महामारी में महाबंदी की मार बनाम उजाड़ गांव और झुग्गी बस्ती‍ में तब्दील शहरों का “सभ्यता संकट”


साबरमती आश्रम छोड़ने के बाद गांधीजी ने सन् 1936 में तय किया की नया आश्रम भारत के मध्य में हो। वर्धा के पास छोटे से से-गांव में सेवाग्राम आश्रम बना। सेठ जमनालाल बजाज को वह आश्रम बनाना था। शर्त थी कि आश्रम बनाने के लिए जरूरत का सभी कच्चा माल केवल पांच किलोमीटर के दायरे में से ही जुगाड़ा जाए।



संदीप जोशी  

दुनिया आज अभूतपूर्व महाबंदी से गुजर रही है। ऐसी जैसी मानव ने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखी होगी। दुनिया के लोग आज से पहले कभी इतने डरे, घबराए हुए नहीं थे। पिछली शताब्दीे में हुए दो विश्व  युद्धों के दौरान भी दुनिया इतनी आतंकित नहीं हुई थी। जिस दुनिया ने आर्थिक वैश्विकता के लिए नज़दीक आने का वादा किया था आज वही सामाजिक फासला बनाने की प्रार्थना कर रही है। जीवन डरावना और संक्रमित लग रहा है। भविष्य  बिन काम-धाम के अंधकार से गुजर रहा है। मानवीय आस्था बेशक डाक्टरी पर बनी हुई है, मगर आध्यात्मिक आस्था प्रार्थना पर निर्भर है। क्योंकि बदलाव ही निरंतर है, शायद दुनिया का जीवन हर समय के लिए बदल जाए।

आधुनिक सभ्यता की गहन आलोचना करने वाले तो महात्मा गांधी ही थे। उनकी आलोचना का कारण इस सभ्यता को प्रिय लगने वाली तेजी, रफ्तार या गति और इसके अलावा तकनीकी योग्याता पर अति निर्भरता रही। इसी कारण जीवन का आधारभूत -प्रकृति नज़रअंदाज होती रही है। समय की राजनीति, आर्थिकी और अध्यात्म को समझने की गांधीजी में पारंपरिक समझ थी। उनका मानना था कि राज्य व्यवस्था वही आदर्श हो सकती है जिसमें समाज के आखिरी गरीब का भी ध्यान रखने की योजना हो। उनका मानना था कि राष्ट्र की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नीति गांव और गांववालों को केन्द्र में रख कर ही बनायी जानी चाहिए। लेकिन आज गांव उजाड़ और शहर झुग्गी बस्ती  में तब्दील कर दिए गए हैं। 

साबरमती आश्रम छोड़ने के बाद गांधीजी ने सन् 1936 में तय किया की नया आश्रम भारत के मध्य में हो। वर्धा के पास छोटे से गांव में सेवाग्राम आश्रम बना। सेठ जमनालाल बजाज को वह आश्रम बनाना था। शर्त थी कि आश्रम बनाने के लिए जरूरत का सभी कच्चा माल केवल पांच किलोमीटर के दायरे में से ही जुगाड़ा जाए। इससे तीन स्थानीय बातों के बढ़ावे पर जरूरी ध्यान देना था- आर्थिकी, आत्मनिर्भरता और समरसता। सभ्यता के समविकास के लिए यह तीनों महत्व रखते हैं। 

दो-तीन दशक पुरानी वैश्विकता की इच्छा आज भी सामाजिक के बजाए राजनीतिक ही रही है। आज जब पूरा विश्व कोविड 19 महामारी से जुझ रहा है तो कुछ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव आते दिखाई दे रहे हैं। दुनिया चाहे या न देखना चाहे मगर बदलाव छुपे नहीं रह पाएंगे। आज सबसे जरूरी है की दुनिया राजनीतिक आर्थिकी से निकल कर सामाजिक आर्थिकी पर चले। हम सभी जानते हैं कि सबसे धनी 1 प्रतिशत लोग ही दुनिया की 50 प्रतिशत से ज्याहदा सम्पत्ति का मालिकाना हक रखते हैं। दुनिया की सम्पत्ति लगातार कुछ ही हाथों में संग्रहित हो रही है। 

