मेवालाल तो गए, 282 करोड़ के इलेक्ट्रोरल बॉन्ड पर भी सवाल पूछिए


बिहार चुनाव के दौरान अक्तूबर महीने में स्टेट बैंक से ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा के इलेक्ट्रोरल बॉन्ड की खरीदारी की गई। राजनीतिक दलों को कारपोरेट घरानों ने मालामाल कर दिया। हालांकि कौन सा राजनीतिक दल मालामाल हुआ है, इसका खुलासा नहीं हुआ है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

बिहार में नई सरकार के गठन के बाद विधायक मेवालाल चौधरी सुर्खियों में आ गए थे। शिक्षा विभाग में घोटाले के आरोपी मेवालाल बिहार में नए शिक्षा मंत्री बनाए गए थे। उनको मंत्री बनाए जाने पर सोशल मीडिया पर जमकर हंगामा हुआ। ईमानदारी और सुशासन की सरकार ने भारी दबाव में मेवालाल चौधरी से इस्तीफा दिलवा दिया। मेवालाल के हाथ से मेवा निकल गया। लेकिन मेवालाल का मामला तो काफी छोटा मामला है।

इंडियन एक्सप्रेस में खबर आयी है कि बिहार चुनाव के दौरान अक्तूबर महीने में स्टेट बैंक से ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा के इलेक्ट्रोरल बॉन्ड की खरीदारी की गई। राजनीतिक दलों को कारपोरेट घरानों ने मालामाल कर दिया। हालांकि कौन सा राजनीतिक दल मालामाल हुआ है, इसका खुलासा नहीं हुआ है। लेकिन ठीक चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों को इतना भारी चंदा, यही संकेत देता है कि चंदे की रकम का इस्तेमाल बिहार चुनाव में किया गया है। इस चंदे की तार आलू और प्याज की बढ़ी कीमतों से भी जुड़े हो सकते है।

अकेले मेवालाल चौधरी को कोसने से क्या होगा? भारतीय लोकतंत्र की सिंचाई अब पैसे से हो रही है। सिंचाई में अपराधियों, माफियाओं और कारपोरेट घरानों के पैसे का इस्तेमाल हो रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अक्तूबर महीनें में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से 282 करोड़ रुपये का इलेक्ट्रोरल बॉन्ड कारपोरेट घरानों ने खरीदा। ये इलेक्ट्रोरल बॉन्ड चंदे के तौर पर राजनीतिक दलों को दिए गए। इलेक्ट्रोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को मिलने वाला वो चंदा है, जिस पर लगातार सवाल उठ रहा है।

इलेक्ट्रोरल बॉन्ड से मिलने वाला फंड राजनीतिक दलों को कौन दे रहा है इस बारे में जनता को जानकारी नहीं दी जाती है। कानूनन फंड देने वाले का नाम गोपनीय रखने का प्रावधान है। मोदी सरकार ने नाम गोपनीय रखने का प्रावधान कर भ्रष्टाचार को कानूनी रूप से वैध कर दिया। इलेक्ट्रोल बॉन्ड का ज्यादातर हिस्सा सताधारी दल को जा रहा है।

बॉन्ड के रुप में चंदा देने वाले लोगों का नाम गोपनीय है, राजनीतिक दल भी चंदा लेने वाले लोगों को चंदा लेने के एवज में क्या लाभ दे रहे है, इसकी जानकारी जनता को नहीं है। चंदा देने वालों में विदेशी भी शामिल है। राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार का सबसे बेहतरीन नमूना इलेक्ट्रोल बॉन्ड है। लेकिन भ्रष्ट तरीके से चंदा लेकर राजनीतिक दल बेशर्मी से अपने घोषणापत्रों में भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टालरेंस की बात करते है। लेकिन चंदा देने वाले कारपोरेट घराने राजनीतिक दलों से लाभ भी लेते है।

मुफ्त में कोई दान नहीं देता है। कारपोरेट घरानों के दान के पीछे का साफ उद्देश्य राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों की नीतियों को प्रभावित करना होता है। दान देने वाले लोग सरकार से जमकर लाभ लेते है। लेकिन राजनीतिक दलों को दान देने वाले लोग सरकार से क्या लाभ ले रहे है, इसकी जांच कौन करेगा? क्योंकि इस जांच पर तो खुद सरकार ने कानूनन प्रतिबंध लगा दिया है। वैसे तो मोदी सरकार कहती है कि भारत में भ्रष्टाचार गए जमाने की बात हो गई। वाकई में मोदी सरकार का यह दावा सच है, क्योंकि भ्रष्टाचार को मोदी सरकार ने कानूनी संरक्षण दे दिया। इलेक्ट्रोरल बॉन्ड इसका एक उदाहरण है।

