अठारहवीं सदी के उतरार्ध एवं 19वी सदी के पूर्वार्ध में पश्चिमी देशों में अनेक तकनीकी, सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव आने शुरू हो गए। इन बदलावों ने विश्व में एक नई व्यवस्था की नींव डाली। इस बदलाव का जिक्र सबसे पहले 1844 ईस्वी में “अर्नोल्ड टायनवी” ने अपनी पुस्तक “लेक्चर्स ऑन दी इंडस्ट्रियल रिवोलुशन इन इंग्लैंड” में किया और इसे “औद्योगिक क्रांति” कहा जो बाद में सर्व स्वीकार्य हुआ।
उद्योगों में मशीनीकरण एवं पूँजी की बढ़ती महत्ता ने वैश्विक स्तर पर प्रत्येक देश में दो वर्गों के बीच स्पष्ट रेखा खींच दी। एक पूंजीपति वर्ग और दूसरा श्रमिक वर्ग। उद्योगों के तीव्रतर विकास ने नई संभावनाओं एवं अधिक उत्पादकता के अवसर उपलब्ध करवाने प्रारम्भ किए। फलतः काम के घंटे बढ़ गए, 15 घंटे, 16 घंटे काम करना सामान्य बात हो गयी।
श्रमिक वर्ग की सुरक्षा एवं कल्याणकारी योजनाओं का अभाव साथ ही काम का बढ़ता बोझ, मजदूरों के आकस्मिक मौत तक का भी कारण बनने लगा। इन सबके खिलाफ मजदूर वर्ग संगठित होने लगा एवं अनेक मजदूर संगठन पश्चिमी देशों में बनाए जाने लगे। अपने अधिकारों की रक्षा के उद्देश्य से एवं पूँजीपतियों के शोषण से मुक्ति के लिए सरकार पर भी दबाब बनाने का प्रयास करने लगे।
यूरोप में इन्ही आंदोलनों के परिणामस्वरूप दंडित किए जाने वाले जो प्रारम्भिक संगठन थे वे थे – “टोलपडल मार्टयर्स ऑफ योर” एवं “डोरसेट”। 1871 ईस्वी में फ्रांस में श्रमिकों ने 8 घंटों के कार्यदिवस के लिए आंदोलन किया था, जिसके बाद वहाँ “पेरिस कम्यून” का गठन किया गया। लेकिन बाद में सरकार द्वारा इसे क्रूरतम कार्रवाई द्वारा समाप्त कर दिया गया था।
इन्हीं घटनाओं की कड़ी के रूप में अमेरिका के सभी मजदूर संगठनों ने 8 घंटों के कार्यदिवस के लिए मिलकर 1 मई 1886 को हड़ताल प्रारम्भ किया। 4 मई 1886 को शिकागो की “हेमार्केट” में किसी गलतफहमी के कारण हड़ताल के दौरान हुए बम ब्लास्ट के बाद पुलिस द्वारा गोलीबारी कर दी गयी। इस गोलीबारी में कई हड़ताली मजदूरों की मृत्यु हो गयी और करीब 100 से अधिक हड़ताली मजदूर घायल हो गए। बाद में इन मजदूरों के चार नेताओं को मृत्युदंड दे दिया गया।
लेनिन ने 1889 ईस्वी में पेरिस में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन की दूसरी बैठक में “हेमार्केट नरसंहार” में मारे गए निर्दोष मजदूरों की याद में 1 मई को “अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस” के अवकाश के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव रखा, जिसे 1891 ईस्वी में आधिकारिक मान्यता दे दी गयी। भारत में स्वाभाविक रूप से औद्योगिक क्रांति का प्रभाव कुछ देर से पड़ा। भारत में मजदूर दिवस की शुरुआत करने का श्रेय “कामरेड सिंगरावेलु चेटयार” को जाता है। उन्होने 1 मई 1923 को “लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान” द्वारा चेन्नई में “मद्रास दिवस” के रूप में मनाया जिसमें 1 मई को राष्ट्रीय अवकाश की मांग की गयी थी।
1 मई की तारीख मजदूरों की निष्ठा, लगन, परिश्रम तथा कर्तव्यपरायंणता का द्योतक है। आज विश्व के लगभग 80 देशों में मई दिवस के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय अवकाश की व्यवस्था है। मजदूरों के बलिदान दिवस के रूप में विश्व भर के मजदूरों के प्रति सरकार के रुख को अपने पक्ष में मोड़ने एवं जनसरोकारी नीतियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष मनाए जानेवाले “अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस” की महती भूमिका रही है।