कोविड 19 का सर्वव्यापी बंद दुनिया भर में आर्थिक उदासी लाने वाला है। सरकारें कभी महामारियों के लिए तैयार नहीं रहती हैं। ऐसे समय में उनका बजट घाटा स्वाभाविक है। कोविड महामारी में सबसे धनी 1 प्रतिशत पर समाज की मदद करने का उत्तरदायित्व आता है। इसलिए अगर दुनिया को एक और आर्थिक महामंदी से बचाना है तो राजनीतिक आर्थिकी को सामाजिक आर्थिकी में ढलना होगा। यानी सबसे धनी 1 प्रतिशत को जरूरतमंद गरीब जनता के लिए धन के ट्रस्टी की भूमिका निभानी होगी। जैसे अज़ीम प्रेमजी आगे आएं हैं वैसे ही अन्य रईसों को भी आगे आना होगा। 

इस महाबंदी के कारण दुनिया को सामाजिक दूरी बनाना, और खुद अलग रहने की कला सीखना होगी। सार्वजनिक जीवन ही कोविड 19 संक्रमण के भय का संकट है। उत्साह में गले लगना या गर्मजोशी में हाथ मिलाना फैशन के कारण बाहर नहीं हुआ,बल्कि संक्रमण के फैलने का डर है।

अपने बंद घर में रहने के कारण खुद को जानने का मुश्किल मौका मिला है। हमें खुद से, अकेले में खुद के अंदर झांकने की सीख भी मिली है। हमें अपने परिवार के सदस्यों को समझने और उनकी आदतों को जानने का भी अभूतपूर्व मौका है। इसलिए ऐसे मुश्किल समय में हमें सामाजिक दूरी से निकल कर अंतरात्मा की खोज में लगना होगा। हो सकता है कि पश्चिम सभ्यता में रचे-बसे आधुनिक समाज को यह दकियानूसी लगे लेकिन जितना हम जीते है उतना ही सीखते हैं।

मुश्किल दिनों में दुनिया बदलाव को अपने हिसाब से अलग अगल तरह देखती हैं। पूरब के, और पश्चिम के भी लोगों को सामाजिक दूरी को समझने में भावनात्मक दिक्कतें आई हैं। जब वैश्विक महाबंदी की घोषणा हो रही थी तब भी पश्चिम के लोग छुट्टी की रंगरलियां मनाते और सार्वजनिक आयोजन करते देखे जा रहे थे। वहीं पूरब के लोग रोज़ी-रोटी छिनने से अपने परिवार और घर लौटने की मुश्किलें झेल रहे थे। 

महाबंदी के कारण लोगों को घर में रहना और सामाजिक दूरी बनाना बिलकुल नया है। आज संक्रमित रोगी पूरी तरह उसी चिकित्सा विज्ञान पर निर्भर हैं जो खुद भी असमंजस में फंसा है। मौतों का साया दुनिया में तेजी से फैल रहा है। दुनिया की तकनीकी और आयुर्विज्ञान दोनों कोविड के प्रकोप को पचा नहीं पा रहे हैं। इसलिए दुनिया के लोगों को शूरता में वैज्ञानिक बुद्धिवाद से निकल कर मानवीय अध्यात्मवाद में लगना होगा। 

अभी तक तो यह संक्रमण मानवीय संकट ही है। मानवता जरूर इससे अपने समय से और स्थान पर पार पाएगी। दुनिया जरूर जीएगी,और इस बार सिर्फ योग्यतम ही नहीं जीएगा। इस सब के बीच में हमें बहुत कुछ समझना होगा। सभ्य सामाजिक व्यवहार की जगह सत्ता का राजनीतिक व्यवहार नहीं ले सकता। मानवीयता की जगह पंथ-मज़हब नहीं ले सकते। और अध्या‍त्म की जगह आधुनिकता नहीं ले सकती है। जो सभ्यता प्रकृति को कुछ नहीं समझती है वो अपना अस्तित्व ही खो देती है। अपनी समरसता में, वैज्ञानिक विवेक से और मानवीय आस्था। से हम कोविड 19 से निज़ात पाएंगे।

(सामाजिक,राजनीतिक और खेल विषयों के टिप्पणीकार संदीप जोशी पूर्व क्रिकेटर हैं।)