राजनीति जन मानस में कुछ इस कदर हावी हो चुकी है कि किसी को भी राजनीति के अलावा न कुछ दिखाई देता और न ही सुनाई ही देता है, इसका नतीजा है कि इंसान अब सोचने के मामले में भी केवल राजनीति को ही विचारणीय मानने लगा है। यूँ तो यह यह एक वैश्विक संकट है लेकिन भारत में यह संकट कुछ गहरे पैठ गया है। जब चारों तरफ राजनीति का ही बोलबाला हो तो फिर मीडिया भी इससे बचा कैसे रह सकता है।
आज देश दुनिया में राजनीति के अलावा भी विज्ञान, खेल- भाषा-धर्म-संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत खुछ होता है। इन विषयों से जुड़े तमाम तरह के मुद्दों पर समय-समय पर तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं और आजकल तो ई-संगोष्ठियों का सिलसिला भी अच्छा चल निकला है। लेकिन राजनीति से इतर समझे जाने वाले इन विषयों के कार्यक्रम और आयोजन मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बन पाते। किसी तरह ऐसे आयोजनों को मीडिया में जगह मिल भी गई तो उपर वालों की सख्त हिदायत यही होती है कि ऐसे समाचार फीचर और रिपोर्ट्स को कम से कम स्थान देकर निपटा दिया जाए।
ऐसे ही निपटा दिए जाने वाले आयोजनों में एक उदाहरण पिछले दिनों मुंबई स्थित भाषा से जुड़े एक स्वैच्छिक संगठन, “वैश्विक हिंदी सम्मेलन” के बैनर तले हिंदी भाषा और उसकी बोलियों के सम्बन्ध में आयोजित ई संगोष्ठी का भी लिया जा सकता है। कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी से सम्बंधित इस कार्यक्रम को देश के मीडिया ने थोडा सा स्थान देकर निपटाना तो दूर इसे थोड़ी सी भी जगह देने के लायक ही नहीं समझा। शायद इसी वजह से न तो यह कार्यक्रम कहीं देखा, सुना या पढ़ा गया बल्कि इसकी चर्चा भी मीडिया घरानों के किसी भी मंच पर नहीं हुई।
गौरतलब है कि हिंदी, इसकी बोलियों और अष्टम सूची से सम्बंधित एक ई-संगोष्ठी विगत 10 अक्टूबर को आयोजित की गई थी जिसमें वैश्विक हिंदी सम्मेलन के भाषा शास्त्रियों में साथ ही देश के अलग- अलग हिस्सों में सक्रिय हिंदी संगठनों और विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के ने हिस्सा लिया था।
संगोष्ठी में भाग लेने वाले हिंदी विद्वानों में ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के निदेशक डॉ. एमएल गुप्ता, सम्मेलन की संयोजक डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य, वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष अनिल शर्मा ‘जोशी’, हिंदी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ, मुंबई विश्व विद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय, सिडबी के उपमहाप्रबंधक एवं लेखक डॉ. आरवी सिंह, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. मंगला रानी, वरिष्ठ पत्रकार विजय कुमार जैन तथा रेलवे बोर्ड के निदेशक डॉक्टर वरुण कुमार के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इस अवसर पर चर्चा की विस्तार में शुरुआत करते हुए वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक ने बताया कि-
