अति सर्वत्र वर्जयेत : कोरोना,लॉकडाउन एवं वर्क फ्रॉम होम


ज्यादा तो कोई भी चीज ठीक नहीं है। न ज्यादा बरसात होना ठीक है और न ही धूप का ज्यादा होना ही ठीक है। इसी तरह जरूरत से ज्यादा बोलना और चुप रहना भी उचित नहीं है। ज्यादा खाना खाने से भी पेट खराब हो जाता है और एक मानक से अधिक मात्रा में ली जाने वाली औषधि यानी दावा भी फायदा पहुंचाने के स्थान पर रोगी को नुक्सान ही पहुंचाती है। कुछ ऐसी ही हालत अब, “वर्क फ्रॉम होम” की भी हो गई है।



संस्कृत की एक सूक्ति है, “अति सर्वत्र वर्जयेत “जिसका शाब्दिक अर्थ है कोई भी काम, कोई भी आदत कोई भी खाद्य पदार्थ, कोई भी पहनावा या फिर कोई भी मौसम एक सीमा तक ही ठीक लगता है उसके बाद यह सब उबाऊ हो जाता है, इंसान का इन सबसे मन भी भर जाता है और वह कुछ नया करने की भी सोचने लगता है। यही नहीं जरूरत के बाद तो हर चीज शरीर को फायदा पहुंचाने के स्थान पर नुक्सान करने लगती है चाहे वो दवा,  भूखे पेट को भरने वाला भोजन या फिर प्यास बुझाने के लिए पिया जाने वाला पानी ही क्यों न हो। हिंदी के एक लोक कवि ने इस सच्चाई को अपने शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त किया है, “अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप “।
मतलब यह कि ज्यादा तो कोई भी चीज ठीक नहीं है। न ज्यादा बरसात होना ठीक है और न ही धूप का ज्यादा होना ही ठीक है। इसी तरह जरूरत से ज्यादा बोलना और चुप रहना भी उचित नहीं है। ज्यादा खाना खाने से भी पेट खराब हो जाता है और एक मानक से अधिक मात्रा में ली जाने वाली औषधि यानी दावा भी फायदा पहुंचाने के स्थान पर रोगी को नुक्सान ही पहुंचाती है। कुछ ऐसी ही हालत अब, “वर्क फ्रॉम होम” की भी हो गई है। गौरतलब है कि इस साल की शुरुआत में ही पड़ोसी देश चीन से मिलने वाले संक्रामक कोरोना  रोग को फैलने से बचाने के लिए मार्च महीने के दूसरे सप्ताह के बाद ही लॉकडाउन के साथ वर्क फ्रॉम होम का सिलसिला भी शुरू हो गया था। 

यूरोप और अमेरिका के कई देशों में तो इस सिलसिले की शुरुआत मार्च के पहले सप्ताह से ही हो गई थी लेकिन भारत में यह सिलसिला विधिवत रूप से 25 मार्च से शुरू हुआ था, इससे पहले 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के नाम से एक दिन के लिए सारा कामधाम बंद कर वैश्विक बंदी के इस प्रयोग का व्यवहारिक परीक्षण किया गया था।

भारत में लॉकडाउन के साथ ही घर से काम करने का सिलसिला भी शुरू हुआ। शुरुआत में कुछ दिक्कत हुई। लोगों को नई तकनीक को समझने और उसके अनुरूप काम करने के लिए खुद को तैयार करने में समय लगा लेकिन कुछ दिन बाद ही लोग इसके आदी भी हो गए। अब एक स्थिति ऐसी भी आ गई है कि लोग इससे उकताने लग गए हैं। लॉकडाउन के चलते वर्क फ्रॉम होम का यह सिलसिला शुरू तो 25 मार्च से हुआ था और उम्मीद की जा रही थी कि 14 अप्रैल को लॉकडाउन की 21 दिवसीय अवधि समाप्त होने के बाद लोग अपने ऑफिस जाना शुरू कर देंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
कोरोना के वायरस का आतंक कम होने के बजाय बढ़ने ही लगा तो पहले लॉकडाउन की अवधि 30 अप्रैल तक और बाद में दो किश्तों में बढ़ा कर 30 मई तक कर दी गई थी। लॉकडाउन के साथ ही वर्क फ्रॉम होम का सिलसिला भी आगे बढ़ता रहा। जून के पहले सप्ताह से लॉकडाउन का स्वरूप बदल कर उसे अनलॉक नाम दिया गया। कई चरणों में विभाजित इस प्रक्रिया को लागू करने के सन्दर्भ में धीरे-धीरे कारखाने, दफ्तर, बाजार और सामुदायिक स्थल खोलने और काम करने की प्रक्रिया शुरू की गई लेकिन अभी भी पचास फीसदी से ज्यादा लोग विभिन्न कारणों की वजह से लॉकडाउन की तरह घर से ही काम कर कर रहे हैं। 

