मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर मर्यादाविहीनता


कानूनी मर्यादा से बड़ा सवाल संवैधानिक मर्यादा का है। क्या हमारे देश का प्रधानमंत्री (या संवैधानिक पद पर आसीन कोई भी व्यक्ति) बतौर प्रधानमंत्री किसी धार्मिक अनुष्ठान का जजमान बन सकता है?


योगेन्द्र यादव
मत-विमत Updated On :

भगवान राम करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र बिंदु हैं। आस्तिक हो या नास्तिक, हिंदू हो या कोई अन्य धर्मावलंबी, रामचरित इस धरती में पले बड़े हुए हर मानस में रचा बसा है। जिस धरती में अनेक लोगो का दिन राम राम से शुरू होता है वहां जाहिर है उस आदर्श की प्रतिष्ठा में हजारों मंदिर बने हैं, बनेंगे।

वैसे तो किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च के निर्माण से धार्मिकता, नैतिकता या चरित्र निर्माण का कोई प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन सामान्यतः धार्मिकता अपने मूर्त स्वरूप की तलाश करती है। इसलिए आस्था के मूर्त प्रतीकों की सहज स्वीकारोक्ति ही श्रेयस्कर है। प्रगतिशीलता के नाम पर माला, मूर्ति और मंदिर का तिरिस्कार करने या उसका मखौल उड़ाने की प्रवृत्ति आधुनिकता के अज्ञान और अहंकार का प्रतीक है। मंदिर निर्माण की परिणीति है अराध्य देव की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा। इसलिए एक राममंदिर में भगवान राम की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा को शुभ अवसर के रूप में मनाना स्वाभाविक है। सामान्यतः ऐसे किसी आयोजन पर किंतु परंतु नहीं करना चाहिए।

लेकिन 22 जनवरी को अयोध्या में राम जन्मभूमि पर राम मंदिर मैं प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन कोई सामान्य मामला नहीं है। वैसे तो इस स्थल पर राम मंदिर का निर्माण ही अपने आप में कोई सामान्य मामला नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमति हो या न हो, उसके बाद इस अध्याय को समाप्त कर देना ही बेहतर है। आज सवाल सिर्फ इतना है कि जिस तरीके से 22 जनवरी को यह आयोजन किया जा रहा है क्या वह उचित है?

उचित अनुचित की कसौटी क्या हो? इसका जवाब देने के लिए हमें कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। भगवान राम की कथा ही इसकी सबसे सुंदर और प्रामाणिक कसौटी है। भगवान राम को यह देश मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जानता है। उनसे जुड़ी हर किंवदंती मर्यादा का प्रतीक है। इसलिए यह सवाल वाजिब है कि क्या 22 जनवरी का प्राण प्रतिष्ठा आयोजन उस मर्यादा के अनुरुप है जिसके प्रतीक भगवान राम स्वयं थे?

पिछले कुछ दिनों से मंदिर निर्माण की शास्त्रीय मर्यादा के उल्लंघन की चर्चा हो रही है। बेशक इस मामले में शंकराचार्य या अन्य धर्म गुरु जो कुछ बोल दें उसका अक्षरशह पालन जरूरी नहीं है। उनके कहे का कई बार विरोध संभव भी है और जरूरी भी। लेकिन पिछले कुछ दिनों की बहस से एक बात को स्पष्ट है की धार्मिक कर्मकांडों के विधि विधान में कहीं भी मंदिर निर्माण संपन्न होने, यानी उसका शिखर पूरा होने और उसपर पताका लगने, से पहले इष्ट देवता की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। यह स्पष्ट है कि एक स्थापित मर्यादा को तोड़ा जा रहा है और उसका कारण चुनावी कैलेंडर को छोड़कर और कुछ दिखाई नहीं दे रहा। शुभ या अशुभ मुहूर्त के बारे में एंथीनम बहस हो सकती है लेकिन यह भी स्पष्ट है की इस तारीख को चुनते समय चिंता शुभ अशुभ कि नहीं बल्कि चुनाव आयोग की आचार संहिता की रही होगी। यह निश्चित ही मर्यादा विहीनता है।

