क्या कोरोना के बाद भी हम स्वदेशी पर अडिग रहेंगे ?


जैसे ही कोरोना का डर ख़त्म होगा, हम फिर वही प्रकृति-विरोधी रंग-ढंग अपनाना शुरू कर देंगे, जिसके ख़ामियाज़े के तौर पर इस हस्र तक पहुंचे। तीन दशक पहले की गई आज़ादी बचाओ आन्दोलन की भविष्यवाणियां हूबहू सच साबित हो रही हैं। स्वदेशी-स्वावलम्बन की पटरी से देश के उतरने के नतीजे का परावलम्बन इससे बड़ा क्या हो सकता है?



संत समीर

उस विचारधारा को याद करने का समय एक बार फिर आ गया है, जिसे पूरी दुनिया प्रकृति के कहर के आगे आज मजबूरी में अपना रही है। इस विचारधारा की नींव आज़ादी बचाओ आन्दोलन (पूर्व नाम-लोक स्वराज्य अभियान) ने 5 जून, 1989 को इलाहाबाद की धरती पर रखी थी। मूलमन्त्र था-स्वदेशी और स्वावलम्बन। शुरू में हम बस कुछ गिनती के लोग थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित विभाग के तब के अध्यक्ष प्रो. बनवारीलाल शर्मा हमारे अगुआ थे। विश्वविद्यालय के ही एक विभाग ‘गान्धी शान्ति एवं अध्ययन संस्थान’ (गान्धी भवन) आंदोलन का ठीया था। 

‘स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय निगमें परियोजना’ नाम देकर एक शोध शुरू हुआ। जो जानकारियां बाहर आईं, वे चौंकाने वाली थीं। मज़ेदार कि जिस ईस्ट इण्डिया कम्पनी को खदेड़ने के लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई, वह रूप बदल कर इस देश में दवा बेचने का धन्धा कर रही थी। लोगों को ज़रा भी अन्दाज़ा नहीं था कि हिन्दुस्तान लीवर नाम की कम्पनी हिन्दुस्तान की नहीं है। डालडा वनस्पति, सनलाइट, लाइफबॉय, कोलगेट घरों में इस्तेमाल होने वाले सबसे लोकप्रिय उत्पाद थे और देश के ही लगते थे।

बहरहाल, इलाहाबाद के नौजवानों ने बहुराष्ट्रीय विदेशी कम्पनियों के ख़िलाफ़ स्वदेशी के आन्दोलन का बिगुल बजा दिया। बात बढ़ने लगी और चीज़ों को ठीक से संभालने की ज़रूरत लगी तो हमने अपनी-अपनी रुचि के हिसाब से काम का बंटवारा कर लिया। कुछ लोग भाषण देने निकले, कुछ जनसम्पर्क पर, तो कुछ साहित्य और पत्रिकाएं संभालने लगे। दुर्भाग्य से आजकल के ज़्यादातर युवा उस आन्दोलन के सिर्फ़ राजीव दीक्षित को ही जान पा रहे हैं, जबकि एक बड़ी संख्या ऐसे कार्यकर्ताओं की है, जिनकी भूमिकाएं कई मामलों में और भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण रही हैं। वे भाषण नहीं देते थे, तो उनके चेहरे आमजन के सामने नहीं होते थे। दुर्भाग्य यह भी है कि अपने देहावसान के आख़िरी दिनों में राजीव जी ने वाग्भट के आयुर्वेद पक्ष पर जो कुछ बोला, तो स्वास्थ्य के मुद्दे के नाते कुछ लोगों ने यूट्यूब पर उसे ही ज़्यादा प्रचारित कर दिया। नतीजतन, आजकल ज़्यादातर लोग राजीव दीक्षित को डॉक्टर, वैद्य जैसा कुछ समझने लगे हैं, जबकि अर्थव्यवस्था और समाज-व्यवस्था के सवालों पर उनके भाषणों को सुना जाना चाहिए।

