मारा गया विकास: क्या एनकाउंटर और पुलिस सुधार पर होगी बहस


पुलिस सुधार आज की एक बहुत बड़ी जरूरत है। पुलिस सुधारों को लेकर 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित पुलिस सुधार आयोग ने केंद्र सरकार को आठ रिपोर्टें सौंपी थीं, लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया।



कानपुर के दुर्दांत अपराधी विकास दुबे की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गई। शुक्रवार 10 जुलाई 2020 को गिरफ्तारी के बाद मध्य प्रदेश के उज्जैन से कानपुर लाते समय कानपुर से कुछ पहले ही पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में विकास मारा गया। गौरतलब है कि ये वही विकास दुबे है जिसके कानपुर के समीप स्थित एक गांव में पिछले हफ्ते पुलिस की टीम और अपराधियों के बीच सीधे और आमने-सामने हुई गोलीबारी में उत्तर पुलिस के एक उप अधीक्षक स्तर के अधिकारी और एक थाना प्रभारी के साथ ही आठ पुलिसकर्मी मारे गए थे। 

पुलिस की यह टीम विकास दुबे को पकड़ने उसके हवेली नुमा घर गई थी। विकास को पुलिस के ही एक व्यक्ति से इस दबिश की पूर्व सूचना दे दी थी जिस वजह से विकास दुबे और उसके गुर्गों ने पुलिस टीम को निपटाने का इंतजाम करने के साथ ही अपने और अपनी टीम के भागने का पुख्ता इंतजाम भी कर लिया था। नतीजतन पुलिस को इस दबिश में मिला तो कुछ नहीं लेकिन उसके अपने आठ साथी शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद यह तय था कि एक न एक दिन विकास की भी यही गति होगी जो उसके घर पर दबिश देने गए पुलिस कर्मियों की हुई थी। 

पुलिस और उत्तर प्रदेश पुलिस के बीच लुका छिपी का यह खेल चल रहा था। कभी विकास के फरीदाबाद तो कभी किसी और शहर में दिखाई देने की बात सुनाई देती तो कभी वो उज्जैन के महाकाल मंदिर में दिखाई देता नजर आ रहा था। इस बीच एक-एक कर उसके कई साथी भी पुलिस ने ठिकाने लगा दिए और आखिर में विकास पुलिस के हत्थे चढ़ भी गया और पुलिस ने उसे भी ठिकाने लगा ही दिया। पुलिस मुठभेड़ यानी पुलिस इनकाउंटर में अपराधियों का मारा जाना कोई नई बात भी नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि विकास पहला ऐसा अपराधी था जिसे पुलिस मुठभेड़ में मारा गया हो। विकास जैसे अपराधी तो सैकड़ों की तादाद में इसी तरह पुलिस की गोली का शिकार होते रहे हैं।

मसला इनकाउंटर मौत का नहीं बल्कि यह है कि जब अपराधी से कोई पूछताछ किये बगैर ही उसे मौत की नींद सुला दिया जाता है तो कई राज उसकी मौत के साथ ही दफ़न हो जाते हैं। ये राज समाज के ऐसे लोगों से भी जुड़े होते हैं जो पुलिस, प्रशासन या राजनीति में महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान होते हैं। 

जब कभी विकास जैसे अपराधी पुलिस मुठभेड़ के नाम पर ठिकाने लगा दिए जाते हैं तब रह-रह कर यही बात सामने आती है कि हो न हो व्यवस्था में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ गड़बड़ तो जरूर है। विकास दुबे की मौत का मामला भी ऐसा ही है। यह बात खुद उत्तर प्रदेश पुलिस ने ही कही है कि कानपुर ने भी पुलिस के कथन की पुष्टि करते हुए बताया है कि के मुख्य अभियुक्त विकास दुबे की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गई है। डॉक्टरों ने बताया कि अस्पताल लाने से पहले ही विकास दुबे की मौत हो चुकी थी।

इस मुठभेड़ में तीन सिपाही भी घायल हुए हैं। गौरतलब है कि विगत 2-3 जुलाई की रात को कानपुर ज़िले के थाना चौबेपुर में पड़ने वाले बिकरु गांव में विकास दुबे को पकड़ने गई पुलिस पर हमला हुआ था जिसमें एक डीएसपी समेत आठ पुलिसकर्मी मारे गए थे। इस घटना ने पूरे देश में हड़कंप मचा दिया था और उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए ये मामला प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। यूपी पुलिस का कहना है कि राहुल तिवारी नाम के एक शख़्स ने विकास दुबे के ख़िलाफ़ धारा-307 के तहत मुक़दमा दर्ज कराया था जिसके बाद पुलिस दुबे के घर गई थी। इस घटना के बाद से अब विकास दुबे की मुठभेड़ में मौत तक जितनी भी कहानियां हुई हैं उनके बारे में पूरी दुनिया को सब कुछ पता है। 

