कंगाली और भुखमरी को बढ़ाने के लिए खामोशी से काम करते हैं कानून


चंद लोगों की आमदनी जिस रफ्तार से बढ़ी है और उसके क्या कारण हो सकते है? पूंजीपतियों के साथ कमाई करने में सभी की हिस्सेदारी होती है और उनमें शहरी मध्य वर्ग से लेकर, ग्रामीण क्षेत्रों के अमीर और लोकतंत्र के संस्थान मसलन मीडिया भी शामिल होता है।


अनिल चमड़िया
मत-विमत Updated On :

भारत में 2014 के मुकाबले 2019 में भुखमरी दोगुनी हो गई है। हालात यह हो गए हैं कि भारत अपने आसपास के सभी देशों जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका शामिल है, से भुखमरी के मामले में आगे है। 2014 में जब एक अध्ययन किया गया तो यह पाया गया था कि भुखमरी के मामले में भारत 55 वें स्थान पर था लेकिन 2019 में वह 117 वें स्थान पर पहुंच गया है।

यह शोर सबसे ज्यादा बढ़ा है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह भी शोर मचाते है कि हम दुनिया का एक सुपर पॉवर बन रहे हैं। महाशक्ति बनने का शोर क्या भूख की बढ़ती समस्या से निकलने वाले आंसुओं, चीख, तकलीफों और नारों को दबाने के लिए होती है? यही सच है कि गरीबी के खिलाफ राजनीति को दबाने के लिए ही महाशक्ति यानी राष्ट्रवाद के वाल्यूम को तेज कर दिया जाता है। इंदिरा गांघी के शासन तक गरीबी हटाओं को नारा लगा था। लेकिन वह गरीबी का नारा राष्ट्रवाद के नारे से दबता चला गया। इंदिरा गांधी की राजनीति सत्ता के केन्द्रीकरण और राष्ट्रवाद के नारे में सिमटती चली गई। नरेन्द्र मोदी की सरकार बनते बनते यह किस रूप में सामने आया है इसे इंडेक्स के जरिये ही नहीं बल्कि दूसरे उदाहरणों से भी समझा जाना चाहिए।

भुखमरी बढ़ने का रिश्ता लोकतांत्रिक अधिकारों और समानता की राजनीति के कमजोर होने से जुड़ा होता है। उदाहरण है कि नरेन्द्र मोदी ने चुनाव में 2019 की जीत के बाद यह कहा कि अमीरों का सम्मान करों क्योंकि वे गरीबों की मदद करते हैं। संविधान हमने बनाया था कि हर नागरिक खुद को एक दूसरे के बराबर सम्मानित महसूस करें। ऐसे हालात में नागरिकता की राजनीति समानता के बजाय गरीब और अमीरी की व्यवस्था की स्वीकृति की तरफ बढ़ती है। गरीब अधिकार की बात नहीं करेगा और वह दया की भीख पर निर्भर रहना सीखता जाएगा। जबकि वह गरीब नहीं रहने के अपने अधिकार के साथ जी रहा था।

यह समझने की जरूरत हैं कि जिस तरह से गरीबी के खिलाफ नारे तैयार होते हैं, संगठन बनते हैं, संघर्ष किए जाते हैं और यह रोज ब रोज की राजनीति का हिस्सा होता है। उसी तरह से अमीरी को बरकरार रखने के भी संगठन और नारे रोज ब रोज और हर क्षण सक्रिय रहते हैं। वे नये-नये नारे तैयार करते हैं। उन नारों के शब्द उनकी दुनिया को सुरक्षित बनाए रखने के साथ गरीबी के खिलाफ राजनीति पर हमले के लिए प्रेरित करने वाले होते हैं।

यह शोर मचाया जाता है कि देश में जीडीपी यानी विकास की दर बढ़ रही है लेकिन यह भी संभव है कि विकास दर के बढ़ने के साथ ही भूखमरी की समस्या भी बढ़े। मसलन छत्तीसगढ़ में यदि जीडीपी बढ़ी है तो कुपोषण की समस्या भी बढ़ी है। यह बात राज्य के नए मुख्यमंत्री अपनी सभाओं में बोलते हैं। वहां आदिवासियों की हालात सबसे बुरी है जबकि छत्तीसगढ़ में संसदीय लोकतंत्र के हिसाब से वोटो की गिनती में उनकी संख्या सबसे ज्यादा है।

