
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में प्रस्तावित कृष्ण मंदिर बनने से पहले गिर गया है। शुक्रवार को पहले इस्लामाबाद प्रशासन ने मंदिर की चारदीवारी का काम रोक दिया उसके बाद कुछ स्थानीय युवकों ने पहुंचकर चारदीवारी के नींव की ईंटों को बिखेर दिया।
इस तरह से इस्लामाबाद में इस्लाम को नष्ट होने से बचा लिया गया। अगर ये मंदिर बन जाता तो “इस्लाम के अस्तित्व” पर ही सवाल खड़ा हो जाता। वह इस्लाम जो बुतशिकनी करके अस्तित्व में आया था उसके नाम पर बसे शहर में बुतों का मंदिर बन जाता तो यह इस्लाम के अस्तित्व को ही चुनौती समझी जाती। बकौल मुल्ला मौलवी फिलहाल इस्लाम अपने आप को बचाने में सफल रहा है।
इस्लामाबाद में हिन्दू अल्पसंख्यकों के लिए मंदिर बनाने का निर्णय चार साल पहले हुआ था 2016 में। इस्लामाबाद प्रशासन ने सेक्टर एच-9 में जमीन भी एलॉट कर दिया था। लेकिन तेजी आई इस साल जब इमरान खान ने मंदिर निर्माण की औपचारिक घोषणा की और दस करोड़ रूपये अल्पसंख्यक कोष से देने का ऐलान भी किया। बस। बात बिगड़ गयी।
पूरे पाकिस्तान का मौलाना समुदाय नाराज गया। उन्होंने ऐतराज भी जताया और फतवा भी जारी कर दिया। पाकिस्तान के टीवी चैनलों ने मंदिर रुकवाने की मुहिम शुरु कर दी। सोशल मीडिया पर कुछ मुसलमानों ने आकर कहना शुरु कर दिया कि अगर ये मंदिर बनता है तो इमरान खान को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। निश्चित तौर पर इमरान खान डर गये।
पाकिस्तान में मौलवियों की सत्ता सबसे ताकतवर है। उससे टकराने की हिम्मत न तो पाकिस्तान की सरकार में है और न ही पाकिस्तान की फौज में। और एक बार उन्होंने विरोध कर दिया तो किसी में हिम्मत नहीं है कि उसके विरोध को किनारे करके आगे बढ़ जाए।
पाकिस्तान में मौलवियों की सत्ता को मजबूत करने का काम एक सोशलिस्ट लीडर जुल्फिकार अली भुट्टो ने शुरू किया था। भुट्टो की इस गलती ने ही आगे चलकर जिया उल हक जैसा भस्मासुर पैदा किया जिसने “पाकिस्तान का मतलब क्या, ला इलाह इल्लल्लाह” बना दिया। कुख्यात नबी निंदा कानून को ही जिया के जमाने में बदल दिया गया और अब तक सामान्य सजा वाले ये कानून आजीवन कारावास और फांसी की सजा तक मुकर्रर कर दिया। जिया के जमाने में ही मुल्ला मौलवी सब प्रकार के सरकारों के ऊपर हो गये।
पाकिस्तान में शुद्ध इस्लामिक स्टेट बनाने की जो मुहिम शुरु हुई तो वह लगातार मजबूत ही होती गयी। बाद की किसी सरकार, फौज या न्यायपालिका में इतनी ताकत ही न बची कि वह इस मुल्ला मौलवी की सत्ता को चुनौती दे सके। आखिरकार इस्लाम की परिभाषा तो मौलाना ही करेगा और पाकिस्तान को चलना इस्लाम के ही रास्ते पर है तो फिर उसकी राय को दरकिनार करके कोई सरकार कैसे चल पायेगी?
बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ ने इस्लामिक संस्थाओं की मदद चुनाव में लेना शुरु कर दिया। इससे राजनीतिक दलों पर इस्लामिक संस्थाओं का प्रभुत्व बढ़ गया। इमरान खान ने तो बीते कुछ सालों में वहां की सबसे कट्टरपंथी इस्लामिक संस्थाओं की न सिर्फ मदद ली बल्कि केपीके में अपनी पीटीआई सरकार के द्वारा आर्थिक मदद भी करवाई।
इन बातों के अलावा पाकिस्तान में मुल्ला मौलवी इसलिए मजबूत हैं क्योंकि हर मुसलमान के लिए दुनियावी शिक्षा से ज्यादा दीनी तालीम जरूरी है। पाकिस्तान में ही क्यों पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमान की दीनी तालीम उसके दुनियावी तालीम से ज्यादा अहम होती है।
नौजवान होते होते तक एक मुसलमान को अपने दीन और ईमान की सारी जानकारी दे दी जाती है। गरीब से गरीब मुसलमान भी अपने बच्चों के लिए कारी नियुक्त करता है जो घर पर आकर इस्लाम और कुरान की शिक्षा दे जाएं। ऐसे में उसके मन मष्तिष्क पर मौलाना/मौलवी का प्रभाव किसी भी दूसरे व्यक्ति या संस्थान से ज्यादा होता है। इसका सीधा प्रभाव ये होता है कि मौलवी मौलाना अप्रत्यक्ष तौर पर मुस्लिम समुदाय के मन पर शासन करते हैं।
पाकिस्तान में दीनी तालीम तो पागलपन की हद तक जरूरी है। अभी हाल में ही पंजाब सरकार ने आदेश दिया है कि ग्रेजुएशन लेवल पर कुरान की शिक्षा अनिवार्य होगी। ऐसे में माहौल में एक मुसलमान के मन में मौलवी की इज्जत किसी गणितज्ञ से ज्यादा होना स्वाभाविक है। और मौलवी क्या कहेंगे कि इस्लाम में मंदिर बनाने की इजाजत है? कोई भी इस्लाम का जानकार ये कैसे कह सकता है? जो भी इस्लाम को जानता है वो जानता है कि बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) को मुसलमान के बराबर का दर्जा नहीं दिया जा सकता। वह मुशरिक है और ऐसे मुशरिकों को एक दिन इस्लाम के रास्ते पर ले आना है। जब मुशरिक (मूर्तिपूजक) को आखिरकार एक दिन इस्लाम के रास्ते पर आना ही है तो फिर उसके मंदिर को अनुमति कैसे दी जा सकती है?
बहरहाल, इन सबके बीच इमरान खान सरकार ने कहा है कि वो इस मामले में इस्लामी नजरियाती काउंसिल से सलाह लेगी। इस्लामी नजरियाती काउंसिल सरकारी तौर पर सर्वोच्च इस्लामी संस्था है जो पाकिस्तान के कानूनों की इस आधार पर समीक्षा करती है कि वो इस्लामिक नियमों के मुताबिक हैं या नहीं। कोई नया कानून बनाने से पहले भी इस काउंसिल से सलाह ली जाती है।
अभी तक के हालात को देखकर तो यही लगता है कि इस्लामी नजरियाती काउंसिल भी वही कहेगी जिसके आधार पर मंदिर निर्माण का काम रोका गया है। इसलिए इस्लामाबाद में मंदिर के लिए की गयी सेकुलर पहल कभी पूरी नहीं हो पायेगी। जिस पाकिस्तान ने आबूधाबी में हिन्दू मंदिर के निर्माण पर आसमान-पाताल एक कर दिया हो, वो इस्लामाबाद में मंदिर बनने देगा, ये सोचना भी शायद मूर्खता होगी।