मंगलेश डबराल : कवि का कवि की तरह जाना


उनकी कविताओं में स्मृति, घर और आत्म निर्वासन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार के समय उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि करीब तीस बरस पहले पहाड़ी गाँव के एक गहरे बीहड़ भूगोल से निकलकर दिल्ली आने के बाद मैंने जर्मन कवि-नाटककार बेट्रोल्ट ब्रेश्ट की कविता पढ़ी थी।


मनोज मोहन मनोज मोहन
मत-विमत Updated On :

कल मंगलेश का सम्मान होगा। ‘त्रिवेणी सभागार’ में शाम को छै बजे। 27.08.82
शाम को मंगलेश सम्मानित हुए–इन्हीं हाथों…29.08.82
28 वाला समारोह भी अच्छा हुआ। मंगलेश अपने साथ ताजा रचना वाली कॉपी ले आए थे। अंत में ‘पहाड़ पर लालटेन’ शीर्षक कविता के दो पैराग्राफ़ भी मंगलेश ने सुना दिए, मेरे आग्रह पर। मंगलेश वाली सम्मान सभा में उपस्थिति लगभग 250 की रही होगी. 31.08.82–नागार्जुन के पत्रों के इन अंशों से मंगलेश डबराल के कवि होने की नींव कितनी पुख्ता रही होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है. मंगलेश उस वक़्त चौतीस साल के थे।

एक बार आयोवा जो उनके चिंतनपरक और पठनीय गद्य के लिए जाना जाता है, उसमें वे लिख चुके हैं कि ‘ अमेरिका में… मनुष्य के विवेक पर, जो कि अंततः उसका अधिकार है, ऐसे अंकुश, व्यवहार और दिमाग़ की कंडीशनिंग या उसे एक खास साँचे या चैनल में ढालने का उपक्रम मुझे बार-बार दिखते हैं। वे सार्वजनिक भी हैं और गोपनीय भी होंगे… मैंने केरी कीज से कहा कि मैं एक प्रतिरोध दर्ज करना चाहता हूँ। पर कहाँ करूँ, समझ में नहीं आता। फिलहाल तुम्हारे पास दर्ज करता हूँ। और वहाँ से शुरू होकर यह प्रतिरोध आज अपनी प्रखरता में राजनीतिक प्रतिरोध का मूल स्वर बनता जा रहा है। इसे ही देख अभी हाल ही में आलोक धन्वा ने कहा कि हमारे प्रिय कवि मंगलेश डबराल ने अपने लिए एक नई काव्य भाषा तैयार की। जिसमें पृथ्वी की अछोर विपुलता वाणी बन व्यक्त हो सके।

यह सब जो कहा गया और सुना गया तब मंगलेश डबराल की उपस्थिति थी, अब वे नहीं हैं। वे सामूहिक स्मृति का हिस्सा हैं। उन्हें महामारी ने अपने साथ न चलने का कोई विकल्प नहीं दिया। महामारी ने आम मनुष्यों की इच्छा और ज़रूरत का ख़्याल नहीं रखा। यह कवि मंगलेश डबराल का अंतिम प्रवास है।

मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई 1948 को टेहरी गढवाल के काफलपानी गाँव में हुआ था। ‘पहाड़ पर लालटेन’ और ‘घर का रास्ता’ उनके पहले दो कविता संग्रह हैं। 1982 में ओंप्रकाश स्मृति सम्मान उन्हें ‘पहाड़ पर लालटेन’ संग्रह पर मिला था। बाद में ‘हम जो देखते हैं’ कविता संग्रह के लिए 2001 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। उनके अन्य संग्रह हैं–आवाज भी एक जगह है, नये युग में शत्रु और स्मृति एक दूसरा समय।आजीविका के लिए मंगलेश डबराल पत्रकारिता करते रहे।