शुरू के दिनों का हाल यह था कि ग्लोबल होने की पिनक में सत्ता के कर्ताधर्ता और राजनीति के खिलाड़ी इस विचारधारा का मज़ाक़ उड़ा रहे थे कि देश को देश के संसाधनों से आत्मनिर्भर भला कैसे बनाया जा सकता है? बावजूद इसके, आज़ादी बचाओ आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने अपना जुनून और धुन बनाए रखा। धीरे-धीरे आन्दोलन की धमक यहां तक पहुंची कि पेप्सी जैसी कम्पनी बहुत समय तक इलाहाबाद में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर पाई। युवाओं की एक बड़ी संख्या थी, जिसने दिन-रात एक कर दिया था। मैंने इतने निश्छल कार्यकर्ता किसी और आन्दोलन या संगठन में आज तक नहीं देखे। जाने कितने लोगों ने पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता छोड़ दी थी। 

मेरी तरह तमाम नौजवानों ने देश के लिए घर-परिवार तक से नाता तोड़ने का मन बना लिया था। आईएएस, पीसीएस का मोह छोड़कर छात्र इसमें शामिल हो रहे थे। ये ऐसे नाम हैं, जिनमें आज़ादी की लड़ाई के क्रान्तिवीरों की छवियां मुझे दिखाई देती रही हैं। काश, कुछ लोगों की बेवकूफ़ियों से आन्दोलन खण्डित न हुआ होता, तो आज देश का चेहरा शायद कुछ और दिखाई देता। यह जो अन्ना आन्दोलन और केजरीवाल एण्ड कम्पनी की जलवानुमाई आपने पिछले कुछ वर्षों में देखी…यह पूरा भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन उसी आज़ादी बचाओ आन्दोलन के टूटते-बिखरते खण्डहर से निकली धारा थी। मुझे वह समय याद आ रहा है, जब हमने मॉरीशस के रास्ते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा हर साल की जा रही देश के क़रीब सत्तर हज़ार करोड़ रुपये की लूट के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया तो अरविन्द केजरीवाल ने बड़ी मेहनत से ज़रूरी दस्तावेज़ जुटाने का काम किया था।

आज की तारीख़ में आज़ादी बचाओ आन्दोलन को ज़्यादा लोग नहीं जानते। नई पीढ़ी को नहीं पता कि यही वह संगठन है, जिसने बहुराष्ट्रीय शब्द दिया ही नहीं, बल्कि इस पूरे मुद्दे को देश की सीमाओं के पार वैश्विक स्तर पर चर्चा के केन्द्र में लाने का काम किया। वे दिन मुझे याद हैं जब इलाहाबाद में आन्दोलन का जलवा अजब ही हो गया था। एक बार हमने घोषणा कर दी कि हम लखनऊ में रैली करेंगे। यह सिर्फ़ घोषणा भर थी, काम कुछ नहीं किया गया था। लखनऊ पहुंचने वाले गिनती के सिर्फ़ कुछ सौ लोग थे, पर तब के मुख्यमन्त्री मुलायम सिंह यादव ने हमारी सुरक्षा में हज़ारों पुलिसकर्मी लगा दिए। बाद में वे मिले और उन्होंने कहा कि यह मेरा दायित्व है, आप लोग अच्छा काम कर रहे हैं मैं आपके समर्थन में हूं। 

हमने विचारधारा की कोई ज़िद नहीं पाली थी। हमारे दरवाज़े खुले थे कि जो भी देश-समाज का भला चाहता हो, इस काम में सहयोगी बन सकता है। मार्क्सवादी छात्र संगठन ‘आइसा’ वग़ैरह हमारे साथ थे। समाजवादी धारा के जार्ज फर्नाण्डीज, रविराय, सुरेन्द्र मोहन जैसे लोग एक समय में पूरी तरह से राजनीति छोड़कर आज़ादी बचाओ आन्दोलन में शामिल हो गए थे; पर थे अन्ततः राजनीति के कीड़े, इसलिए चोर-चोरी से जाए, पर हेराफेरी कैसे छोड़े…तो बाद में हम लोगों ने मजबूरन राजनीतिक लोगों के लिए आन्दोलन में शामिल होने पर पाबन्दी लगाई। शुरू में विद्यार्थी परिषद के लोग हमारे साथ शामिल होते थे। बाद के दिनों में उन्हीं के ज़रिये यह मुद्दा आरएसएस तक पहुंचा और हम लोगों ने उनका स्वदेशी जागरण मंच बनवाने में काफ़ी सहयोग किया। हमारा जितना शोध था, पर्चे-पोस्टर थे, सब उनको उपलब्ध कराया।