विकास की नीतियां दो तरह से बनाई जा सकती है। एक नीति वह हो सकती है कि कुछ लोगों की संपति में बढ़ोतरी हो और बाकी के लोगों के बीच बदहाली बढ़ने की चिंता नहीं हो। दूसरी नीति यह हो सकती है कि ऐसी योजनाएं बने जिसमें सभी को एक समान आमदनी के स्रोत उपलब्ध हो और उसमें आमदनी के संपति में बदलने की आशंकाएं कम से कम हो। हम किस तरह बढ़ते गए हैं और किसे विकास कहते है उसे समझने की जरूरत हैं। विकास की उल्टी दिशा को हम गरीबी की स्थिति में बदलाव से जोड़ देते हैं।

देश में औसत आमदनी के बढ़ने का ढिंढोरा पीटा जाता है। यह औसत शब्द अमीरी के पक्ष में झुका रहता है। औसत का मतलब यह कतई नहीं है कि सभी नागरिकों की आमदनी के स्रोत में बढ़ोतरी हो रही है। कुछ घरानों के संपन्न होने और देश में आम लोगों के बीच गरीबी के बढ़ने के बीच सीधा रिश्ता होता है। 1950-1951 और 1960-61 के बीच राष्ट्रीय आमदनी तो 42 प्रतिशत बढ़ी, लेकिन यह राष्ट्रीय आमदनी का बंटवारा गैर बराबरी से भरा था। खेती में लगे मजदूरों की औसत आमदनी एक साल में 1950-51 में जो 447 रुपये थी वह 1956-57 में घटकर 437 रुपये हो गई। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार छह करोड़ (उस समय की जनसंख्या 36,10,88,090 थी) लोग ऐसे थे जो रोजाना पांच आने (तीस नये पैसे) की आमदनी पर जिंदा रहते थे जिनमें दो करोड़ लोग ऐसे थे जो दो आना (बारह नये पैसे) से कम पर गुजारा करते थे। केवल एक प्रतिशत लोगों की जेब में राष्ट्रीय आय का 11 प्रतिशत गया। 1970 की रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की बुलेटिन के अनुसार 1967-68 में 20.6 मिलियन लोग 34 नया पैसा प्रतिदिन पर, 41.3 मिलियन लोग 81 नये पैसे और 82.6 मिलियन लोग 103 नये पैसे पर जिंदा रहते थे। यानी 20 करोड 64 लाख लोग प्रतिदिन एक रुपये या उससे कम पर अपना जीवन निर्वाह करते थे।

1951 के बाद स्थिति पर एक नजर डालें। 2007 में अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट के अनुसार 76 प्रतिशत से ज्यादा लोगों द्वारा रोजाना बीस रुपये से कम पर गुजारा करते हैं। यह अध्ययन असंगठित क्षेत्र के कामगारों के जीवनस्तर की जानकारी हासिल करने के लिए किया गया था। बीस रुपये से कम पर जीने वाली इतनी बड़ी जनसंख्या में दो, तीन, चार, पांच और दस रुपये पर रोजाना जीने वालों की संख्या सर्वाधिक हैं।

प्रो. सुरेश तेंदुलकर समिति का अध्ययन देश में बहुसंख्यक आबादी की और बदत्तर हालात को दिखाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्था ऑक्सफेम ने एक अध्ययन के बाद यह अभी बताया है कि भारत के केवल नौ पूंजीपतियों के पास इतनी संपति हैं जो कि देश की आधी आबादी के पास है। यानी देश की साठ करोड़ आबादी के बराबर नौ पूंजीपतियों के पास संपति सिमट चुकी है और पूंजीपतियों के पास संपत्ति का सिमटना जारी है। देश की 10 प्रतिशत आबादी ऐसी है जो कि 2004 से कर्ज की हालात से उबर नहीं सकी है।

चंद लोगों की आमदनी जिस रफ्तार से बढ़ी है और उसके क्या कारण हो सकते है ? पूंजीपतियों के साथ कमाई करने में सभी की हिस्सेदारी होती है और उनमें शहरी मध्य वर्ग से लेकर, ग्रामीण क्षेत्रों के अमीर और लोकतंत्र के संस्थान मसलन मीडिया भी शामिल होता है। सब तरह के मीडिया पर कब्जा करने की योजना यह पक्का करने की बात से जुड़ी है कि अमीरी कैसे बढ़ती रहे। कब्जा का अर्थ हर तरह के तकनीक पर आधारित मीडिया यानी समाचार पत्र, रेडियों, टेलीविजन, इंचरनेट आदि पर एकाधिकार तक सीमित नहीं है। मीडिया के साथ दूसरे उद्योगों पर भी नियंत्रण करने के रूप में यह फैला हुआ है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)