कृष्ण को राधा से प्यार था, लेकिन जब वे गोकुल छोड़कर गए तो फिर लौटकर उन्हें देखा तक नहीं। बाद में उन्होंने बहुत सी शादियां कीं। ज्यादातर प्रेम विवाह। और आठ तो उनकी पटरानियां थीं। राधा का नाम उनकी ब्याहताओं में नहीं आया। न ही इस बात की कोई जानकारी है कि लड़कपन के उस दौर के बाद कृष्ण ने फिर कभी राधा की कोई खोज-खबर ली हो।
लेकिन प्रेम का श्रेष्ठतम रूप अपने यहां राधा और कृष्ण के संबंध को ही माना जाता है। लैला-मजनूं और रोमियो-जूलियट जैसी अमर प्रेम की जोड़ियों के सामने आज भी हम राधा-कृष्ण को ही रखने लायक पाते हैं।
सवाल यह है कि प्यार क्या एक ही बार होता है? क्या इसमें जुए या सट्टे जैसी कोई बात है, जो कभी एक ही बार में लग जाता है तो कभी हजार कोशिशों के बाद भी नहीं लगता?
कई लोग सोचते रह जाते हैं कि वह एक ही बार वाला कब होगा। पता नहीं कभी होगा भी या नहीं। उसे खोजने की कोशिश में ट्रायल एंड एरर में जुटे रहते हैं, जब तक बस चले और उमर साथ दे।
लेकिन जिन्हें सालोंसाल यह लगता रहता है कि वे जीवन में एक ही बार होने वाले प्यार में हैं, वे भी जिंदगी का ग्राफ बदलने के साथ जब-तब खुद को उसमें जकड़ा हुआ महसूस करते हैं और पहला मौका मिलते ही उससे जान छुड़ाने की कोशिश करते हैं। रिश्तों का इस तरह दरकना काफी तकलीफदेह होता है।
वे किसलिए दंडित हैं? आखिर उनका दोष क्या है?
प्रेम कमिटमेंट मांगता है। दोनों तरफ से कुछ-कुछ छोड़ने की गुजारिश करता है। लेकिन जिंदगी अक्सर प्रेम से भी ज्यादा, बहुत ज्यादा कमिटमेंट मांगती है। पहले शायद कुछ कम से भी काम चल जाता रहा हो, लेकिन अब तो वह सर्वस्व मांगने लगी है। बस जरा सी चूक, और डोर पकड़ में आते-आते रह गई।
ऐसी नाकामियों का ठीकरा भी अक्सर प्रेम के ही सिर पर फोड़ा जाता है। लगता है, ऐसी किचकिच से तो अच्छा था नाकामी में ही खुश रह लेते। बाकी जिंदगी के लिए झोली में कुछ अच्छी यादें तो होतीं।
अपने यहां लड़की और लड़के के लिए एक-दूसरे से प्रेम करना आसान कभी नहीं रहा। इसके लिए उन्हें बाकायदा एक जंग लड़नी पड़ती थी और ज्यादातर जगहों पर आज भी लड़नी पड़ती है। महानगरों में हालात कुछ बदले हैं, लेकिन इससे प्रेम करना आसान नहीं हुआ है।
जब लड़कियां करियर-कांशस नहीं थीं, तब प्यार में घर से बागी हुआ लड़का कहीं झाड़ग्राम में जाकर किरानी बाबू हो जाता था और भागी हुई लड़की उसके लिए रोटियां पकाने लगती थी। अब लड़के की जिंदगी उसे खदेड़कर बेंगलूरु या बोस्टन ले जाती है तो लड़की को बड़ौदा या बर्लिन की राह पकड़नी होती है।
जिंदगी ढर्रे पर आते ही पुराने प्यार की तड़प उठती है। सात समंदर पार से लोग सब कुछ छोड़-छाड़कर दोबारा करीब आ जाते हैं। लेकिन उनके फैसले तय करने वाली जो ताकतें उन्हें दूर ले गई होती हैं, वे प्रेम कहानी के सुखद ‘दि एंड’ के बाद भी अपना काम करती रहती हैं।
ऐसे में बेहतर क्या होगा? प्रेम के लिए अपने व्यक्तित्व को ठहरा लेना या जिंदगी की जरूरतों के मुताबिक अपने प्रेम और बाकी रिश्तों को पारिभाषित करना?
ज्यादा नैतिक क्या होगा? प्रेम एक ही बार होता है, ऐसा मानते हुए शाश्वत प्रेम के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देना या पुराने रिश्तों के प्रति शुभकामना रखते हुए नए रिश्तों के लिए दिल के दरवाजे खोल देना?
शाश्वत प्रेम असंभव नहीं, लेकिन वह आपसे बहुत ज्यादा मांगता है। अगर आप उसे अपना सब कुछ सौंप दें तो भी उसके सफल होने के लिए कई सारे संयोगों की जरूरत पड़ती है। लेकिन कृष्ण की तरह बिना किसी से कोई छल किए जिस प्रेम को छोड़कर आप आगे बढ़ जाते हैं, उसकी भी एक अलग शाश्वतता होती है।
बिना कुछ खोने के गम या कुछ पाने की लालसा के, दिल पर कोई बोझ लिए बगैर, बिछड़ने के अरसे बाद अपने प्रिय को भरा-पूरा और खुश देखना भी सच्चे प्यार की एक नियामत है। भले ही यह निस्संगता हासिल करने के लिए आपको दूसरे, तीसरे या चौथे प्रेम से ही क्यों न गुजरना पड़ा हो।