आज जो लोग घरों से काम कर कर रहे हैं उनमें स्कूल- कॉलेज में काम करने वाले शिक्षकों, गैर शिक्षक कर्मचारियों और केंद्र तथा राज्य सरकार के कर्मचारियों के साथ ही असंख्य निजी कंपनियों में कार्यरत कर्मचारी और अधिकारी शामिल हैं। कोरोना ने भारत जैसे देश की कार्य संस्कृति ही पूरी तरह बदल दी है। जैसे -जैसे कोरोना का संकट बढ़ता गया लोग वर्क फ्रॉम होम के नाम पर अपने घरों में ही क़ैद होने लगे।

शुरू में तो लोगों को मजा आया। मुफ्त में घर बैठने का आनंद भी लोगों ने लिया,पर जब धीरे-धीरे उनके नियोक्ताओं ने कमर कसनी शुरू की तो अब लोग यह कहने लगे हैं कि इससे बेहतर तो ऑफिस जाकर करना ही था। कई निजी कंपनियों के नियोक्ता तो अपने कर्मचारियों से ऑफिस समय से दो- तीन घंटे ज्यादा काम लेने लगे हैं। निजी नियोक्ताओं का तर्क होता है घर से ऑफिस जाने और वापस घर आने में लगने वाले समय की तो घर में बैठ कर काम करने में बचत हो रही है। उसी समय का कुछ हिस्सा ऑफिस के काम को दिया जा सकता है।

दिल्ली जैसे महानगर में एक इंसान को सामान्य दिनों में ऑफिस जाने और वापस घर आने में हर रोज औसतन कम से कम तीन घंटे का समय तो लागता ही है। कंपनी वाले इसी समय का कम से कम एक तिहाई हिस्सा जो औसतन एक से डेढ़ घंटा आता है, अपने कर्मचारियों से कंपनी को देने को कहते हैं। बात भी सही है जब कोई कंपनी अपने कर्मचारी को हर महीने घर बैठे वेतन उपलब्ध करा रही है तो उसका इतना शोषण तो कंपनी कर ही सकती है। कर्मचारी इस मामले में चुप रहना ही उचित समझता है क्योंकि उसे बाजार की हालत मालूम है। 

इस समय किसी भी तरह से नौकरी कर रहा हर इंसान यह भी जानता है कि कोरोना की वजह से पूरी दुनिया में बेरोजगारी का आलम है। अकेले भारत में ही अप्रैल-मई तक कोरोना की वजह से लगभग पौने तीन करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके थे अब तक तो यह संख्या काफी आगे बढ़ चुकी है। नौकरी जाने का डर सभी के मन में बुरी तरह व्याप्त है इसीलिए कोई कुछ बोलना नहीं चाहता लेकिन सच बात तो यह है कि अब इंसान घर से काम नहीं करना चाहता।

घर से काम या घर पर रह कर काम करने की कई फायदे तो हैं, मसलन ऑफिस आने -जाने में लगने वाले समय के साथ ही पैसे की भी बचत होती है। कर्मचारी को बॉस की डांट-फटकार से भी मुक्ति मिल जाती है लेकिन घर में रह कर इंसान ऑफिस के माहौल को मिस करता है। अपने साथियों के साथ चुहलबाजी करने, लंच आवर में एक- दूसरे के साथ कर भोजन करने, हंसीं-मजाक करने और इसी तरह के माहौल में रहने का जो आनंद उसे मिलता था उसे वह वर्क फ्रॉम होम में बुरी तरह मिस करता है। 

हाल ही में कराये गए एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि घर से काम करने वाले करीब 82 फीसदी लोग अब बुरी तरह ऊब गए हैं और वो जल्दी ही ऑफिस जाकर काम करने की इच्छा पाले हुए हैं। ये लोग घर में रह कर ऑफिस को बुरी तरह मिस कर रहे हैं। इस सर्वे में एशिया प्रशांत के 5 देशों के करीब 1500 लोगो से बात की गई थी, सर्वे के मुताबिक़ युवा कर्मचारी ऑफिस को अधिक मिस कर रहे हैं, ऐसे कर्मचारियों का कहना है कि इस अवधि में घर से काम करते हुए उन्हें तकनीकी की जानकारी तो जरूर ज्यादा मिली लेकिन ऑफिस के एक ख़ास माहौल की याद भी खूब आई।