महात्मा गांधी : ‘पहला’ और ‘आखिरी’ गांधीवादी


महात्मा गांधी रातों-रात नेता नहीं बने थे, न ही उन्होंने जल्दबाजी में कोई आंदोलन खड़ा किया। वे देश के कोने कोने और गली-कूंचों में फिरे, भारत के असली जनमानस से मिले, समझे। दरिद्रता, अज्ञान, अशिक्षा, अंधविश्वास, धार्मिक-सामाजिक पाखंड, शोषण, छुआछूत जैसी कुरीतियों को निकट से समझा और अनुभव भी किया।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
मत-विमत Updated On :

महात्मा गांधी 20वीं सदी के ऐसे राजनेता, समाज-सुधारक और बुद्धिजीवी थे जिनको किसी एक सांचे में बाधा नहीं जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप का एक पूरा कालखंड उनके व्यक्तित्व से प्रभावित रहा। राजनीति से लेकर समाज, धर्म-अध्यात्म और जीवन के हर आयाम को उनके विचारों ने प्रभावित किया। आज के 76 वर्ष पहले 2 अक्टूबर,1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस के अवसर पर महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा था, ‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।’

आज के कई वर्ष पूर्व जब विश्व में विचारों के मृत होने की उद्घोषणा की जा चुकी है। विचार-दर्शन-नैतिकता अर्थहीन और सफलता सर्वप्रमुख मान लिया गया है तब भारत ही नहीं विश्व भर में ‘गांधी के रास्ते’ की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर अपने जन्म के 151 वर्ष और निधन के 72 वर्ष बाद गांधी के विचार और जीवन में विश्व की रुचि क्योंकर बढ़ रही है?

अपने जीवनकाल में किवंदंती बन चुके मोहनदास करमचंद गांधी का जीवन सपाट नहीं था। गांधी के जन्म, परिवार और शिक्षा के साथ जीवन संघर्षों को देख कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है। सौराष्ट्र की एक छोटी सी रियासत पोरबंदर के दीवान करमचंद गांधी के घर 2 अक्टूबर 1869 के दिन उनका जन्म हुआ, नाम रखा गया मोहन। और यही मोहन आगे चलकर महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पिता करमचंद्र गांधी का सौराष्ट्र के कई रियासतों में मान-सम्मान था तो माता पुतलीबाई वैष्णव भक्त थीं। माता पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन वह धार्मिक विचारों का पालन पूरी लगन से करती थी इन्हीं धार्मिक विचारों का गांधी जी के जीवन पर अहम प्रभाव पड़ा।

तत्कालीन समाज की रवायत के अनुसार महात्मा गांधी का बाल विवाह कस्तूरबा से कर दिया था। कस्तूरबा, गांधी जी से उम्र में 1 साल बड़ी थी। गांधी की शिक्षा राजकोट से शुरू होकर इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई पूरी होने पर समाप्त हुई। लंदन से बैरिस्टरी की पढ़ाई पूरा कर गुजरात वापस आने के बाद गांधी को पहले गुजरात और फिर मुंबई में वकालत जमाने की जद्दोजहद करनी पड़ी।

अंतत: 1893 में पारिवारिक मित्र और धनी व्यापारी अब्दुल्लाह की सहायता के लिए गांधी 24 साल की उम्र में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। उन्होंने अपने जीवन के 21 साल दक्षिण अफ्रीका में बिताये। जहां उनके राजनैतिक विचार और नेतृत्व कौशल का विकास हुआ। वह प्रिटोरिया स्थित कुछ भारतीय व्यापारियों के कानूनी सलाहकार के तौर पर गए थे। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में युवा गुजराती वकील गांधी अपमानित होने के बाद वहां वे वकालत के साथ ही ‘सत्य’ की लड़ाई भी लड़ने लगे। आज भी ‘वकालत’ और ‘सत्य’ में काफी दूरी है। लेकिन गांधी ने अपने आचरण और व्यवहार से यह सिद्ध किया कि हर पेशा ईमानदारी की मांग करता है और ईमानदारी से कोई भी पेशा करके घर –परिवार चलाया जा सकता है।