स्वदेशी जागरण मंच के शुरू के जितने भी पर्चे-पोस्टर थे, वे सब आज़ादी बचाओ आन्दोलन या कहें, लोक स्वराज्य आभियान के पर्चे-पोस्टर थे। उन पर बस हमारा नाम हटाकर स्वदेशी जागरण मञ्च का नाम चस्पां कर दिया गया था। हमारा उद्देश्य बस इतना था कि जैसे भी हो, स्वदेशी का मुद्दा देश में प्रचारित होना चाहिए। हमें हर संस्था-संगठन में प्यारे लोग मिले। स्वदेशी जागरण मंच में भी कई प्यारे लोग थे, पर उनकी दिक़्क़त यह थी वे भाजपा की रीति-नीति पर ही निर्भर थे और कई बार उन्हें अपनी इच्छा के विपरीत चलना पड़ता था।

ख़ैर, बातें यादें बड़ी-बड़ी हैं,पर असली बात है कि मुद्दा महत्त्वपूर्ण है, जिसे आज क़ुदरत के करिश्मे ने प्रासंगिक बना दिया है। मजबूरी में ही सही, इन राजनीतिक घोषणाओं का स्वागत किया जाना चाहिए,पर सिर्फ़ घोषणाओं से बात नहीं बनती। आज़ादी बचाओ आन्दोलन जिस समाज-व्यवस्था की बात करता रहा है, उस पर गम्भीरता से सोचा जाना चाहिए। अभी वक़्त है, शायद इस दिशा में कुछ काम आगे बढ़ जाय, वरना आदमी कुत्ते की पूंछ से कहां कम है! 

जैसे ही कोरोना का डर ख़त्म होगा, हम फिर वही प्रकृति-विरोधी रंग-ढंग अपनाना शुरू कर देंगे, जिसके ख़ामियाज़े के तौर पर इस हस्र तक पहुंचे। तीन दशक पहले की गई आज़ादी बचाओ आन्दोलन की भविष्यवाणियां हूबहू सच साबित हो रही हैं। स्वदेशी-स्वावलम्बन की पटरी से देश के उतरने के नतीजे का परावलम्बन इससे बड़ा क्या हो सकता है? यह रोज़गार की कैसी अवधारणा, जो करोड़ों लोगों को पलायन पर मजबूर कर दे और एक अदना-से कोरोना का आतङ्क आते ही विकास के पहियों तले कुचल दे। हज़ार-हज़ार किलोमीटर दूर से इस मुश्किल की घड़ी में किसी भी तरह से अपनी चौखट छू लेने की चाहत लिए लोग पैदल निकल पड़ें और आधी दूरी नापते-नापते दम तोड़ने लगें, तो देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?

स्वदेशी के सहारे स्वावलम्बन का मर्म समझा गया होता तो आज ये दिन देखने की नौबत नहीं आती। विदेशी यात्राएँ भी हम ज़रूरत भर को करते और इस तरह वहां से कोरोना की सौगात लेकर नहीं आते। अगर यह वायरस किसी प्रोयगशाला में विकसित किया गया है, तो भी यही समझिए कि इसके पीछे दुनिया पर व्यापारिक क़ब्ज़े की ही मानसिकता ही काम कर रही है, जो स्वदेशी की अवधारणा में सम्भव नहीं हो सकती थी। स्वदेशी का मतलब सिर्फ़ यह नहीं है कि विदेशी के बजाय देशी समान ख़रीद लिया जाय। स्वदेशी एक पूरी विचारधारा है, जो हर तरह के शोषण के विरुद्ध समाज को आत्मनिर्भर बनाती है। स्वदेशी की समझ हमारे सत्ताधीशों को हो जाए तो बेरोज़गारी की समस्या का समाधान आसान हो जाएगा। स्वदेशी समाज के रिश्ते मजबूत करती है और ख़ुद की अस्मिता से गुज़रते हुए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को सही मायने में चरितार्थ करती है।

