नीतियां बनाते हुए इतिहास को जरूर पढ़ें !

तीन कृषि कानूनों ने सिर्फ पंजाब के सिखों के आर्थिक हितों पर ही चोट पहुंचायी है, यह कहना गलत होगा। यह कहना भी गलत होगा कि किसान आंदोलन सिर्फ पंजाब का या सिखों का आंदोलन है। दरअसल तीन कृषि कानूनों से बड़ा नुकसान हिंदी पट्टी के राज्यों की मध्यवर्ती हिंदू किसान जातियों को पहुंचा है।

26 जनवरी को लाल किले की शर्मनाक घटना के बाद तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा किसान आंदोलन एकबारगी कमजोर हो गया था। लेकिन एक बार फिर किसान आंदोलन मजबूत होता दिखायी दे रहा है। दिल्ली की सीमा पर किसानों के जत्थे दुबारा पहुंच रहे है। अब किसान आंदोलन का केंद्र पश्चिमी उतर प्रदेश बन गया है। पहले आंदोलन का केंद्र पंजाब और हरियाणा था।

पिछले दो दिनों से आंदोलन का केंद्र दिल्ली-यूपी सीमा पर स्थित गाजीपुर हो गया है। पश्चिमी उतर प्रदेश के कई जिलों में किसान लामबंद हो गए। इसका असर हरियाणा पर भी दिख रहा है। लाल किला में हुई शर्मनाक घटना के बाद हताश पंजाब के किसान संगठन फिर जोश में आ गए है। पंजाब से भी फिर किसानों का जत्था दिल्ली को जाने को तैयार है। आखिर एकाएक खत्म होता किसान आंदोलन जिंदा कैसे हो गया ?

दरअसल राकेश टिकैत के कुछ मिनटों के आंसू ने किसान आंदोलन को फिर से मजबूत कर गया।राकेश टिकैत के आंसू ने भाजपा की धार्मिक इंजीनियरिंग को कमजोर कर दिया है। पश्चिमी उतर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा की अभूतपूर्व सफलता का बड़ा कारण जाट-मुस्लिम एकता में फूट थी।

मुजफ्फरनगर दंगों ने भाजपा को खासा मजबूत किया था। क्योंकि मुजफ्फनगर दंगों में जाट और मुसलमान आमने-सामने गए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगों का भारी लाभ भाजपा को मिला। सहारनपुर से फतेहपुर सिकरी तक के इलाके जिसे सामान्य रुप से पश्चिमी उतर प्रदेश कहा जाता है, वहां भाजपा जमीन पर काफी मजबूत हो गई।

राकेश टिकैत के आंसू ने अब भाजपा के नेताओं को दहशत ला दिया है। पश्चिमी उतर प्रदेश के कुछ जाट सांसद तो काफी परेशान है। पिछले दो तीन दिनों में एकाएक जाट नेता अजित सिंह का कद बढ़ गया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में अजित सिंह मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे और हार गए थे। यही नहीं अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी बागपत से चुनाव लड़े थे और भाजपा के सत्यपाल सिंह से हार गए थे।

बागपत से लेकर मुजफ्फरनगर तक का इलाका चौधरी चरण सिंह का गढ़ था। मुजफ्फरनगर में अजित सिंह की हार का कारण जाटों का बाल्याण खाप था जो भाजपा के उम्मीदवार संजीव वालियान के साथ था। राकेश टिकैत भी वालियान खाप से संबंधित है।

बताया जाता है कि किसान आंदोलन के मजबूत होने के कारण पश्चिमी उतर प्रदेश के कई भाजपा सांसद घबराए हुए है। उन्होंने अपनी बात भाजपा में रखी है। क्योंकि अगले लोकसभा चुनाव में इस आंदोलन का प्रभाव पड़ना तय है। यही नहीं उससे पहले होने वाले उतर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी इस किसान आंदोलन का प्रभाव पड़ना तय है।

मेरठ, बागपत, मुजफ्फरनगर ही नहीं बल्कि मथुरा से लेकर फतेहपुर सिकरी तक के भाजपा नेताओं मे चिंता व्याप्त है। क्योंकि इस इलाके में जाट किसान काफी मजबूत है। निश्चित तौर पर उतर प्रदेश की राजनीति पर राकेश टिकैत के आंसू के गंभीर प्रभाव पड़ेंगे। इस आंसू पर समाजवादी पार्टी से लेकर आम आदमी पार्टी तक की नजर है। हालांकि अब अगर किसान आंदोलन औऱ मजबूत हुआ तो हरियाणा और राजस्थान की राजनीति भी प्रभावति होना तय है।

