बड़ी आपदा और सामाजिक दर्शन


पिछली सदी के आखिरी दशक में सोशलिस्ट ब्लॉक के खात्मे से भी पूरी दुनिया ने न सही, लेकिन चीन और कुछ अन्य देशों ने यह ज्ञान प्राप्त किया कि राजकाज में विचारधारा का दखल इतना तो न होने दिया जाए कि सत्ता देश-दुनिया की हकीकत से आंखें मूंद ले और आम आदमी के सुख-दुख पर बात ही होनी बंद हो जाए।


चंद्रभूषण
मत-विमत Updated On :

बड़े सबक दुनिया अभी तक बड़े धक्के खाकर ही सीखती आई है। कुछ सबक 1929 की महामंदी से सीखे गए। मसलन सारा कुछ बाजार के जिम्मे न छोड़ा जाए, लोगों को रोजी-रोजगार मुहैया कराने के लिए सरकारें सक्रिय रूप से आगे आएं। पहले विश्वयुद्ध से आंशिक तौर पर और दूसरे विश्वयुद्ध से किसी गणितीय प्रमेय की तरह दुनिया ने यह सीख ली कि ग्रहीय स्तर पर सारे देशों की एक ताकतवर पंचायत होनी चाहिए। मानवता की साझा भलाई के कुछ काम देशों की सीमाओं से ऊपर उठकर भी किए जाने चाहिए, ताकि लोगबाग मन ही मन राष्ट्रीय सीमा के उस तरफ वालों राक्षस न मानने लगें।

पिछली सदी के आखिरी दशक में सोशलिस्ट ब्लॉक के खात्मे से भी पूरी दुनिया ने न सही, लेकिन चीन और कुछ अन्य देशों ने यह ज्ञान प्राप्त किया कि राजकाज में विचारधारा का दखल इतना तो न होने दिया जाए कि सत्ता देश-दुनिया की हकीकत से आंखें मूंद ले और आम आदमी के सुख-दुख पर बात ही होनी बंद हो जाए। लेकिन वैश्विक स्तर के हादसे जारी रहने के बावजूद सबक सीखने की यह शक्ति इक्कीसवीं सदी में लगभग नदारद दिखी है।

इस सदी की शुरुआत अमेरिका पर 9/11 वाले आतंकी हमले से हुई थी, जिसकी अलग-अलग पैमाने पर पुनरावृत्ति भारत समेत दुनिया के कई देशों में जारी है। लेकिन नफरत की इस भयानक कार्रवाई का जवाब अभी तक और ज्यादा नफरत से ही दिया जा सका है। और तो और, संयुक्त राष्ट्र ने भी आतंकवाद के खिलाफ कई सम्मेलन किए हैं और ढेर सारे ग्लोबल उपाय आतंकी संगठनों के खिलाफ किए गए हैं। लेकिन एक राष्ट्र के रूप में अमेरिका का अन्यायी दृष्टिकोण इस पूरी अवधि में कम होने के बजाय लगातार बढ़ता ही गया है और इसने खुद संयुक्त राष्ट्र को ही पूरी तरह अप्रासंगिक बना छोड़ा है।

जाहिर है, ऐसे में अन्याय के प्रतिकार का हवाला देकर उभरने वाले आतंकी संगठनों के उभरने की जमीन पहले से ज्यादा जरखेज हुई है, भले ही तात्कालिक कारणों से वे कभी मजबूत और कभी कमजोर लगते आ रहे हों। 2008-09 की मंदी के बारे में कहा गया कि यह दुनिया की औद्योगिक और वित्तीय दृष्टि में उथल-पुथल पैदा कर देने वाली घटना है। लेकिन तब से अब तक एक दशक से ज्यादा वक्त गुजर चुका है, दुनिया के आर्थिक नजरिए में रत्ती भर भी बदलाव हमें देखने को नहीं मिला है।

पूंजी का संकेंद्रण आज तब की तुलना में कहीं ज्यादा हो चुका है। संपदा के कमजोर तबकों से खिंचकर ताकतवर तबकों की ओर जाने की प्रक्रिया जारी है। हर देश की 50 से 75 प्रतिशत दौलत वहां की मात्र एक प्रतिशत आबादी के पास अब से कई साल पहले दर्ज की गई थी, जो अभी और ज्यादा ही होगी। भारत की गिनती संसार के सबसे ज्यादा आर्थिक विषमता वाले समाजों में होती है और विषमता बढ़ने की रफ्तार भी यहां दुनिया के ज्यादातर देशों से ज्यादा है। यह मात्र एक संयोग है कि एक और मंदी से हमारा साबका अभी तक नहीं पड़ा है, लेकिन जब पड़ेगा तो संभलना मुश्किल होगा।

फिलहाल इतना ही कि दुनिया को हिला देने वाली वह मंदी भी दुनिया के निर्णायक लोगों की सोच में मामूली सा कंपन तक पैदा नहीं कर पाई। इधर वैसी ही स्थिति कोरोना महामारी को लेकर भी दिखाई दे रही है। इसके ग्लोबल महामारी होने की पुष्टि होने के साथ ही कहा जाने लगा था कि यह पर्यावरण संकट, असमानता, शहरों की अन्यायपूर्ण बनावट और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के पूरी तरह बैठ जाने जैसी ढंकी-छुपी परिघटनाओं पर से पर्दा उठाने वाली हलचल है। यह भी कि बहुत कुछ जड़ से बदलना होगा, दुनिया इसके बाद पुराने ढर्रे पर नहीं चल पाएगी।