बिहार चुनाव से ठीक पहले अक्तूबर महीने में राजनीतिक दलों को 282 करोड़ रुपये का चंदा मिला है। इस चंदे का इस्तेमाल निश्चित तौर पर बिहार विधानसभा चुनाव में हुआ है। इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के पैसे से वोट खरीदने की कोशिश भी कई गई होगी? इलेक्ट्रोरल बांड के पैसे से शराब भी बांटे गए होंगे? फिर सिर्फ मेवालाल चौधरी को मंत्री बनाए जाने को लेकर नीतीश कुमार से सवाल पूछना कितना वाजिब है? मेवालाल चौधरी को क्या मंत्रिमंडल से हटाए जाने के बाद अब बिहार सरकार का भ्रष्टतंत्र ठीक हो जाएगा?

नीतीश कुमार राजनीति के य़थार्थ को जानते है। मेवालाल पर लगे आरोपों की जानकारी नीतीश कुमार को पहले से थी। मेवालाल चौधरी पर बिहार में 2010 में शुरू किए गए एक कृषि विश्वविधालय की नियुक्तियों में जमकर धांधली करने का आरोप है। उनके खिलाफ जांच बिठायी गई थी और रिपोर्ट उनके खिलाफ आय़ी। नीतीश कुमार ने सारी सच्चाइय़ों को जानते हुए भी मेवालाल को टिकट देकर चुनाव ल़ड़वाया। मेवालाल चुनाव जीतकर भी आए। क्योंकि नीतीश कुमार जानते है कि बिहार में जाति भ्रष्टाचार पर हावी है।

नीतीश कुमार बेशक भ्रष्ताचार को बर्दाश्त नहीं करने का दावा करते है, लेकिन जमीनी स्तर पर हर बिहारवासी जानता है कि नीतीश कुमार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार एक सच्चाई है। फिर भ्रष्टाचार सता के संरक्षण के बिना संभव नहीं है। नीतीश कुमार यह भी जानते है कि भाजपा भ्रष्टाचार को लेकर उन्हें नहीं घेर सकती है। तभी तो उन्होने भ्रष्टाचार के आरोपी को टिकट भी दी। अगर वाकई में एनडीए गठबंधन भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर होता तो मेवालाल को टिकट ही नहीं मिलती।

यूपीए सरकार के कार्यकाल में कोलगेट घोटाला को लेकर जमकर हंगामा हुआ था। 2 जी स्पेक्ट्रेम घोटाला भी यूपीए सरकार के गले का फंदा बन गया। 2013 तक मनमोहन सिंह की सरकार घोटालों की सरकार साबित हो गई थी। देश की तमाम संस्थाएं सरकार के कामकाज पर सवाल उठा रही थी। एनडीए की सरकार में भी कई बड़े घोटालों को लेकर विपक्ष ने हंगामा किया है। लेकिन वर्तमान सरकार इन घोटालों की जांच के प्रति कहीं भी संवेदनशील नजर नहीं आती है।

मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में घोटालों पर सक्रिय संस्थाएं अब मोदी सरकार के कार्यकाल में चुप्पी साधे हुए है। नियमों को ताक पर रख निजीकरण किया जा रहा है। सारी संस्थाएं चुप है। सरकार से कम से कम यह तो पूछा जाना चाहिए कि जो सरकारी कंपनियां फायदे में है उसे क्यों बेचा जा रहा है ?

मान लीजिए एयर इंडिया घाटे में है, उसे बेचना वाजिब है। लेकिन रेलवे और भारत पेट्रोलियम तो लाभ का सौदा है। उसे क्यों बेचा जा रहा है? आखिर किसके दबाव में भारत संचार निगम लिमिटेड को 4 जी का लाइसेंस नहीं दिया गया? एक सरकारी कंपनी को 4 जी का लाइसेंस नहीं देना क्या भ्रष्टाचार नहीं है? अपराध नहीं है? अगर 4 जी का लाइसेंस समय पर बीएसएनएल को मिलता तो क्या बीएसएनएल बदहाली होता?