आजकल वोट बैंक की राजनीति का एक नया ट्रेंड निकल पड़ा है जिसके तहत देश के विभिन्न क्षेत्रों के राजनेता अपने क्षेत्र में बोली जाने वाली हिंदी की बोली यानी उपभाषा को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल कर भाषा का दर्जा दिलाने की मांग बड़ी तेजी से करने लगे हैं। इस मांग के चलते हिंदी के विकास का रास्ता भी अवरुद्ध होता दिखाई देने लगा है और दूसरी तरफ हिंदी की ये बोलियाँ भी हिंदी की प्रमुख सहायकों के रूप में अपनी पहचान ख़त्म होने के आसन्न खतरे तक पहुँच गई हैं।
भाषाओं के साथ-साथ उनकी बोलियों का भी समान्तर तरीके से विकास होना चाहिए और सरकार को इसके लिए भरपूर मदद भी करनी चाहिए, इस सत्य को कोई भी नकार नहीं सकता। लेकिन साथ ही एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि हिंदी क्षेत्र की बोलियों को अष्टम अनुसूची में शामिल किया गया तो हिंदी जिला स्तर की भी भाषा नहीं रह जायेगी। और फिर विघटन की यह प्रक्रिया अन्य भारतीय भाषाओं में प्ररंभ हो जाएगी इसका एक बुरा असर इस रूप में भी देखने को मिलने लगेगा कि तब पूरे देश पर अंग्रेजी का एकछत्र राज स्वत: स्थापित हो जाएगा।
इस सन्दर्भ में मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय का यह कथन एकदम सही प्रतीत होता है कि- देश में लगातार गुपचुप अंग्रेजी थोपी जा रही है लेकिन कोई विरोध नहीं करता। लेकिन जैसे ही हिंदी की बात आती है विरोध शुरु कर देते हैं। हिंदी एक साथ कई मोर्चों पर अंग्रेजी से संकट का सामना कर रही है ऐसे में हिंदी की बोलियों का विकास कर हिंदी और उसकी बोलियों को मजबूत बनाने की जरूरत तो है लेकिन यह काम हिंदी की बोलियों को आठवीं सूची में शामिल कर भाषा का दर्जा देने से नहीं होगा, इससे तो हिंदी और कमजोर होगी।
हिंदी के कमजोर होते ही उसकी बोलियाँ भी स्वतः कमजोर हो जायेंगी क्योंकि अंग्रेजी इन सबको लील जायेगी। इसी सन्दर्भ में पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना की हिंदी विभाग की प्रो. मंगला रानी का मानना है कि हिंदी की जो बोलियाँ अष्टम अनुसूची में शामिल हो गई हैं, उनका हिंदी के प्रति व्यवहार अब अत्यधिक आक्रमक दिखाई देता है। भाषा और उसकी बोलियों के सह सम्बन्ध को लेकर वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का यह कथन प्रसंगवश उचित जान पड़ता है कि बोलियाँ के लिए बोलियाँ शब्द का प्रयोग न कर इन्हें सहभाषा कहा जाना ज्यादा उचित होगा। सब भाषाएँ एक जैसी क्षमताओं से युक्त हैं।
भाषाओं के वर्तमान और भविष्य को लेकर चिंता व्यक्त करने के सन्दर्भ में राहुल देव की यह बात भी गौर करने लायक है कि- इस बाबत 1967 में अंतिम बार गंभीर चिंतन किया गया था उसके बाद ऐसा चिंतन, भाषा विमर्श देखने में नहीं आया। उनका यह भी साफ़ कहना है कि अगर कथित विवादास्पद सूची को बदलने की जरूरत महसूस हो तो उसे भी बदलना चाहिए ताकि इस सूची में शामिल होने की होड़ ही न लग सके।
प्रसंगवश कोलकाता विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, प्रो. अमरनाथ, का यह कहना एकदम ठीक है कि हिंदी की बोलियों को अलग भाषा बना कर उससे अलग करना हिंदी को तोड़ने जैसा ही है और आज हिंदी को तोड़ने की ये साजिशें हो रही हैं। हिंदी को तोड़ने का मतलब सीधे-सीधे देश को ही तोड़ने जैसा ही हुआ इसलिए सभी को देश को टूटने से बचाने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। राहुल देव की तरह प्रोफेसर अमरनाथ भी बोलियों का संबोधन उचित नहीं मानते उनकी राय में बोलियों के स्थान पर जनपदीय भाषाएं कहना उचित होगा।