उनकी कविताओं में स्मृति, घर और आत्म निर्वासन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार के समय उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि करीब तीस बरस पहले पहाड़ी गाँव के एक गहरे बीहड़ भूगोल से निकलकर दिल्ली आने के बाद मैंने जर्मन कवि-नाटककार बेट्रोल्ट ब्रेश्ट की कविता पढ़ी थीः पहाड़ों की यातनाएँ हमारे पीछे हैं/ मैदानों की यातनाएँ हमारे आगे हैं। शायद यही वह अनुभव था जो मेरे भीतर इतने समय से घुमड़ता था और जिसे मैं समझ या व्यक्त नहीं कर पाता था। तबसे मेरे पीछे पहाड़ों की यातनाएँ बढती गयी हैं और मेरे आगे मैदानों की यातनाएँ फैलती गई हैं जिन्हें जब कभी मैं पहचान पाता हूँ तो एक नयी कविता बन जाती है और इस तरह मैं कविता का एक पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता होने की इच्छा लिए हुए अंशकालिक कार्यकर्त्ता बना रहता हूँ।

उन्हें यात्रा करना पसंद था। एक बार आयोवा में वे लिखते हैं कि अकसर इच्छा होती है कि वाकई यात्राएँ करूँ, धूप या बारिश में अनजान जगहों की ओर निकल जाऊँ या कहूँ कि मैं बर्फ में घूमना चाहता हूँ जैसा कि मेरी बेटी अकसर कहती है या किसी सघन निर्जन में जाकर कोई मानवीय आवाज़ करूँ या समुद्र किनारे या किसी पहाड़ी चट्टान पर चुपचाप कुछ न सोचता हुआ बैठा रहूँ।

इसके बावजूद यह सच है कि मंगलेश डबराल की उपस्थिति में जितनी अनुगूँज थी, उससे ज़्यादा उनकी अनुपस्थिति अब भी गूँज रही है। उनकी कविताएँ ऐसी हैं, जो अपने समय से लड़ती-भिड़ती, निजता को सामूहिकता में बदलती और अंतत: अपनी जड़ों (मनुष्यत्व) की ओर लौट जाती है। आखिरी बार बेटी और पत्नी से वीडियोकॉल से बात की थी। उनकी बेटी अलमा ने बताया कि उनके पिता मंगलेश डबराल से आखिरी बार बात तीन-चार दिन पहले वीडियो कॉल से हुई थी।

पिता ने कहा कि वह अब थक चुके हैं, उन्हें कब अस्पताल से डिस्चार्ज किया जाएगा। अब वह घर पर आना चाहते हैं। इससे पहले चार दिसंबर की रात में भी अलमा ने पिता को एम्स में रेफर कराने के दौरान उनके पैरों को मसला था। जिससे मंगलेश को काफी आराम हुआ था। यह परिवार का आख़िरी संस्पर्श था, जिसे मंगलेशजी ने महसूस किया था, जिसे व्यक्त करने के लिए वे हमेशा के लिए वे हमारे बीच नहीं हैं।

उनके अंतिम संग्रह की कविताओं तक में एक विस्थापित व्यक्ति की संवेदनशीलता और असहायपन की पीड़ा मुखर है अपने गाँव और अपने प्रदेश में कभी नहीं लौट सकता और शहर में रहने को अभिशप्त है। उनके मित्र और वरिष्ठ कवि असद जैदी का कहना है कि मंगलेश असाधारण संतुलन के कवि हैं–उनकी कविता ने न यथार्थ-बोध को खोये है, न निजी संगीत को। वे अपने समय में कविता की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों क अच्छे से सँभाले हुए हैं और इस कार्यभार से कभी दबे नहीं हैं। उनके लहजे की नर्म-रवी और आहिस्तगी शुरू से उनके अकीदे की पुख्तगी और आत्मविश्वास की निशानी रही है।

अंत में उनकी एक कविताः

वसंत आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता

धीमे-धीमे धुंधवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को

ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अंधकार

चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर उभरेगा, झाँकेगा कभी

किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगी जैसे बीते साल की बर्फ़

शिखरों से टूटते आएंगे फूल

अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान!