
भारत-नेपाल के बीच तनाव कम करने की कवायद शुरू हो गई है। राजनीतिक मानचित्र के बदलाव और राम की जन्मभूमि को लेकर विवादित ब्यान देने के बाद ओली सरकार के विदेश शचिव ने काठमांडू स्थित भारतीय राजदूत के साथ वर्चुअल बैठक की है। बैठक में अच्छे संकेत नजर आए है। दोनों मुल्कों के अधिकारियों ने भारत-नेपाल सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों, क्रास बार्डर तेल पाइप लाइन पर बातचीत की। गौरतलब है कि पिछले कुछ महीनों से भारत और नेपाल के बीच तनाव चरम पर है।
हालांकि भारत और नेपाल के अधिकारियों के बीच हुई बैठक से पहले भारत के स्वतंत्रता दिवस पर नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन कर बधाई दी थी। सीमा पर तनाव के बीच पहले नेपाल की बधाई फिर दोनों मुल्कों के बीच बातचीत कम से कम भारत सरकार के लिए राहत लेकर आयी है। पड़ोसी नेपाल के साथ सीमा पर तनाव के कारण भारत सरकार की परेशानी बढ़ी है। क्योंकि नेपाल तो सदियों से भारत का दोस्त रहा है।
नेपाल के राजनीतिक मानचित्र में बदलाव भारत नेपाल संबंधों को एक दुखद रास्ते पर ले गया है। दरअसल भारत की चुनौती नेपाल की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति नहीं है। भारत की चुनौती नेपाल वो विदेश नीति से है, जिसपर चीन का प्रभाव है। वैसे ओली एक चालाक राजनीतिज्ञ है। वो बोलते कुछ है, करते कुछ है। चीन के साथ नजदीकी बढाने वाले फैसले लेने से पहले ओली पहले भारत से दोस्ती की राग जरूर अलापते है। ओली जब पहले प्रधानमंत्री रहे है तो उनके कार्यकलापों ने यही बताया है।
हालांकि नेपाल को लेकर भारतीय कूटनीति की एक बड़ी विफलता यह है कि वर्तमान में नेपाल के तमाम राजनीतिक दलों में भारत से सहानभूति रखने वालों नेताओं की खासी कमी हो गई है। जो नेता ओली का विरोध करते नजर आ रहे है, उनके व्यक्तिगत स्वार्थ है। ओली विरोधी सत्ता में हिस्सेदारी चाहते है। लेकिन चीन के विरोध की कीमत पर नहीं। कम से कम हाल ही में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के दो बड़े नेताओं ओली और प्रचंड के बीच हुए तत्कालिक समझौते ने यही कुछ संदेश दिया है।
नेपाल को लेकर भारत की कुटनीति य़थार्थ के धरातल पर होनी चाहिए। नेपाल इस समय पूरी तरह से चीन प्रभाव में आ गया है। नेपाल को इस समय चीन के प्रभाव से निकालना काफी मुश्किल कार्य है। क्योंकि भारत के पास चीन की शार्प पॉलिसी का विकल्प एडहॉक प़ालिसी है। भारत की विदेश नीति तदर्थ होती है। जबकि चीन की शार्प पॉलिसी नेपाल में काफी प्रभावी हो गई है। चीन की शार्प पॉलिसी का कमाल नेपाल के लगभग सारे बड़े राजनीतिक दलों पर दिख रहा है।
नेपाल के वामपंथी दल ही चीन की शार्प पॉलिसी के प्रभाव में सिर्फ नहीं है, बल्कि दूसरा बड़ा प्रभावी राजनीतिक नेपाली कांग्रेस भी चीन की शार्प पॉलिसी के प्रभाव में है। चीन के शार्प पॉलिसी का प्रभाव नेपाल में घटित हाल की एक घटना से समझा जा सकता है। नेपाल ने अपने राजनीतिक मानचित्र में बदलाव कर भारत को एक चुनौती दी। राजनीतिक मानचित्र में बदलाव संबंधी प्रस्ताव जब नेपाली संसद में लाया गया तो इस प्रस्ताव पर नेपाल के सारे राजनीतिक दल एकजुट नजर आए।