लेकिन अभी का माहौल देखने से लगता है कि यह महामारी सिर्फ कुछ वैक्सीनों की खोज और उनकी बिक्री के लिए आई थी। दुनिया जैसे चल रही थी, वैसे ही चलेगी, उसमें कोई समस्या नहीं आने वाली। इतना ही नहीं, लगभग हर देश में बहुसंख्यकवादी जोर-जबर्दस्ती और बड़े औद्योगिक घरानों की लूटपाट को जायज ठहराने वाली विचारधाराएं इस महामारी के दौरान मजबूत हुई हैं और जहां भी इस दौरान उन्हें राजनीतिक पराजय का सामना करना पड़ा है, वहां उन्होंने अपनी तरफ से देश को दो शत्रुतापूर्ण हिस्सों में बांट दिया है।

भला कौन कल्पना कर सकता था कि अमेरिका जैसे संसार के सबसे परिपक्व लोकतंत्र में चुनाव नतीजे आने के डेढ़ महीने बाद रिपब्लिकन और डेमोक्रेट समर्थक शक्तियां कई शहरों की सड़कों पर आपस में गुत्थमगुत्था हो जाएंगी और उन्हें छुड़ाने के क्रम में पुलिस द्वारा किए गए बलप्रयोग से कई लोगों के जीने-मरने की नौबत आ जाएगी।

तब से वहां एक चुनाव और गुजर चुका है और राजधानी में राजनीतिक दंगे कराने वाला पराजित राष्ट्रपति अभूतपूर्व लोकप्रियता के साथ दूसरी बार देश की सत्ता संभालने जा रहा है! दरअसल, जब चीजें आपके सामने हों और आप उन्हें देखना बंद कर दें तो इसे आर्थिक, राजनीतिक या वैचारिक समस्या बताने के बजाय सीधे-सीधे जीवन-दर्शन का संकट कहा जाना चाहिए।

दर्शनशास्त्र के अध्येता जीएल वेलाजकेज ने कोरोना वायरस से उभरे दार्शनिक संकट को पांच बिंदुओं में पकड़ने की कोशिश की थी- 1. मानव जीवन की भंगुरता, किसी भी इंसान का इससे सुरक्षित न होना, 2. मानवीय अक्षमता, प्राचीन काल की तरह आज भी हर किसी का घर में घुसकर अपनी जान बचाना, 3. विज्ञान की सीमित शक्ति, दुनिया की तमाम प्रयोगशालाएं और दवा कंपनियां सारी कोशिशों के बावजूद वायरस को तीन साल लगाकर ही नियंत्रित कर पाईं, 4. इंसानी एकता और साझा भलाई का पुनर्शोध, समाज को बचाने के लिए व्यक्ति को और व्यक्ति को बचाने के लिए समाज को बचाना होगा, और 5. मृत्यु की सार्वभौमिकता, जिसकी रोशनी में मानव अस्तित्व की दिशा तय करने वाले सारे मूल्यों को पुनर्परिभाषित करना होगा।

चर्चित स्लोवेनियन चिंतक स्लावोज जिजेक ने इस संकट को ज्यादा ठोस धरातल पर परखने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि ‘सीरिया-तुर्की बॉर्डर से लेकर यूरोप और बांग्लादेश तक दुनिया के करोड़ों लोग आज शरणार्थी का जीवन बिता रहे हैं और वायरस उनके लिए यकीनन सबसे बड़ी समस्या नहीं है। लॉकडाउन की स्थिति में बहुत सारे लोग अपने घरों में रहकर वर्क फ्रॉम होम इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति वाले लगभग उतने ही लोग बाहर उनके लिए चीजें बना रहे हैं, सामान ढो रहे हैं, सड़क-नाली साफ कर रहे हैं और अस्पतालों में मरीजों के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं।’

संक्षेप में यह कि इतना कहना काफी नहीं है कि हम सब ‘एक ही नाव के सवार’ हैं। जिजेक की यह बात भारत में और तीखे ढंग से समझी जा सकती थी, क्योंकि यहां हमने शहर छोड़कर पैदल, भूखे-प्यासे गांव भाग रहे लाखों मजदूर देखे थे। जिजेक का कहना था कि सिर्फ कोविड-19 की महामारी पर बात करने के बजाय हमें असमानता और पर्यावरण ध्वंस की महामारियों को चर्चा में लाना चाहिए, जो आपस में जुड़ी हुई हैं।

फ्रांसीसी दार्शनिक ब्रूनो लातूर ने इसका विस्तार एक नए ‘राजनीतिक पर्यावरण’ की मांग के रूप में किया, जिसका स्वरूप बुनियादी सवालों पर लोगों की आंख में धूल झोंकने वाला न हो। कोरोना से लड़ाई के क्रम में ‘संसार में रहने का एक अलग तरीका विकसित करने’ की बात दुनिया भर के दार्शनिकों और चिंतकों की ओर से कही गई थी। लेकिन सवाल वही रह गया कि कठिन सवालों की ओर लोगों का ध्यान ही न जाने देने और एक बार फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर लौट आने की मौजूदा सदी की स्थायी बीमारी का इलाज भला कैसे खोजा जाएगा।