मई दिवस समांतया अब एक रस्म अदायगी की तरह मनाया जाने लगा है। इस बाजरवाद की संस्कृति ने सारे महत्व के दिनों को ‘एक दिनी उत्सव’ के रूप में बदल दिया है। हर विशिष्ट प्रयोजन के लिए एक तिथी बन गयी है और उसका उदश्य एक आयोजन रह गया है। मई दिवस के दिन तमाम उद्योग बिरादरी, श्रम संगठन एवं राजनीतिक दलों में एक नई ऊर्जा का संचार होता दिख जाता है जो शाम होते होते अपन्र इतिश्री की ओर बढ़ जाता है, पुनः एक साल बाद ही हमें इसकी महत्ता याद आती है। यह एक बड़ा कारण है की धीरे धीरे श्रम संगठनों का महत्व उद्योगों एवं अन्य संगठित तथा असंगठित क्षेत्रों में दिन ब दिन घटता जा रहा है। कुछ हद तक सरकारी नीतियाँ भी इसके लिए उत्तरदायी रही है।
श्रम कानून जो एक लंबे अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन के बाद सुरक्ष हितों एवं कामगारों को बेहतर माहौल एवं सुविधाएं देने के लिए बनाया गया था उसकी महत्ता समाप्त हो रही है। बजरवाद एवं वैश्वीकरण ने एक नए तरह के और कार्मिक वर्ग का विकास किया जो कर्मचारी उन्मुख न होकर उद्द्योग जगतोन्मुखी अधिक रहा है। आज मजदूर संघ को विघटित करने में नई भर्ती नीति जो “हायर अँड फायर’ एवं :टर्म प्लान वर्क” केआर तरीकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें जहां कर्मचारी अपने कम को समबद्धह संगठनों के साथ स्थयी रूप से न करके “प्रोजेक्ट” की तरह से करना पसंद करते हैं। भविष्य में अब इस तरह के दौर के बढ्ने की संभावना अधिक बन रही है जो कहीं न कहीं पुरानी श्रम संगठन व्यवस्था को समाप्त कर देगी।
आज मजदूर दिवस के बहाने अपने देश के मजदूरों की वास्तविक स्थिति पर एक दृष्टिपात करना आवश्यक हो गया है। भारत जैसे विकासशील देश जहाँ संगठित क्षेत्र बहुत कम कामगारों को काम दे पाता है, मजदूर बुरी हालत में जीने को मजबूर हैं। देश का लगभग 90 प्रतिशत कामगार असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं जिन्हें संगठित क्षेत्र के मजदूरों की तुलना में कोई भी सुविधा प्राप्त नहीं होती। इनमें भी बहुत सारी संख्या प्रवासी मजदूरों की भी रही है।
वर्तमान वैश्विक संकट जो “कोरोना” के कारण नए रूप में आया है, ने भारतीय मजदूरों के लिए अनेक तरह की नई समस्याओं को जन्म दे दिया है। “अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन” की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के लगभग 2 अरब लोग जिसमें भारत के लगभग 40 करोड़ लोग नए सिरे से गरीबी से प्रभावित होने वाले हैं। भारत जैसे देश जहाँ की अर्थव्यवस्था का मुख्य केंद्र सिर्फ बड़े नगरों तक सीमित रहा है वहाँ से कामगारों का होनेवाला बड़ी संख्या में पलायन बहुत ही विचारणीय प्रश्न बन कर उभरे है।
यह न सिर्फ अर्थव्यवस्था बल्कि सामाजिक संरचना को भी प्रभावित करेगा। आज मजदूर दिवस के बहाने ही सही, पैदा हुई इस अप्रत्याशित परिस्थिति से मुक़ाबला करने एवं चुनौतियों से पार पाने के लिए कुछ नई तथा अलग नीति बनाने की आवश्यकता महसूस हो रही है। शायद मई दिवस से बेहतर तारीख इन बातों पर विचार करने के लिए और कोई हो भी नहीं सकती।
अतः इस नए दौर में समय की ये मांग है की श्रम संगठन सभी क्षेत्रों में अपने कलेवर में बदलाव करें एवं नई परिस्थितियों के अनुसार अपने कार्यशैली में परिवर्तन कर उसे समीचीन एवं प्रासंगिक बनाएँ। कर्मचारियों के हितों की रक्षा की कल्पना श्रम संगठन के बिना की भी नहीं जा सकती। अतः इस नए दौर में “मई दिवस” जैसे दिनों की महत्ता और अधिक बढ़ जाती है और इसे एक दिनी उत्सव की तरह न मानते हुए इसे एक नए क्रांतिकारी बदलाव का प्रतीक बनाना आवश्यक हो गया है।
(अमित कुमार स्वतंत्र लेखक हैं और पटना, बिहार में रहते हैं।)