गांधी जी के विचार और मान्यताएं समय-समय पर बदलते रहे। इसका कारण यह नहीं था कि वे विचारों से अस्थिर थे। हर विचार और कार्य को वे पहले व्यवहार में ढाल कर पहले प्रयोग करते थे, जब उन्हें इसका एहसास हो जाता था कि यह फायदेमंद है तभी उसे दूसरे को अपनाने की सलाह देते थे। खान-पान से लेकर राजनीति तक में वे जो नियम-कानून और सिद्धांत-आदर्श बनाते थे। तर्क और व्यवहार की कसौटी पर उसे कसते, पहले स्वयं अपनाते थे तब उसे दूसरे को भी अपनाने की सलाह देते थे। गांधी का यही कर्म उन्हें त्तत्कालीन और आज के तमाम महापुरुषों, दार्शनिकों, विचारकों और राजनेताओं से अलग करता है। गांधी साधन और साध्य की पवित्रता में विश्वास करते थे। अधर्म का रास्ता चाहे सफलता के जिस शिखर पर जाता हो, उससे उन्हें परहेज था।

दुनिया में तरह-तरह की भयानक हिंसक त्रासदी देखने के बाद आइंस्टीन ने अपने घर में लगे इन दोनों पोर्ट्रेट के स्थान पर दो नई तस्वीरें टांगी थी। इनमें एक तस्वीर थी महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटज़र की और दूसरी थी महात्मा गांधी की। इसे स्पष्ट करते हुए आइंस्टीन ने उस समय कहा था- ‘समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें।

महात्मा गांधी जब देश के लोगों और समाज के लिए काम करना, गुलामी-रंगभेद के अपमान को खत्म करने, मुल्क की आजादी और गोरी सत्ता को खत्म करने का संकल्प किया, तब वे न भारत में थे, न भारतीयों के लिए लड़ने का विचार उनके मन में था। दक्षिण अफ्रीका में उनकी लड़ाई हिन्दुस्तानी मूल के लोगों की थी, लेकिन उसमें हिन्दुस्तान में चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जुड़ने का विचार आ गया था। वर्ष 1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौट आये। उदारवादी कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर भारत आये देश के विभिन्न भागों का दौरा कर देश के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को समझने की कोशिश की।

गांधी जी के बारे में आइंस्टीन का कहना था, ‘उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी मानवीय संबंधों की उस उच्चस्तरीय संकल्पना का प्रतिनिधित्व किया जिसे हासिल करने की कामना हमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर अवश्य ही करनी चाहिए।’

भारत आने के बाद गांधी सन 1917 में बिहार के चंपारण जिले में नील किसानों की दुर्दशा देखने गये। निलहों के शोषण को देखकर गांधी ने अमानवीय कानून को मानने से इनकार कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने गांधी को डराने के लिए गिरफ्तार किया और मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई। गांधी ने जमानत लेने से इनकार कर दिया औऱ कहा कि कानून के हिसाब से जो सजा देना हो, हमें मंजूर है। लेकिन नील की खेती का कानून हम नहीं मानेंगे। अंतत: ब्रिटिश हुकूमत को गांधी को छोड़ना पड़ा।

सन 1918 में खेड़ा सत्याग्रह, 1920 में असहयोग आंदोलन और 1930 में नमक सत्याग्रह/ दांडी मार्च ब्रिटिश सरकार के गलत कानूनों के विरोध में शांतिपूर्ण सत्याग्रह था। जिसके चलते महात्मा गांधी दुनिया की नज़र में आए। नमक या शराब क़ानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ़्तारी दी गई, जिसमें भारी संख्या में जनसमूह भागीदार बना। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन गांधी जी द्वारा चलाए गए आंदोलनों में तीसरा बड़ा आंदोलन था। यह आंदोलन अब तक के सभी आंदोलनों में सबसे अधिक प्रभावी रहा तथा इस आंदोलन से निपटने के लिए अंग्रेजी सरकार को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा।

