मौकापरस्त क्षेत्रीय दलों में नहीं है संघ से लड़ने की क्षमता


लेकिन मुस्लिम इंटलेक्चुअल्स
की ये बुजदिली, उनकी मूर्खता, उनकी धूर्तता और उनकी कट्टरता इस समय उतना बड़ा मसला नहीं है।



राजनीति निर्मम होती है। हम उसे उदार बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस समय ऐसी सभी कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं। वर्तमान भारत में एक साथ जितनी घटनाएं हो रही हैं और जितने स्तर पर हो रही हैं वो पढ़े-लिखे लोगों की सामूहिक कोशिशों को नाकाम बना रही हैं। देश उदार, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समावेशी बनने की जगह संकीर्ण और सांप्रदायिक बनता जा रहा है। इस लिहाज से आजाद हिंदुस्तान का ये सबसे कठिन दौर है। और मुझे लगता है कि जब यह दौर खत्म होगा, हम काफी पीछे जा चुके होंगे। कितना पीछे, इसका अंदाजा, अभी नहीं लगाया जा सकता। यह अनुमान इसलिए नहीं लगाया जा सकता है कि क्योंकि नतीजे बहुत हद तक उस सियासी समूह के फैसलों और गतिविधियों पर निर्भर करेंगे जिनका यकीन लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारधारा में है। जो धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहते हैं और एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक समाज तैयार करना चाहते हैं। कम से कम उनका दावा तो ऐसा ही है।

बीते कुछ दिनों के घटनाक्रम में एक बात साफ दिखाई दे रही है। हिंदू और मुस्लिम के बीच खाई बढ़ गई है। अविश्वास गहरा हो गया है। मतलब बीजेपी और संघ। समाज को धर्म के आधार पर बांटने और मुसलमानों को हाशिए पर ढकेलने की अपनी साजिश में पूरी तरह कामयाब हुए हैं। लोकतांत्रिक ताकतें ऐसा होने से रोकने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई हैं। इस नाकामी की बड़ी वजह लोकतांत्रिक ताकतों की अपनी बुजदिली और भ्रष्टाचार है जिसने उनके भीतर संघर्ष की क्षमता खत्म कर दी है। वो नैतिक स्तर पर और ढांचागत स्तर पर इतने कमजोर और खंडित हो चुके हैं कि कोई हरकत ही नहीं कर रहे। इसने देश में केंद्रीय राजनीति के स्तर पर और उत्तर भारत में प्रादेशिक और स्थानीय स्तर पर उनकी मौजूदगी के अहसास को करीब-करीब खत्म कर दिया है। मतलब आज उनका रेलेवेन्स और उनकी जरूरत जितनी ज्यादा है, उनकी मौजूदगी का अहसास उतना ही कम है।

इस नाकामी की दूसरी बड़ी वजह मुसलमानों की कट्टरता भी है। वो आज भी मौलवियों के चंगुल से मुक्त नहीं हो सके हैं। मौलाना साद और असदुद्दीन औवैसी जैसे लोगों का असर इतना ज्यादा है कि इस समाज का पढ़ा-लिखा तबका भी बहुत हद तक जाहिल बन गया है। वो जमात को ही इस्लाम समझता है। वो जमात को चुनौती नहीं देता। ज्यादातर लोग तो हर स्तर पर जमात की हरकतों को जस्टीफाई करते नजर आते हैं। विक्टिम कार्ड खेलते नजर आते हैं। थोड़े बहुत लोग जो जस्टीफाई नहीं करते और विरोध कर रहे हैं उन्हें कट्टर मुस्लिम समाज और ये मौकापरस्त सवर्ण मुस्लिम इंटलेक्चुअल्स सुनियोजित तरीके से हाशिए पर ढकेल देते हैं। नतीजतन वो या तो सरेंडर कर देता है, या फिर उस खेमे में जाकर बैठ जाता है जहां वो जाना नहीं चाहता। यहां यह मत कहिएगा कि ऐसा आज हो रहा है। ऐसा पहले भी होता रहा है। आरिफ मोहम्मद खान इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।

लेकिन मुस्लिम इंटलेक्चुअल्स की ये बुजदिली, उनकी मूर्खता, उनकी धूर्तता और उनकी कट्टरता इस समय उतना बड़ा मसला नहीं है। ऐसा इसलिए कि जब किसी देश के बहुसंख्यक समाज का नजरिया कट्टर और उन्मादी हो जाए और राज्य का चरित्र सांप्रदायिक हो जाए तो फिर सांप्रदायिकता के लिए किसी अल्पसंख्यक समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इस लिहाज से इस खतरनाक दौर के निर्माण की ज्यादातर जिम्मेदारी और जवाबदेही बहुसंख्यक हिंदू समाज की है, मुस्लिम समाज की जिम्मेदारी तुलनात्मक लिहाज से बहुत थोड़ी है। इसलिए उस पर हमलों से फिलहाल कोई लाभ नहीं होगा। बल्कि इसका नुकसान ही होने जा रहा है। आने वाले समय में उनके भीतर के जो भी थोड़े बहुत लिबरल तत्व बचे होंगे, उनके भी नष्ट हो जाने की आशंका है।

