मजदूरों की घर वापसी नहीं है समस्या का समाधान


यूरोप, खाड़ी के देश, विदेश में कहीं भी या फिर भारत में ही कहीं घर- गांव से कई सौ मील दूर रहने वाले मजदूर जब साल-दो साल के बाद बीच-बीच कुछ दिन के लिए ही सही, अपने घरों की तरफ रुख करते हैं तो उनके और परिजनों के बीच की यह खुशी देखते ही बनती है। मजदूर इस बार भी घर लौट रहे हैं लेकिन घर लौटने की खुशी किसी के चेहरे पर नहीं है, न उनके और न उनके घर वालों के चेहरे पर।



कोई भी मजदूर या कामगार जब अपने घर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर स्थित कर्म स्थल से घर वापस आता है तो वह, उसका परिवार और उसके परिजन बहुत खुश होते हैं। मजदूर को चाहे वह छोटा हो या बड़ा, इस बात की खुशी होती है कि वह कई दिनों के बाद अपने परिजन से मिलेगा उसके परिवार को भी इस मिलन से खुशी मिलती है और परिजन की खुशी इसलिए भी दोगुनी हो जाती है कि उनका बेट, भाई, चाचा, मामा जो भी बाहर से घर आया है वो कई दिन, साल बाद घर आने पर उनके लिए अलग से कुछ न कुछ जरूर लाया होगा। 

यूरोप, खाड़ी के देश, विदेश में कहीं भी या फिर भारत में ही कहीं घर- गांव से कई सौ मील दूर रहने वाले मजदूर जब साल-दो साल के बाद बीच-बीच कुछ दिन के लिए ही सही, अपने घरों की तरफ रुख करते हैं तो उनके और परिजनों के बीच की यह खुशी देखते ही बनती है। मजदूर इस बार भी घर लौट रहे हैं लेकिन घर लौटने की खुशी किसी के चेहरे पर नहीं है, न उनके और न उनके घर वालों के चेहरे पर। वजह साफ़ है। इस बार ये मजदूर खुशी से घर वापस नहीं लौट रहे हैं बल्कि एक मजबूरी इन मजदूरों की घर वापसी का कारण बनी है। 

हम बात विदेशों से घर वापस लौटने वाले मजदूरों की नहीं, बल्कि हिंदुस्तान में ही रह कर मेहनत- मजदूरी करने वाले प्रवासी मजदूरों की कर रहे हैं जिन्हें कोरोना वायरस के संकट से निपटने के चलते देश भर में चलाये गए सरकार के लॉकडाउन अभियान के चलते दर-दर भटकने को मजबूर होना पड़ा है। विगत 22 ( 25 ) मार्च से लगे इस लॉकडाउन की वजह से सब कुछ बंद है, लिहाजा जो जहां है वहीँ फंसा हुआ है। अब सरकार ने यह सोचा है कि जो जिस राज्य का है उसे उसके गृह राज्य पहुंचा दिया जाए, चाहे बस से ही सही। लोग अपने घर तो पहुंच जायेंगे। सरकार की यह सोच ठीक हो सकती है लेकिन इस बार मजदूरों का घर वापस आना कई तरह की समस्याओं को भी उनके साथ लेकर आने से कोई खुशी नहीं दे रहा है बल्कि तकलीफ ही बढ़ा रहा है।

इन मजदूरों के घर वापस आने की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि घर आने पर रोजगार का संकट मुंह बाए उनके सामने खड़ा है। कुछ दिन तो घर वालों के साथ रहने और बचा- खुचा मिल-बैठ कर खाने-खिलाने में कट जायेंगे उसके बाद क्या होगा। जब रोजगार नहीं होगा तो इनके भूखे मरने की नौबत भी आ सकती है। खेती के काम के अलावा सारे काम धंधे बंद हैं। न कारखाने चल रहे हैं और न ही किसी तरह का निर्माण कार्य चल रहा है। डेढ़ महीने से चला आ रहा लॉकडाउन भी अगर 4 मई को खुल जाता है तब भी निकट भविष्य में किसी तरह का काम शुरू होने की कोई संभावना दिखाई नहीं देती।

खेती का काम भी सभी के बस का नहीं है। खेती का यह काम इतना भी नहीं है कि कोरोना से विस्थापित हुए देश के सभी मजदूरों को रोजगार दिला सके। वैसे भी यह काम साल भर चलने वाला नहीं है। दो- तीन महीने के बाद तो गेंहूं की कटाई और नई फसल की तैयारी का काम भी पूरा हो जाएगा। उसके बाद क्या करेंगे ये प्रवासी मजदूर। रोजगार की यह समस्या तो कोरोना और लॉकडाउन के चलते औरों की भी है लेकिन दिहाड़ी के मजदूरों के पास तो दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है ऐसे में। कल्पना ही की जा सकती है कि जब इन मजदूरों के पास काम नहीं होगा तब वो अपना और अपने परिवार का भरण- पोषण कैसे कर पायेंगे। 

इन हालातों में कभी- कभी इनफ़ोसिस इण्डिया के सह संस्थापक नारायणमूर्ति का यह कहना सही जान पड़ता है कि अगर भारत में कोरोना की वजह से लम्बे समय तक लॉकडाउन जारी रहा तो लोग कोरोना के संकट से नहीं बल्कि भूख और कुपोषण से मरने लगेंगे। उनके मुताबिक़ जहां सामान्य दिनों में भारत में करीब 90 लाख लोग मौत का शिकार होते हैं वहां अगर एक कोरोना वायरस की वजह से देश में दो माह के भीतर एक हजार लोगों की मौत हो जाती है तो इसे सामान्य समझा जाना चाहिए। 

नारायणमूर्ति के इस कथन से सहमत और असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उनकी इस बात में दम जरूर है कि हमको कोरोना की जंग के साथ जीने के लिए तैयार रहना चाहिए। कोरोना की समस्या का समाधान करने के साथ ही हमें अपने काम-धंधों को फिर से शुरू भी करना चाहिए। उनके शब्दों में, “देश को कोरोना को एक नई सामान्य स्थिति के रूप स्वीकार करना चाहिए स्वास्थ्य व्यक्तियों को रोजगार पर लौटने की अनुमति देने के साथ ही उन व्यक्तियों की चाक- चौबंद सुरक्षा व्यवस्था करने की जरूरत होनी चाहिए जो संक्रमण के जोखिम का सामना कर रहे हैं।”

कारोबारी दिग्गजों के साथ एक सेमिनार में हिस्सा लेते हुए नारायणमूर्ति ने पिछले दिनों कोरोना के मुद्दे से पैदा हुए हालात पर चर्चा करते हुए भारत के सन्दर्भ को इस तरह भी समझाने की कोशिश की थी कि दुनिया के ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की तुलना में भारत की स्थिति इस मामले में बहुत अच्छी है इसलिए हमको डर कर नहीं संभल कर काम करने की जरूरत है। इस पृष्ठभूमि में नारायणमूर्ति ने स्वस्थ लोगों के काम- धंधों पर वापस लौटने की वकालत की है तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है। 

सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर इसके चलते सारे काम- धंधे चौपट हो गए तो फिर लोग खायेंगे क्या, पहनेंगे क्या और निचोड़ेंगे क्या? लगता है अर्थव्यवस्था में आने वाले इस संकट को सरकार भी अच्छी तरह से समझ रही है और दूसरे चरण का लॉकडाउन ख़त्म होने से पहले सरकार किसी ठोस विकल्प की खोज अवश्य कर लेगी। यह विकल्प नारायणमूर्ति की सलाह पर काम करने का भी हो सकता है !