महात्मा गांधी रातों-रात नेता नहीं बने थे, न ही उन्होंने जल्दबाजी में कोई आंदोलन खड़ा किया। वे देश के कोने कोने और गली-कूंचों में फिरे, भारत के असली जनमानस से मिले, समझे। दरिद्रता, अज्ञान, अशिक्षा, अंधविश्वास, धार्मिक-सामाजिक पाखंड, शोषण, छुआछूत जैसी कुरीतियों को निकट से समझा और अनुभव भी किया। समाज के हाशिये के लोगों और महिलाओं के दर्द को महसूस किया।

स्वतंत्रता आंदोलन के समय राजनीति से लेकर हर क्षेत्र से जुड़े लोग गांधी के साथ थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, समाजवादी और तमाम विचारों के लोग गांधी के अनुयायी थे। आजादी के बाद हर काग्रेस नेता कार्यकर्ता अपने को गांधी का अनुयायी और भक्त बताता था। गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस सरकार ने गांधी के रचनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाने के लिये कई संस्थाओं को बनाया। ढेर सारे गांधी भक्त उसके अध्यक्ष/चेयरमैन बनें। देश में अपने गांधीवादी कहने का फैशन चल पड़ा। लेकिन आज भी गांधी के मानने वाले कई ईमानदार लोग गांधी के विचारों को व्यवहारिक जीवन में उतारने को काफी जटिल बताते हैं।इस तरह से यह कहा जा सकता है कि गांधी ही पहले और आखिरी गांधीवादी थे।

गांधी जी की मृत्यु पर लिखे संदेश में आइंस्टीन ने कहा था, ‘लोगों की निष्ठा राजनीतिक धोखेबाजी के धूर्ततापूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है।’

30 जनवरी, 1948 को जब गांधीजी की हत्या हुई और पूरी दुनिया में शोक की लहर फैल गई, तो आइंस्टीन भी विचलित हुए बिना नहीं रहे थे. 11 फरवरी, 1948 को वाशिंगटन में आयोजित एक स्मृति सभा को भेजे अपने संदेश में आइंस्टीन ने कहा, ‘वे सभी लोग जो मानव जाति के बेहतर भविष्य के लिए चिंतित हैं, वे गांधी की दुखद मृत्यु से अवश्य ही बहुत अधिक विचलित हुए होंगे। अपने ही सिद्धांत यानी अहिंसा के सिद्धांत का शिकार होकर उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु इसलिए हुई कि देश में फैली अव्यवस्था और अशांति के दौर में भी उन्होंने किसी भी तरह की निजी हथियारबंद सुरक्षा लेने से इनकार कर दिया। यह उनका दृढ़ विश्वास था कि बल का प्रयोग अपने आप में एक बुराई है, और जो लोग पूर्ण शांति के लिए प्रयास करते हैं, उन्हें इसका त्याग करना ही चाहिए। अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने अपने इसी विश्वास को समर्पित कर दी और अपने दिल और मन में इसी विश्वास को धारण कर उन्होंने एक महान राष्ट्र को उसकी मुक्ति के मुकाम तक पहुंचाया।  उन्होंने करके दिखाया कि लोगों की निष्ठा सिर्फ राजनीतिक धोखाधड़ी और धोखेबाजी के धूर्ततापूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती है, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है।’

उन्होंने आगे लिखा, ‘पूरी दुनिया में गांधी के प्रति जो श्रद्धा रखी गई, वह अधिकतर हमारे अवचेतन में दबी इसी स्वीकारोक्ति पर आधारित थी कि नैतिक पतन के हमारे युग में वे अकेले ऐसे स्टेट्समैन थे, जिन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी मानवीय संबंधों की उस उच्चस्तरीय संकल्पना का प्रतिनिधित्व किया जिसे हासिल करने की कामना हमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर अवश्य ही करनी चाहिए। हमें यह कठिन सबक सीखना ही चाहिए कि मानव जाति का भविष्य सहनीय केवल तभी होगा, जब अन्य सभी मामलों की तरह ही वैश्विक मामलों में भी हमारा कार्य न्याय और कानून पर आधारित होगा, न कि ताकत के खुले आतंक पर, जैसा कि अभी तक सचमुच रहा है।’