तो फिर उपाय क्या है? मुझे इसका कोई सीधा उपाय नजर नहीं आता। बस इतना ही लगता है कि इस चुनौती पर व्यापक चर्चा करने की जरूरत है। जिन प्रदेशों में गैर बीजेपी सरकारें हैं, उन्हें वहां पर कुछ रेडिकल चेंज करने होंगे। सिस्टम में कुछ मूल-चूल बदलाव लाने होंगे। शिक्षा पद्धति तो पूरी तरह से बदल देनी होगी। शिक्षा में धर्म के दखल को, धार्मिक संस्थाओं के दखल को समाप्त करना होगा। समान शिक्षा पद्धति लागू करनी होगी। स्कूल और युनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में क्रांतिकारी बदलाव लाना होगा। सबकुछ वैज्ञानिक और समाजवादी चिंतन के आधार पर होना चाहिए। यह कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे ब्राह्मणवादी ढांचा खंडित हो। ब्राह्मणवादी तंत्र नष्ट हो। पिछड़ा, दलित और आदिवासी नैरेटिव मजबूत हो। उनका तंत्र विकसित हो। बिना ब्राह्मणवादी बौद्धिक और शिक्षा तंत्र को नष्ट किए बीजेपी और संघ के विस्तार को रोका नहीं जा सकता। ऐसा करते वक्त यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं हो। उनके कट्टर तत्वों को भी सख्ती से नष्ट करने की जरूरत है। उनके भीतर के लिबरल लोगों को मजबूती से स्थापित करने की जरूरत है।

दूसरा कदम कि जो कोई व्यक्ति, समूह या संस्था राष्ट्रीय स्तर पर इन जरूरी मुद्दों को उठा रहे हैं, उनका खुल कर सहयोग करें। गैर बीजेपी, गैर एनडीए दलों की सरकारों को इन तमाम लोगों और समूहों को सपोर्ट करने का कोई आर्थिक मॉडल तैयार करना चाहिए। जरूरत पड़े तो नीतियों में बदलाव करना होगा। कांग्रेस को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। अगर इन लोगों को दिल्ली और बीजेपी प्रभाव वाले प्रदेशों में काम नहीं करने दिया जा रहा है तो अपने-अपने प्रदेश में उनका वैकल्पिक इंतजाम करना चाहिए। इसमें सरकार के थोड़े पैसे ज्यादा खर्च होंगे, लेकिन वो बहुत ही थोड़े पैसे होंगे। और ऐसा करते वक्त कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। ज्यादा से ज्यादा उन लोगों को इस मुहिम से जोड़ना होगा जो संघ की विचारधारा को खुलकर चुनौती देते हों।

पिछड़ी, दलित और आदिवासी समाज के ऐसे नए चेहरों की भी शिनाख्त करनी होगी और उन्हें सामने लाना होगा, आगे बढ़ाना होगा जो ब्राह्मणवाद का खुल कर विरोध करते हों। बराबरी के मूल सिद्धांतों, जिनमें हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल शामिल हैं, उनके आधार पर भारतीय समाज के निर्माण पर बल देते हों। सिर्फ नरेंद्र मोदी और बीजेपी तक उनका विरोध सीमित नहीं हो। आमतौर पर देखा गया है कि नरेंद्र मोदी और बीजेपी के खिलाफ खड़ा एक बड़ा तबका मूलत: प्रतिक्रियावादी है और वो संघ का समर्थक है। वह उसी ब्राह्मणवादी तंत्र को पोषित करता है जो संघ और बीजेपी की जीवनधारा है। ऐसे लोगों को एक सीमा से अधिक इस रणनीति में शामिल नहीं किया जा सकता। क्योंकि कालांतर में वो अवसर देख कर आपके हितों को नुकसान ही पहुंचाएंगे।

तीसरा कदम, बौद्धिक और सामाजिक गतिविधियों का विकेंद्रीकरण है। देश और प्रदेश की राजधानियों से हट कर बौद्धिक बहस को ग्रामीण इलाकों में ले जाना होगा। छोटे कस्बों और ब्लॉक स्तर पर इन गतिविधियों को बढ़ाना होगा। युनिवर्सिटीज में, कॉलेजों में, स्कूलों में छोटे और बड़े आयोजनों का एक सिलसिला शुरू करना होगा। उस कंटेंट को सभी मीडिया प्लेफॉर्म्स और फॉरमेट में सामने रखना होगा। इससे कई लाभ होंगे। सबसे पहला लाभ तो यह होगा कि ऐसे कार्यक्रमों से जमीनी स्तर पर सकारात्मक ऊर्जा पैदा होगी। दूसरा लाभ होगा कि आमने-सामने की बाचतीत में ऐसे बहुत से सवाल उठते हैं जिनका जवाब सेटेलाइट माध्यमों या ऑनलाइन माध्यमों से नहीं दिया जा सकता। ऐसे तमाम सवालों का जवाब वहां दिया जा सकेगा। तीसरा लाभ होगा कि अभी जो कंटेंट ऊपर से नीचे भेजा जा रहा है, मतलब दिल्ली और प्रदेश मुख्यालयों से कस्बों और गांव देहात में भेजा जा रहा है, उसकी जगह गांव-देहात से निकला कंटेंट सर्कुलेट होगा।

इसे आप कंटेंट का डेमोक्रेटाइजेशन कह सकते हैं। अभी जो कंटेंट हम फीड कर रहे हैं, वो थके हुए या फिर एक्सपोज्ड हो चुके चेहरों के एकलाप से अधिक कुछ नहीं है। ये एकतरफा भाषण है। इसमें संवाद नहीं है। ये बहुत ही नीरस और बोझिल है। ऐसे कंटेंट के भरोसे बदलाव की राजनीति नहीं हो सकती। न ही उसका माहौल बन सकता है। माहौल तो नई सोच और नई ऊर्जा से ही बनेगा। उम्मीद है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन रखने वाले और एक बेहतर भारत के निर्माण में जुटे लोग खुद भी इन बातों को महसूस करते होंगे और इस दिशा में काम कर रहे होंगे।