं बल्कि भड्डरी का है। लेकिन इस तरह की चूक होना न तो प्रधानमंत्री के लिए कोई नई बात है और न ही उनके भाषण के नोट्स तैयार करने वालों के लिए। वे जानते हैं कि प्रधानमंत्री कुछ भी बोले, मीडिया को तो पूरे भक्ति भाव से ‘वाह-वाह’ ही करना है।
सवाल यह भी है कि कथित तौर पर कबीर के जिस दोहे के जरिए प्रधानमंत्री देश को उपदेश दे रहे हैं कि जब तक कोरोना को पूरी तरह हरा नहीं दिया जाए तब तक बेफिक्र न हों, उस उपदेश पर सरकार खुद क्यों नहीं अमल कर रही है? सरकार ने कोरोना की टेस्टिंग क्यों घटा दी है?
प्रधानमंत्री ने अमेरिका और यूरोप की मिसाल दी पर यह नहीं बताया कि अमेरिका और यूरोप के लोगों ने कोई बड़ी लापरवाही नहीं बरती थी। वहां लॉकडाउन हटने के बाद सामान्य जनजीवन बहाल होने और सर्दियां शुरू होने की वजह से कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आई हुई है। इसीलिए इस बात का पूरा अंदेशा है कि लॉकडाउन खत्म होने, सामान्य जनजीवन बहाल होने, सर्दियां शुरू होने और त्योहारों के सीजन के चलते भारत में भी संक्रमण के मामले बढ सकते हैं। प्रधानमंत्री ने खुद ही कहा कि लॉकडाउन चला गया है पर वायरस नहीं गया है। मगर ऐसा क्यों हुआ, यह उन्होंने नहीं बताया।
सवाल है कि वायरस गए बगैर ही लॉकडाउन क्यों चला गया? अगर यह जरूरी नहीं था तो फिर लगाया ही क्यों गया था? सवाल यह भी है कि जब वायरस गया नहीं है तो वह फैलेगा कैसे नहीं? जब लोग जीवन को गति देने के लिए बाहर निकल रहे हैं, बाजारों में रौनक लौट रही है तो तय माने कि कोरोना भी फैलेगा। भले ही अभी संक्रमण के मामले थमे हुए दिख रहे हैं पर इसका यह मतलब नहीं है कि कोरोना से हमारी लड़ाई पूरी हो गई है।
जहां तक संभला हुआ होने की बात है तो वह सब्जेक्टिव और सापेक्षिक मामला है। अभी भारत में 75 लाख से ज्यादा मामले हैं और एक लाख 15 हजार लोगों की मौत हुई है। इस स्थिति को संभला हुआ होना कहा जा रहा है। अगर यह संख्या दोगुनी होती तब भी उसे संभला हुआ होना कहा जा सकता था, क्योंकि यह सब्जेक्टिव मामला है।
अमेरिका के मुकाबले भारत में प्रति दस लाख लोगों पर मृत्यु कम हुई है, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री ने किया। उन्होंने कहा कि भारत में दस लाख की आबादी पर मृत्यु दर 83 है, जबकि विकसित देशों में दस लाख की आबादी पर 600 तक है। सवाल है कि आप अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों से हम अपने देश की तुलना क्यों और कैसे कर सकते हैं? या तो एशिया के विकसित देशों से या दक्षिण एशिया के अपने जैसे देशो से तुलना करें, फिर देखें कि क्या तस्वीर बनती है।
भारत में दस लाख की आबादी पर 83 लोगों की मौत हुई है तो पाकिस्तान में दस लाख की आबादी पर 30 लोगों की मौत हुई है। दस लाख की आबादी पर बांग्लादेश में 35 लोगों की, इंडोनेशिया में 46 लोगों की, फिलीपींस में 61 लोगों की, नेपाल में 26 लोगों की और श्रीलंका में 0.6 लोगों की मौत हुई है।
एशिया में तीन विकसित देश है- चीन, जापान और दक्षिण कोरिया। कोरोना वायरस से चीन में प्रति दस लाख की आबादी पर सिर्फ तीन लोगों की मौत हुई है। जापान में 13 लोगों की और दक्षिण कोरिया में नौ लोगों की मौत हुई है। इन देशों की तुलना में तो भारत में बहुत ज्यादा मौते हुई है। इसलिए मृत्यु दर कम होना या संभला हुआ होना एक सापेक्षिक बात है, जिससे स्थिति की वास्तविक तस्वीर नहीं उभरती है। और फिर भारत संभला हुआ इसलिए भी दिख रहा है कि क्योंकि दुनिया के तमाम विकसित देशों के मुकाबले भारत में प्रति दस लाख की आबादी पर सबसे कम टेस्ट हुए हैं।
प्रधानमंत्री का अमेरिका और यूरोप मे केसेज बढ़ने की मिसाल देना या किसी का भी दोहा किसी के भी नाम से पढ देना अनायास नहीं है। यह तीन महीने बाद बनने वाली तस्वीर का पूर्वाभास है। इसका एक संकेत कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए बनाई गई केंद्रीय टीम ने भी दे दिया है। इस टीम का आकलन है कि अगर त्योहारों में और सर्दियों में सावधानी नहीं बरती गई तो देश में हर महीने 26 लाख संक्रमण के मामले आएंगे। यानी अगस्त-सितंबर में जिस तरह मामले आ रहे थे, उस तरह फिर आने लगेंगे। इसी का संकेत प्रधानमंत्री ने भी दिया।
उन्होंने दशहरा, दीवाली, छठ, गुरु नानक जयंती से पहले ही लोगों को आगाह कर दिया है। उनके आगाह करने का आशय है कि इसके बाद भी लोग लापरवाही बरतते है और संक्रमण के मामले बढते हैं तो उसमें तो उसमें सरकार क्या कर पाएगी? सरकार तो वैसे भी कुछ नहीं कर पा रही है। जो करना है लोग खुद ही कर रहे हैं।
त्योहारों के बीच ही बिहार में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं। देश के अन्य इलाकों में भी उपचुनाव हो रहे हैं। सारे दिशा-निर्देशों को धता बता कर बडी-बडी सभाएं और रैलियां हो रही हैं, जिनमें हजारों लोग जुट रहे हैं। विशेषज्ञों और प्रधानमंत्री के निर्देशों की सबसे ज्यादा अनदेखी उन्हीं पार्टी के लोग, यहां तक मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद और विधायक तक कर रहे हैं।
बहरहाल, मरने वालों की संख्या के मामले में अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों से तुलना की जाएगी पर यह नहीं देखा जाएगा कि तमाम विकसित देश अपने यहां मुफ्त में लोगों का कोरोना टेस्ट करा रहे हैं। अपने यहां तो टेस्टिंग से लेकर इलाज और मास्क तथा सेनिटाइजर की बिक्री तक में लूट मची हुई है। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री का यह कहना कि भारत में स्थिति संभली हुई हैं, आंकड़ों की बाजीगरी और अपनी सरकार की पीठ थपथपाने से ज्यादा कुछ नहीं हैं।