लोकसभा टेलीविज़न : अनूठी संसदीय रिपोर्टिंग के चौदह बरस


ब्रिटेन जैसे देश में बीबीसी पार्लियामेंट नाम से ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन का संसद को समर्पित एक चैनल यह काम करता था, आज भी करता है और भारत में यह काम प्रसार भारती का एक दूरदर्शन टीवी चैनल किया करता था। लोकसभा टीवी को पहला संसदीय टीवी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे एक ऐसे टेलीविज़न चैनल के रूप में स्थापित और विकसित किया गया था।



चौदह बरस यानी एक दशक और पूरे चाल साल, मतलब उतना ही समय जितने समय के लिए राम को अयोध्या छोड़ कर वनवास में रहना पड़ा था। इस 24 जुलाई को देश ही नहीं दुनिया के पहले संसदीय टेलीविज़न चैनल लोकसभा टेलीविज़न ने भी अपनी स्थापना के 14 साल पूरे कर लिए। टेलीविज़न की पत्रकारिता का यह प्रयोग इसलिए अनूठा माना जाता है क्योंकि यह विश्व का पहला ऐसा टेलीविज़न चैनल है जिसका स्वामित्व संसद के किसी सदन के पास है। लोकसभा सचिवालय इसका स्वामित्व देखता है। लोकसभा टीवी के बाद इसी तर्ज पर शुरू किये गए राज्य सभा टेलीविज़न को दूसरा संसदीय टीवी कहलाने का सौभाग्य हासिल हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि लोकसभा टीवी के शुरू होने से पहले संसदीय कामकाज की रिपोर्टिंग न होती हो, सब कुछ होता था। 

ब्रिटेन जैसे देश में बीबीसी पार्लियामेंट नाम से ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन का संसद को समर्पित एक चैनल यह काम करता था, आज भी करता है और भारत में यह काम प्रसार भारती का एक दूरदर्शन टीवी चैनल किया करता था। लोकसभा टीवी को पहला संसदीय टीवी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे एक ऐसे टेलीविज़न चैनल के रूप में स्थापित और विकसित किया गया था जो निजी क्षेत्र के साथ ही सरकारी क्षेत्र के नियंत्रण और तनाव से भी पूरी तरह मुक्त हो और विशुद्ध रूप से संसद के अपने टेलीविज़न के रूप में काम करे। इसीलिए स्वामित्व से लेकर प्रबंधन, प्रशासन, नियुक्ति और कार्यक्रम नियोजन समेत चैनल के तमाम कार्य लोकसभा सचिवालय को ही सौंप दिए गए थे।

मकसद यह भी था कि हमारे मीडिया ने जिस तरह संसदीय कामकाज को स्थान देना बंद कर दिया था उसकी भरपाई संसद को उनके टीवी बॉक्स के जरिये आम आदमी के घर तक पहुंचाई जाए। यह काम सरकार या कोई भी एजेंसी इतनी पूर्णता से नहीं कर सकती थी इसलिए संसदीय सचिवालय को ही इसके लिए अधिकृत किया गया। शुरू में संसद के दोनों सदनों के सचिवालयों के मिलन और सहयोग से संसद टेलीविज़न नेटवर्क के नाम से संसद के एक संयुक्त टेलीविज़न की स्थापना की योजना थी, राज्य सभा की कुछ आपात्तियों के चलते संसद के साझा टेलीविज़न की योजना तब लागू नहीं हो सकी थी इसीलिए एकला चलो की नीति के चलते लोकसभा सचिवालय ने 24 जुलाई 2006 से अपने चैनल की विधिवत शुरुआत कर दी थी।

लोकसभा टीवी के नक़्शे कदम पर चलते हुए कुछ साल बाद राज्य सभा का चैनल भी वजूद में आ गया। अभी तक दोनों चैनल स्वायत्त रूप से अपना काम कर रहे हैं। एक बार फिर दोनों को मिला कर संसद का एक साझा चैनल संसद टेलीविज़न नेटवर्क बनाने की योजना पर भी काम पूरा कर लिया गया है। योजना को लागू करने की प्रक्रिया तेजी पर है। इसी प्रक्रिया के चलते देश ही नहीं दुनिया के पहले संसदीय टेलीविज़न चैनल लोकसभा टीवी के कर्मचारियों और अधिकारियों के सर पर छंटनी की तलवार लटक रही है। 