दुनिया को बस एक बात पता नहीं है कि जिस तरह के गंदे धंधों और कुत्सित अपराधों में विकास दुबे संलिप्त था उसमें पुलिस, प्रशासन और राजनीति से किन-किन लोगों की भागीदारी थी। अब ये सब राज उसकी मौत के साथ ही दफ़न हो गए हैं। अगर उसे पकड़ कर विधिवत क़ानून के हवाले किया जाता और देश की न्यायिक व्यवस्था के तहत पूरे मामले की तहकीकात की जाती तो शायद और सफेदपोश अपराधी बेनकाब होते। बात केवल एक विकास दुबे की नहीं है और न ही यह मसला देश के किसी एक राज्य जिले या कस्बे का है। देश के हर राज्य और राज्यों के जिलों और कस्बों में ऐसे अनेक विकास रोज पैदा होते हैं, पलते-बढ़ते हैं, अपराधी बनते हैं और फिर इसी तरह शूली पर चढ़ा दिए जाते हैं। 

कुछ महीने पहले 6 दिसम्बर 2019 को तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में एक महिला पशु चिकित्सक के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर देने वाले अपराधियों को भी इसी तरह पुलिस मुठभेड़ में मार दिया गया था। इसी तरह कई साल पहले देश की राजधानी दिल्ली में भी दिन दहाड़े पुलिस शूटआउट में एक अपराधी की मौत हो गई थी। अपराधियों को सख्त से सख्त सजा मिले इसका प्रावधान हमारे संविधान में भी है और संविधान के प्रावधानों को लागू करने के लिए बनाई गई कानूनी संहिता में भी इसकी व्यवस्था है इसलिए विकास जैसे अपराधियों को सजा दिलाने के लिए जरूरी है कि ऐसे अपराधियों के खिलाफ न्यायपालिका की अपराधिक प्रक्रिया पूरी हो। 

न्याय प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही जब पुलिस मुठभेड़ जैसी कहानियों के हवाले से इस तरह की कहानियां सामने आती हैं तो ऐसा लगने लगता है कि मामले की सच्चाई कुछ और है जो अब कभी सामने नहीं आ पायेगी। कहना गलत नहीं होगा कि पुलिस मुठभेड़ जैसी घटनाएं इसलिए भी होती हैं क्योंकि हमारे देश की पुलिस व्यवस्था में बहुत सारी खामियां हैं।

इन खामियों को दूर करने के लिए कई बार पुलिस व्यवस्था में सुधार की कोशिश भी की गई लेकिन पूरी इमानदारी के साथ इन सुधारों को लागू न कर पाने की वजह से अभी भी खामियां हमारी व्यवस्था में हैं। इस सम्बन्ध में हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि पुलिस को हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तहत अपराधियों को अपनी तरफ से दंड देने का का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।

इसके विपरीत अगर सरकारी भाषा में कहें तो, “पुलिस बल, राज्य द्वारा अधिकार प्रदत्त व्यक्तियों का एक निकाय है, जो राज्य द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करने, संपत्ति की रक्षा और नागरिक अव्यवस्था को सीमित रखने का कार्य करता है। इसके साथ ही संविधान में प्रदत्त शक्तियों के अनुरूप पुलिस जरूरत पड़ने पर पुलिस वैध तरीके से बल का उपयोग भी कर सकती है। इसके विपरीत हमारे यहां पुलिस तानाशाही पूर्ण व्यवहार के लिए प्रसिद्ध है। पुलिस की मनमानी और मनमौजीपन को देखते हुए ही पुलिस सुधार की जरूरत महसूस की गई थी। पुलिस सुधार के लिए आयोग का गठन भी किया गया  आयोग ने सिफारिश भी सरकार को दी लेकिन उन पर अमल नहीं हो पाया। 

इन सुधारों में पुलिसकर्मियों के कल्याण के समबन्ध में भी कई तरह की अनुशंसाएं आयोग ने की हैं लेकिन किसी न किसी वजह से इन पर काम नहीं हो सका। प्रसंगवश पुलिस सुधार आज की एक बहुत बड़ी जरूरत है। पुलिस सुधारों को लेकर 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित पुलिस सुधार आयोग ने केंद्र सरकार को आठ रिपोर्टें सौंपी थीं, लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया।