
के एन गोविंदाचार्य
इनकी संख्या अनुमानतः 45 करोड़ तो पड़ती ही है। वे सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध और आर्थिक दृष्टि से विपन्न है। यही हमारे देश की वह कमजोर कड़ी है। इसे मजबूत किये बगैर केवल जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़ों से भारत आर्थिक महाशक्ति नहीं हो सकता। इस क्रम मे यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि विकास के बारे मे कई बार आंकड़ों का खेल भुलावा और छलावा का राजनैतिक खेल बन जाता है। पढ़े-लिखे जानकार लोगों के बुद्धिविलास की विषयवस्तु बन जाती है।
इस कमजोर कड़ी की स्थितियों को जानना, समझना जरूरी है। तभी जमीनी जरूरते समझ मे आयेंगी। इनकी जीवनशैली में मोबाइल, बैंक अकाउंट का उपयोग कुछ अलग तरह से होता है। गांव-घर से संपर्क का मुख्य माध्यम बन जाता है, साथ ही मन तकलीफों से भटकाने या मन लगाने के उपकरण के नाते मनोरंजन की विधा मे काम आता है। समाचार पत्रों, वेबपोर्टल को डाउनलोड करने के काम नहीं आता।
असंगठित लोगों के पास गांव-घर, पैसे भेजने के भी अपने अनौपचारिक इंतजाम होते है। सोशल डिस्टेंसिंग, घरों मे रहने का आग्रह आदि शब्द इस धरातल पर अनबूझ रह जाते है। उनको अपने घर का बजट, कमाई मे खर्च की बजाय बचत का गणित तो बैंकों और सरकारी पैसे पर निर्भर कॉर्पोरेटिये से बेहतर समझ में आता है। वे आत्मनिर्भर स्वभाव संस्कार से हैं, नीति निर्देश से नहीं।
उन्हें, सहयोग, संबल की जरुरत है। इस आबादी को केंद्र बिन्दु बनाकर सोचेंगे तो विकास की वर्णमाला का क, ख, ग होगा कि इस वर्ग के हर बच्चे को रोज आधा किलो दूध,आधा किलो फल और आधा किलो सब्जी इसे आधार बनाकर विकास की योजना, बजट, धन-साधन आवंटन, देसी तरीके से हो न कि घुमा-फिराकर द्राबिड़ी प्राणायाम से। अभी कोरोना संकट में सबके बड़ी जरुरत है कि इस तबके के हाथ पैसा सीधे पहुंचे। कोरोना के बाद की स्थितियों में भारत के आर्थिक विकास के अनोखे क्रम में कृषि, गोपालन वाणिज्य को महत्त्व देना होगा और उसमें गोवंश को प्रतिष्ठा का स्थान देना होगा।
(लेखक भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव हैं।)
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