दरअसल पिछले कुछ सालों में मध्यवर्ती हिंदू किसान जातियां ने भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे में खासी मदद की है। भाजपा ने जिस सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से सत्ता हासिल की उसे मजबूत करने में कुर्मी, लोध, जाट, गुर्जर समेत अन्य मध्यवर्ती हिंदू जातियों की खासी भूमिका रही है।

लेकिन भाजपा ने दिल्ली में सत्ता प्राप्त करते ही प्रशासनिक कौशल खो दिया। दरअसल कारपोरेट घरानों के एजेंडे पर चलने वाली भाजपा सरकार उन मध्यवर्ती हिंदू किसान जातियों के हितों पर चोट कर दिया जिन्होंने भाजपा को सत्ता दिलवायी। अभी भी भाजपा को हिंदी पट्टी में ही शानदार सफलता मिली है।

दरअसल तीन कृषि कानूनों ने सिर्फ पंजाब के सिखों के आर्थिक हितों पर ही चोट पहुंचायी है, यह कहना गलत होगा। यह कहना भी गलत होगा कि किसान आंदोलन सिर्फ पंजाब का या सिखों का आंदोलन है। दरअसल तीन कृषि कानूनों से बड़ा नुकसान हिंदी पट्टी के राज्यों की मध्यवर्ती हिंदू किसान जातियों को पहुंचा है। ये जातियां पिछले कुछ सालों से हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर भाजपा के साथ रही है। अब तीन कृषि कानूनों को लेकर जारी किसान आंदोलन के कारण उनका भाजपा से मोहभंग हो सकता है।

मध्यवर्ती किसान हिंदू जातियों में धीरे-धीरे इस बात का खासा प्रचार हो गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार दो कारपोरेट घरानों के हितों के लिए काम कर रही है। मध्यवर्ती किसान जातियों में इस बात का प्रचार हो गया है कि हिंदुत्व के नाम पर भाजपा ने उन्हें मूर्ख बनाया है।

भाजपा की सरकार धड़ाधड़ सरकारी संपितयों को बेच रही है। खेती को कारपोरेट घरानों को सौपने की तैयारी कर रही है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान हिंदू किसान जातियों को हो रहा है। दरअसल तीनों कृषि कानून के लागू होने पर मुसलमानों का कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि देश में बहुसंख्यक किसान हिंदू है।

भारतीय जनता पार्टी के नीति निर्धारक इतिहास से कतई सबक लेने को तैयार नहीं है। ये अपनी मर्जी से इतिहास पढ़ना चाहते है। ये अपनी मर्जी से इतिहास लिखना चाहते है। आगरा और दिल्ली मुगलकाल में मुगल शासकों की राजधानी रही। दिल्ली से लेकर आगरा और इसके आसपास के इलाके में मध्यवर्ती हिंदू किसान जातियों की मजबूती को मुगलों ने अपने कौशल से पहचाना था। यही कारण था कि मुगलों ने आगरा और दिल्ली के आसपास मौजूद मध्यवर्ती हिंदू किसान जातियों को कभी नहीं छेड़ा।

मुगल शासकों ने इन्हें शांत रखने के लिए हर संभव प्रयास किया। मुगल शासकों ने आसपास के हिंदू किसानों से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए कई नीतियां भी बनायी। मुगल शासन की कृषि नीति को बनाते हुए इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि कोई इस तरह की नीति न बनायी जाए जिससे दिल्ली और आगरा के आसपास के हिंदू किसान मुगलों के खिलाफ विद्रोह कर दे।

मुगलों शासकों ने हिंदू किसान जातियों में अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए सूफी परंपरा को बढावा दिया, क्योंकि सूफी परंपरा कृष्णभक्ति भी शामिल थी।

मुगल बादशाहों के दरबार में कई बड़े हिंदू सलाहकारों की मौजूदगी मुगल शासकों की प्रशासनिक कौशल दिखाता था। निश्चित तौर पर मुगलशासन की सफलता के लिए मुगलशासकों की ये नीतियां जिम्मेवार थी। मुगल शासक लंबे अभियान के लिए गुजरात से लेकर बंगाल तक गए। लेकिन उनकी राजधानी सुरक्षित रही।

ब्रिटिश राज में भी शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए दिल्ली और दिल्ली से उतर में खैबर पख्तूनखवा तक निवास करने वाली मध्यवर्ती कृषक जातियां को अंग्रेजों ने संतुष्ट रखने की कोशिश की। इनकी विद्रोही प्रवृति को ब्रिटिश शासक समझते थे। इसलिए इन्हें सेना में भर्ती किया गया। जमीनें आवंटित की गई। आखिर बेहतर प्रशासक तो वही होता है जो इतिहास से सबक लेकर भविष्य की नीतियां बनाता है।

First Published on: January 30, 2021 3:46 PM
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