किसी ने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के राजनीतिक मानचित्र बदलाव संबंधी संशोधन प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। किसी भी रानजीतिक दल ने ये नहीं कहा कि इससे भारत और नेपाल के संबंध खासे प्रभावित होंगे। नेपाली कांग्रेस के वे नेता जो भारत के खासे नजदीक रहे है, राजनीतिक मानचित्र संशोधन के समर्थन में थे। इससे यह साबित होता है कि नेपाल के तमाम राजनीतिक दलों के नेता इस समय चीन के प्रभाव में है।
वैसे चीन में शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद नेपाल के अंदर चीन ने अपना प्रभाव तेजी से बढ़ाया है। जिनपिंग की तीखी कुटनीति का असर नेपाल के तमाम राजनीतिक दलों पर देखा जा रहा है। नेपाल के तमाम राजनीतिक दल और उससे जुड़े बड़े नेता जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद खुलकर चीन से दोस्ती की बात करने लगे। नेपाली राजनीतिक दलों के नेता एक तरफ भारत से गहरे एतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों की बात करते थे तो दूसरी तरफ उनके प्रशासनिक और कूटनीतिक फैसले चीन से गहरी दोस्ती बढ़ाने वाला होता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
नेपाली कांग्रेस के नेता सुशील कुमार कोइराला जब नेपाल के प्रधानमंत्री थे तो नेपाल चीन के नेतृत्व वाले एशियाई इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इन्वेस्टमेंट बैंक का संस्थापक सदस्य बना। 2016 में जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) के नेता केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री थे तो नेपाल और चीन के बीच ट्रांजिट एवं ट्रांसपोर्ट एग्रीमेंट हो गया। इसके तहत चीन ने अपने तीन ड्राई लैंड पोर्ट और चार समुद्री पोर्ट के नेपाल दवारा इस्तेमाल करने को लेकर अपनी सहमति दे दी। जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के नेता प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बने तो चीन के बेल्ट एंड रोड पहल में नेपाल शामिल हो गया। प्रचंड के कार्यकाल में बेल्ट एवं रोड पहले के एमओयू पर नेपाल ने हस्ताक्षर कर दिया।
भारत को नेपाल में नए सिरे से व्यूह रचना करनी पड़ेगी। वैसे भारत के लिए वर्तमान में नेपाल में व्यूह की रचना आसान नहीं है। एक तो चीनी दूतावास इस समय नेपाल में काफी मजबूत भूमिका में नजर आ रहा है। नेपाल के राजनीतिक फैसलों में चीनी दूतावास की दखल खूब बढ़ी है। वहीं 2015-2016 की आर्थिक नाकेबंदी से परेशान हुए नेपालियों के अंदर भारत के प्रति गुस्सा अभी कम नहीं हुआ है।
दरअसल ओली के भारत विरोधी दुष्प्रचार को भारत तरीके से जवाब नहीं दे पाया। उधर ओली समय-समय पर भारत को चिढ़ाने वाले ब्यान भी देते रहे। राम के जन्म स्थल को ओली का दिया गया ब्यान भारत को चिढ़ाने वाला ब्यान था। ओली का यह ब्यान बेशक हल्का बयान था, लेकिन ओली ने यह दिखाने की कोशिश की नेपाल भारत को हौव्वा नहीं मानता।
नेपाल अब भारत के प्रभाव से निकल स्वतंत्र रूप से अपनी नीतियों को तय कर रहा है। हालांकि भारत के लिए अच्छी खबर ये है कि इस समय नेपाल की मीडिया में चीन के बेल्ट एवं रोड पहल की अच्छाइयों और बुराइयों पर जमकर बातचीत हो रही है। नेपाल में एक तबका इस बात को समझ रहा है कि चीन बेल्ट एवं रोड पहल की आड़ में नेपाल को कर्ज के जाल में फंसा सकता है।