लोकसभा टेलीविज़न को इसलिए भी अपवाद टेलीविज़न कहा जाता है क्योंकि इसके संस्थापक मुख्य कार्यकारी (चीफ एग्जीक्यूटिव) भास्कर घोष हमेशा एक बात कहा करते थे कि,यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि लोकसभा टीवी एक समाचार चैनल नहीं बल्कि एक विचार का चैनल है। (Mind it LSTV is not a news channel, it is a views channel) उनके इस कथन का अभिप्राय यही हुआ करता था कि इस चेनल का जो चरित्र तैयार किया गया है उसमें हमको ख़बरों के पीछे भागने के बजाय संसद से जुडी हुई तमाम ख़बरों के विस्तार से विश्लेषण पर ध्यान देना चाहिए। 

खबरिया चैनल तो तब भी बहुत थे लेकिन उस भीड़ में भी लोकसभा टीवी अलग इसलिए दिखाई देता था क्योंकि लोकसभा टीवी संसद की बैठकों के दिनों में भी और सत्र के अवसान के दौर में भी संसद में पारित विधेयकों, संसदीय समितियों के कामकाज और संसद में संपन्न कामकाज की लाइव रिपोर्टिंग करने के साथ ही संसद की गतिविधियों से जुड़े इन तमाम विषयों पर तैयार किये गए कार्यक्रमों का प्रसारण ही प्रमुखता से करता था। अलग – अलग विषयों पर विषय विशेषज्ञों के साथ स्टूडियो में होने वाली चर्चाओं के साथ ही लोकसभा टीवी की टीम देश के दूर दराज के इलाकों में जाकर संसद और जमीन से जुड़े मुद्दों पर फील्ड रिपोर्ट और वृत्त चित्र भी तैयार किया करती थी। ऐसा ही एक कार्यक्रम ग्राम सभा के नाम से भी प्रसारित होता था जो बहुत लोकप्रिय भी था।

संसद सत्र के दिनों में चैनल के कार्यक्रमों की शुरुआत एजेंडा नामक कार्यक्रम से होती थी जिसमें उस दिन संसद में होने वाले कामकाज पर चर्चा होती थी, दोपहर में संसदनामा के नाम से प्रसारित कार्यक्रम में सुबह 11 बजे से लंच तक सदन में हुए कामकाज पर और देर शाम संसद में पूरे दिन में हुए कामकाज पर चर्चा की जाती थी। संसद के सत्रावकाश के दौरान यही तीनों कार्यक्रम बदले नामों से प्रसारित होते थे। सुबह का एजेंडा कार्यक्रम अखबारों की सुर्ख़ियों पर चर्चा का आधार बनता था तो दोपहर का संसद्नामा उस दिन के किसी ख़ास घटनाक्रम पर चर्चा का माध्यम बनता था। शाम को दिन भर की किसी ख़ास हलचल पर एक घंटे की चर्चा हिंदी में लोकमंच नाम से और अंग्रेजी में पब्लिक फोरम के नाम से हुआ करती थी चौदह साल बाद भी ये सभी कार्यक्रम आज भी किसी न किसी रूप में उसी तरह प्रसारित हो रहे हैं लेकिन कार्यक्रमों के स्तर में पहले जैसी बात नहीं रही। 
इसकी एक बड़ी वजह शायद यह भी है कि विगत छः वर्ष पूर्व देश की शीर्ष राजनीति में हुए परिवर्तन के फलस्वरुप अब संसद और सरकार के कामकाज में कोई फर्क नहीं रह गया है। चैनल पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम भी सरकार की स्तुति का ही पर्याय बन कर रह गए हैं। जबकि अपनी स्थापना के आठ साल बाद तक यही चैनल अपने कार्यक्रमों के माध्यम से सरकारी काम की जरूरतभर आलोचना करता ही था। अब तो नीतिगत और दूसरे मुद्दों पर स्टूडियो में होने वाली चर्चाओं में भी एक ही पक्ष के विशेषज्ञ आपस में मंत्रणा करते दिखाई देते हैं। 

इस चैनल की शुरुआती और संस्थापक टीम भी जबरदस्त थी। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त वरिष्ठ अधिकारी भास्कर घोष जो तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के मीडिया सलाहकार भी हुआ करते थे, इस चैनल के मुख्य कार्यकारी भी थे। दूरदर्शन के स्थापित न्यूज़ रीडर सुनीत टंडन, दूरदर्शन के ही सुधीर टंडन, एनडीटीवी की वर्तिका नंदा, यूएनआई के बीबी नागपाल, जामिया के विनोद कौल, दूरदर्शन के ही बाबू खान समेत टेलीविज़न और पत्रकारिता की दुनिया की एक स्थापित टीम के सदस्य अलग-अलग रूपों में इससे जुड़े थे। इन्हीं संस्थापक लोगों की भीड़ में एक इन पंक्तियों का लेखक भी था।