अगर हम कानूनी मर्यादा की बात करें तो यह आयोजन उसका भी कई स्तर पर उल्लंघन करता है। बेशक सुप्रीम कोर्ट का आदेश मंदिर निर्माण की अनुमति देता है, लेकिन वही आदेश राममंदिर ट्रस्ट के गैर राजनैतिक स्वरूप की व्यवस्था भी करता है। यह जग जाहिर है कि सरकार ने धर्म गुरुओं की बजाय बीजेपी से जुड़ी विश्व हिंदू परिषद और सरकार से जुड़े अफसरों का ट्रस्ट बनाया। यह कोर्ट के आदेश की भावना का उल्लंघन है। देश का कानून किसी भी धार्मिक आयोजन के चुनावी या राजनैतिक इस्तेमाल को प्रतिबंधित करता है, लेकिन 22 जनवरी का आयोजन उस कानूनी मर्यादा की भी धज्जियां उड़ा रहा है।

कानूनी मर्यादा से बड़ा सवाल संवैधानिक मर्यादा का है। क्या हमारे देश का प्रधानमंत्री (या संवैधानिक पद पर आसीन कोई भी व्यक्ति) बतौर प्रधानमंत्री किसी धार्मिक अनुष्ठान का जजमान बन सकता है? हमारे संविधान की मर्यादा स्पष्ट है: अपनी निजी हैसियत में संवैधानिक पदाधिकारी जिस भी धार्मिक मान्यता या रीति रिवाज में शामिल हो सकते हैं, लेकिन उसके पद की मर्यादा उन्हे आधिकारिक रूप से ऐसा करने से रोकती है। सर्वधर्म समभाव की संवैधानिक मर्यादा यह भी कहती है की सरकार सभी संस्थागत धर्मों से बराबर दूरी बनाकर रखे, किसी एक धर्म की तरफ झुकाव हमारी संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है। 22 जनवरी के अनुष्ठान में राज्य और संस्थागत धर्म के बीच की विभाजन रेखा को धुंधला कर दिया गया है। बिना औपचारिक घोषणा के देश में हिंदू धर्म को बाकी धर्मो से ऊपर का दर्जा दे दिया गया है।

लेकिन सबसे गहरा उल्लंघन है धार्मिक मर्यादा का। यहां धार्मिक से अर्थ हिंदू मुसलमान जैसे मजहब से नहीं बल्कि उसके रूढ़ अर्थ से है: धर्म यानी वह जो धारण करने योग्य हो, जो नीति पारायण हो। 22 जनवरी का अनुष्ठान हमारी सभ्यता और संस्कृति की मर्यादा का उल्लंघन है। तुलसीदास कहते हैं “नाहिन राम राज के भूखे। धरम धुरीन बिसय रस रूखे।।”

यानी राम को राज्य की लालसा नहीं है. वे तो धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं, और सांसारिक सुखों से परे हैं। सत्ता के प्रति उपेक्षाभाव हमारी धार्मिक मर्यादा है। लेकिन 22 जनवरी का आयोजन एक शक्ति प्रदर्शन है, और शक्ति हासिल करने का उपक्रम है। यह हिंदू धर्म पर राजनैतिक सत्ता के कब्जे का प्रतीक है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी कविता “दिनो दिना” में एक भव्य मंदिर की स्थापना करने वाले राजा और एक साधु के संवाद के माध्यम से यह कहा कि राजा के अहंकार के प्रतीक ऐसे मंदिर में भगवान का निवास नहीं हो सकता।

ऐसे आयोजन का धर्म, आस्था और मर्यादा से कोई संबंध नहीं है। राम के अनन्य भक्त महात्मा गांधी को याद कर हम यही कह सकते हैं: हे राम!

(योगेन्द्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता और चुनाव विश्लेषक हैं।)