मैं यही कह सकता हूं कि हर सोचने-समझने वाले व्यक्ति को इसे अपनी चिन्तनधारा में शामिल करना चाहिए और आवाज़ उठानी चाहिए कि आख़िर इस देश को हमें किस रास्ते पर ले जाने की ज़रूरत है। शिद्दत से याद करना चाहिए कि देश की आबादी वही है, पर लॉकडाउन के इस कोरोना-काल में सिर्फ़ हमारी हरकतें बदलीं कि नदियां, हवा, आसमान… सब मुस्कराने लगे। इतना साफ़-सुथरा प्रदूषणमुक्त पर्यावरण तथाकथित विकास-काल में इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। मैं महानगर की इस घनी आबादी में कई दिनों से देर शाम कोयल की कूंक सुन रहा हूं। साफ़-सुथरे आसमान में तारे गिनने के दिन जैसे फिर लौट आए हैं। मतलब साफ़ है, समस्या आदमी की आबादी से नहीं, उसकी हरकतों से है।

हरकतें राह पर हों तो प्रकृति जीवन के रास्ते में कभी बाधा नहीं खड़ी करती, क्योंकि प्रकृति की प्रकृति बुनियादी रूप से जीवनोन्मुखी है। चिकित्साविज्ञानी भी कहते हैं कि साफ़ हवा और सूरज की रोशनी संसार के सबसे बड़े एण्टीवायरल उपादान हैं। इनका संयोग सही रहे तो कोई भी वायरस जीवन के लिए ख़तरनाक नहीं हो सकता। आहार-विहार के साथ प्रदूषण रोग-प्रतिरोधक शक्ति में पलीता लगाने का सबसे बड़ा कारक है। याद रखने की बात है कि अगर आदमी ने अपनी हरकतों से ज़हरीला न बना दिया हो तो, जङ्गल के साफ़ पर्यावरण में किसी जीव-जन्तु को कभी डॉक्टर और अस्पताल की ज़रूरत नहीं पड़ती।

कुल बात यह कि क्या हमारे रहनुमा कोरोना को सचमुच प्रकृति का सबक़ मान पाएंगे और देश को विकास के सही रास्ते पर ले जाने का काम कर पाएंगे…या कुछ दिनों बाद हम फिर उसी भेड़चाल में शामिल होने को अभिषप्त होंगे? महाबली अमेरिका के घुटने टेक देने के बाद भी प्रकृति को जीत लेने का हमारा दम्भ अगर कम न हो तो क्या किया जा सकता है! प्रकृति का क्या, वह ख़ुद को सन्तुलित करना जानती है। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन कोरोना से हज़ार गुना ख़तरनाक वायरस आए और सूरज, चांद, सितारों की तमाम दूरियां नापते रहने के बावजूद सारा हिसाब-किताब बराबर हो जाए।

लोकल पर वोकल होइए और इसे ग्लोबल बनाइए…यह अच्छा है, पर महज़ नारा न हो तो। बीस लाख करोड़ का पैकेज भी लोगों का सहारा बन सकता है, पर इसका भी सही इस्तेमाल हो तो। अभी का हाल यह है कि हरेक कोरेण्टाइन व्यक्ति पर हर दिन के लिए छह हज़ार रुपये की रक़म तय की गई है, पर कई इलाक़ों में मरीज़ के मांगने पर पीने का साफ़ पानी तक नहीं दिया जा रहा। मौतों की बिना पर अफ़सर अपनी जेबें भरना ज़्यादा ज़रूरी समझ रहे हैं। बीस लाख करोड़ के पैकेज का ज़्यादा हिस्सा नेताओं, अफ़सरों की मौज-मस्ती में काम आएगा या आमजन का सहारा बनेगा…इस बात को ठीक से सोचते-विचारते हुए हमारे प्रधानमन्त्री आगे बढ़ेंगे तो सचमुच देश का भला हो सकता है; अन्यथा आम आदमी की नियति में बदहाली और मौत लिखने के लिए सत्ता की कुर्सी पर ब्रह्मा बैठे ही हैं।

( संत समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)